राहुल की मोदी को चुनौती के कुछ सीरियस एंगल…

अजय बोकिल

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी द्वारा नई दिल्ली में सोमवार को ‘संविधान बचाओ अभियान’ के आगाज के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दी गई खुली चुनौती पर सोशल मीडिया में खासी प्रतिक्रिया हुई। खुद कांग्रेस ने राहुल बाबा की इस चुनौती को लेकर ट्विटर पर ऑन लाइन पोल भी शुरू कर दिया। इस पर कई तरह के कमेंट आए। कुछ संजीदा थे तो कुछ चटखारे लेने वाले थे। भाव यही था कि राहुल की ऐसी चुनौती देने की हिम्मत कैसे हुई? उन्हें किसने ब्रीफ किया?

राहुल गांधी ने अपने जोशीले भाषण में मोदी पर आरोप लगाया था कि वे तानाशाही सोच के इंसान हैं। किसी को बोलने नहीं देते और खुद नीरव मोदी, माल्या और राफेल जैसे घोटालेबाजों पर बोलने से बचते हैं। राहुल ने खुला चैलेंज किया कि यदि मोदी मुझे संसद में मुझे 15 मिनट बोलने का मौका दें तो मैं उनकी सरकार की पोल खोल कर रख दूंगा। इसके बाद मोदी संसद में खड़े भी नहीं रह पाएंगे।

राहुल गांधी के इस भाषण में उनकी सच्चाई उजागर करने की तड़प समझी जा सकती थी। लिहाजा उनकी पार्टी कांग्रेस ने मंगलवार को सोशल मीडिया में ट्रेंड चलाया कि क्या मोदी राहुल के 15 मिनट के भाषण वाली चुनौती को स्वीकार करने की हिम्मत जुटा पाएंगे? ‘इंडिया स्पीक्स # राहुल डेयर्स मोदी’ नामक इस ट्रेंड पर यूजर्स को 24 घंटे में ‘हां’ या ‘ना’ में जवाब देना था। सुबह पौने ग्यारह तक इसमें 18 हजार 240 वोट पड़ चुके थे।

हैरानी की बात यह थी कि ज्यादातर यूजर्स ने राहुल की इस चुनौती को मजाक के तौर पर लिया। जाने-माने (मोदी भक्त) पत्रकार अर्णव गोस्वामी ने अपेक्षा के अनुरूप ट्वीट किया कि राहुल को अगले 50 साल भी पीएम बनने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। एक ने लिखा कि ‘मोदी बब्बर शेर है, कांग्रेस कचरे का ढेर है। दूसरे ने सवाल किया कि क्या राहुल 15 मिनट लगातार बोल भी सकते हैं? भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने तल्खी भाव से कहा कि ‘एक आदमी जो मोबाइल देखे बिना दो लाइन नहीं लिख सकता, वह 15 मिनट तक बोलना चाहता है।‘

राहुल गांधी अमेठी से सांसद हैं और देश की प्रमुख पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। हालांकि खुद उनके संसद में बोलने और उपस्थिति का रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं है। पंद्रहवी लोकसभा में तो वो एक बार भी नहीं बोले, जबकि वर्तमान सोलहवीं लोकसभा में वो अब तक 10 बार बोले हैं। उनके ये भाषण असहिष्णुता, महंगाई आदि पर केन्द्रित रहे हैं। संसद में उनकी सर्वाधिक 81 प्रतिशत उपस्थिति वर्ष 2014 के बजट सत्र में रही, जब कि इस साल बजट सत्र में उनकी संसद में हाजिरी 41 फीसदी ही रही। ऐसे में राहुल का यह चैलेंज करना कि उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया जा रहा है, बहुत व्यावहारिक नहीं लगा।

रहा सवाल मोदी का तो चूंकि वे प्रधानमंत्री हैं और पीएम को हाजिरी रजिस्टर पर साइन करने से छूट है, इसलिए संसद में उनकी उपस्थिति का रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। लेकिन विपक्ष ने कई बार पीएम को बुलाने को लेकर संसद में हंगामा किया है, इससे कुछ संकेत मिलता है। जहां तक संसद में उनके बोलने की बात है तो प्रधानमंत्री महत्वपूर्ण मुद्दों पर तथा अहम बहसों के जवाब ही देते हैं। लेकिन मोदी पर आरोप यह है कि बोलने के मामले में वो बेहद ‘सिलेक्टिव’ हैं। वे उन्हीं मुद्दों पर और अपने टाइमिंग के हिसाब से बोलते हैं, जो उन्हें राजनीतिक रूप से सूट करता है।

यहां सवाल यह है कि राहुल ने जो चुनौती मोदी के सामने पेश की है, उसमें कितनी गंभीरता है? उसकी राजनीतिक मार कितनी है और क्या इसका मोदी जवाब देंगे? यह सही है कि देश में राहुल गांधी की एक खास किस्म की ‘नॉन सीरियस’ छवि गढ़ दी गई है। ऐसे में उनका कुछ भी और कितनी भी ईमानदारी से बोलना भी आलोचकों को चटखारे लेने का मौका देता है। इस छवि निर्माण के पीछे बीजेपी के सशक्त प्रचार तंत्र की भूमिका तो है ही, खुद राहुल का अप्रत्याशित व्यवहार भी कारण रहा है।

फिर भी पहले की तुलना में अब उनकी बात और ज्यादा गंभीरता से इसलिए ली जाने लगी है, क्योंकि वे कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। माना जा सकता है कि वो जो कहते हैं, वह दरसअल कांग्रेस के ‘मन की बात’ ही होती है। ऐसे में राहुल ने भाषण में 15 मिनट बोलने देने की मोहलत अगर मांगी है तो इसके पीछे भी गहरी सियासी सोच और चाल क्या है? साथ ही ये सवाल भी उठ रहे हैं कि राहुल 15 मिनटों में ऐसी कौन सी पोलें खोलने वाले हैं कि मोदी सरकार की बोलती बंद हो जाए और स्वयं मोदी संसद में भी खड़े न रह पाएं।

राहुल के बयान पर मजाकिया ट्रोल को दरकिनार करें तो जो बात उन्होंने कही है, वह लोकतंत्र के तकाजों को फिर से रेखांकित करने वाली है। मसलन मोदी उन मुद्दों पर बोलने से सहजता से क्यों टाल जाते हैं, जिन पर देश उनसे एक प्रधानमंत्री के रूप में आश्वस्ति चाहता है। चाहे, गोरक्षा के कारण हत्याएं हों, असहिष्णुता का मामला हो, आर्थिकी को लेकर आशंकाएं हों, दक्षिण एशिया में भारत के दबदबे पर लग रहे प्रश्न चिन्ह हों, माल्या, नीरव और चोकसी का देश को अरबों का चूना लगाकर भागना हो, विपक्ष से सौहार्द पूर्ण रिश्ते हों या फिर परस्पर संवाद की परंपरा का डस्टबिन में पड़ा रहना हो।

ऐसे तमाम सवालों पर मोदी या तो बोलते ही नहीं या फिर अपनी सुविधा और मर्जी से बोलते हैं। यह बात अलग है कि वो जो और जिस शैली में बोलते हैं, वह कुछ समय के लिए सच प्रतीत होता है। राहुल मोदी जैसे धुरंधर वक्ता भले न हों, लेकिन एक प्रमुख विपक्षी और देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी के अध्य्क्ष के नाते उनकी चिंताएं निरर्थक और निराधार हैं, यह मान लेना भी केवल आत्ममुग्धता है। राहुल की चुनौती में बेचैनी इस बात की है कि मोदी बात तो करें। सर्वज्ञता के अपने बुनें खोल से बाहर तो झांकें। वे पार्टी से बढ़कर देश के प्रधानमंत्री की तरह बर्ताव करें।

राहुल की ये चुनौती आज मजाक लग सकती है, लेकिन कल को यही बात भाजपा के लिए चुनौती भी खड़ी कर सकती है, इसे अतिशयोक्ति नहीं मानें।

(सुबह सवेरे से साभार)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here