इस बार यह संयोग रहा कि गणेश चतुर्थी और शिक्षक दिवस एक साथ आए। गणेश का विद्या से गहरा नाता है और तुलसीदास ने उन्हें विद्यावारिधि एवं बुद्धिविधाता कहकर संबोधित किया है। जाहिर है जब इस तरह का संयोग और संदर्भ हो तो इन त्योहारों के बहाने समाज की वर्तमान स्थिति पर नजर चली ही जाती है। हम अपनी पौराणिक कथाओं और गुरुओं के साथ साथ समाज से भी बहुत कुछ सीखते हैं।
इस बार मेरा ध्यान एक खास चीज की ओर गया जिस पर मैं समझता हूं, विचार करने की जरूरत है। आपने देखा होगा कि पिछले दो चार सालों से इस बात को जोर शोर से प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है कि गणेश प्रतिमाओं के निर्माण में प्लास्टर ऑफ पेरिस और घातक रंगों का इस्तेमाल न किया जाए। पर्यावरणविदों का कहना है कि गणेशोत्सव के समापन पर जब ये प्रतिमाएं जलस्रोतों में विसर्जित की जाती हैं तो वे जलस्रोतों को भीषण रूप से प्रदूषित करती हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जैसी संस्थाओं ने भी इस बारे में कई दिशा निर्देश जारी किए हैं। मीडिया में भी इस बात को लेकर जोर शोर से प्रचार किया जा रहा है कि प्लास्टर ऑफ पेरिस के बजाय मिट्टी की प्रतिमाएं बनाई जाएं। हाल के दिनों में ऐसे कई आलेख प्रकाशित हुए हैं कि मिट्टी के गणेश किस तरह आप अपने घरों पर बना सकते हैं। मिट्टी के साथ साथ इको फ्रेंडली चीजों से भी गणेश प्रतिमाएं बनाने के तरीके सुझाए जा रहे हैं। कुल मिलाकर जोर इस बात पर है कि हमें उन चीजों से गणेश प्रतिमाएं बनानी चाहिए जो हमारे पर्यावरण को न तो प्रदूषित करें और न ही उसे कोई नुकसान पहुंचाएं।
सैद्धांतिक रूप से यह विचार उत्तम है और सुनने में भी अच्छा लगता है। लेकिन मैं इसके एक और पहलू पर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं। और वह पहलू यह है कि जब भी हम किसी अच्छी बात को प्रचारित या प्रसारित करते हैं, तो यह नहीं सोचते कि बाजार उस ‘भले विचार’ का भी किस तरह से दुरुपयोग करेगा या उसे भी अपने मुनाफे अथवा लोगों के शोषण का जरिया बना लेगा। गणेश प्रतिमाएं मिट्टी की होनी चाहिए, इस अभियान ने बाजार के दोनों हाथों में लड्डू रख दिए हैं। कैसे? तो सुनिए…
इस बार जब मैं गणेश पूजा के लिए प्रतिमा लेने गया तो इरादा मिट्टी की प्रतिमा ही लेने का था। लेकिन बाजार में मिट्टी की प्रतिमाओं के दामों ने मेरे होश उड़ा दिए। एक छोटे से आकार की प्रतिमा भी 151 रुपए से कम की नहीं थी। मध्यम आकार यानी छह से आठ इंच की ऊंचाई वाली प्रतिमाओं की कीमत 2100 से 2500 तक बताई जा रही थी। जब मैंने उसी आकार की प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमा के दाम पूछे तो आप सुनकर दंग रह जाएंगे कि वे मिट्टी की प्रतिमाओं की तुलना में एक तिहाई ही थे। यानी मिट्टी की जो प्रतिमा 200 रुपए में मिल रही थी उसी आकार की प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमा 50 से 60 रुपए में आसानी से उपलब्ध थी।
जब मैंने इसका कारण पूछा तो दुकानदारों ने बताया कि मिट्टी की प्रतिमाएं बाहर से मंगाई गई हैं इसलिए महंगी हैं। बाहर से क्यों? इस सवाल का जवाब था कि मिट्टी की प्रतिमाएं आसानी से नहीं बनतीं और हमारे यहां ऐसी प्रतिमाएं बनाने वाले कारीगर उतनी संख्या में नहीं हैं।
यानी पिछले कुछ सालों में बाजार ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाओं को चलन में लाकर हमारा दोहरा नुकसान किया है। पहला तो उसने पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया और दूसरा हमारे कारीगरों के परंपरागत हस्तकौशल को सांचों पर आश्रित कर दिया। चूंकि सांचों में प्लास्टर ऑफ पेरिस को भरकर प्रतिमाएं बनाना आसान है और वे कम समय में अधिक संख्या में बन भी जाती हैं इसलिए ज्यादातर कारीगरों ने उसे ही अपना लिया। अब जब मिट्टी की प्रतिमा के उपयोग पर जोर दिया गया और इसका भारी प्रचार प्रसार हुआ तो बाजार ने अपने लिए फिर सुनहरा मौका देखा और कारीगर और खरीदार के बीच बाजार के मुनाफाखोर कूद पड़े। इस बार उन्हें पता था कि मीडिया के प्रचार प्रसार के चलते लोग मिट्टी की प्रतिमाएं ज्यादा मांगेंगे इसलिए बाजार ने मिट्टी को मिट्टी के मोल नहीं बल्कि सोने के मोल बेचने की चाल चली।
और यह भी जान लें कि जो प्रतिमा बाजार के ये मुनाफाखोर पांच सौ रुपए में बेच रहे हैं हो सकता है कारीगर से उन्होंने थोक के भाव में पांच रुपए में ही खरीदी हो। यानी आप जिस पर्यावरण संरक्षण की बात कर रहे हैं उससे पर्यावरण का कितना भला होगा यह तो पता नहीं पर बाजार ने तो इसका हाथों हाथ फायदा उठा लिया है। और कोढ़ में खाज यह कि बाजार में प्लास्टर ऑफ पेरिस की प्रतिमाएं भी उतनी ही संख्या में मौजूद हैं। यानी यदि आप पर्यावरण संरक्षण की भावना में बहने के बजाय अपनी जेब पर ध्यान देने वाले ग्राहक हैं तो आपके लिए वह विकल्प सहजता से उपलब्ध है। और ग्राहक को जब भगवान सस्ते में मिल रहे हों तो कौन मूर्ख होगा जो उन्हें महंगी दरों पर खरीदना चाहेगा। रही बात पर्यावरण की तो वह जाए भाड़ में, किसी को क्या पड़ी है उसकी रक्षा के लिए पांच रुपए की चीज पांच सौ रुपए में खरीदने की।