हाल ही में पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने ट्विटर प्लेटफार्म को छोड़ने का ऐलान किया है। आधुनिक पत्रकारिता के पार्थ रवीश कुमार के बाद वे दूसरे पत्रकार हैं जिन्होंने ट्विटर प्लेटफार्म छोड़ने जैसा कदम उठाया है। ये दोनों ‘धनुर्धर’ कई सालों से इस सोशल प्लेटफार्म पर सक्रिय थे और उनके फॉलोअर्स की संख्या भी अच्छी खासी थी। जैसे रवीश के ट्विटर छोड़ने पर ‘नेट मीडिया’ (मैं इस शब्द को ‘ग्रास मीडिया’ के बरक्स इस्तेमाल करता हूं) में लंबी बहस चली थी, वैसी ही बहस राजदीप के छोड़ने पर भी शुरू हो गई है।
किसी मंच पर चढ़ना और मंच से उतर जाने का फैसला हर व्यक्ति का अपना होता है। लेकिन चूंकि मंच पर चढ़ने और उतरने की क्रिया सार्वजनिक होती है, इसलिए यह पड़ताल की जाना जरूरी है कि आखिर वह व्यक्ति मंच पर क्यों चढ़ा था और जब मंच से उतरा (या उतार दिया गया) तब तक उसने मंच पर रहकर क्या किया? कहने को फेसबुक, ट्विटर आदि आभासी दुनिया के मंच हैं, वहां आप शारीरिक रूप से आमने-सामने नहीं होते इसलिए, वहां लिहाज के वे बंधन भी नहीं पाए जाते या कि लागू नहीं होते, जो आम जीवन में किसी एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के सामने पड़ जाने पर निभाए जाते हैं। भले ही वे आपस में कितने ही दुश्मन क्यों न हों। और यही बात सोशल मीडिया के प्लेटफार्म को सबसे अधिक घातक बनाती है। चूंकि वहां छोटे-बड़े, पढ़े-लिखे और समझदार-गंवार आदि को कोई भेद ही नहीं है, और भेद की बात तो छोडि़ए उस व्यक्ति की कोई पुख्ता पहचान ही नहीं है, तो वहां सब कुछ ऐसे ही चलता है। एक अदृश्य हाथ या लात आप पर चटाक से पड़ता है और आप उस अदृश्य वार की चोट से तिलमिलाकर रह जाते हैं।
चूंकि ऐसे हजारों-लाखों हाथ और लात अंतरिक्ष में घूम रहे हैं और उनके ऑरबिट या कक्षा का भी कोई पता नहीं, इसीलिए कोई भरोसा भी नहीं कि आप कब कहां किस घूंसे का या किस दुलत्ती का शिकार हो जाएं। ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया पर लात खाने से कोई बचा हो। इस मामले में यहां पूर्ण समाजवाद है, यहां यदि प्रधानमंत्री को लात पड़ सकती है तो एक अदने से ‘अकाउंट होल्डर’ को भी। यही इस मंच की ‘खूबसूरती’ है। आप बस हवा में लात लहरा दो सामने वाला उसे खाया हुआ महसूस कर लेगा। आपको अपनी लात भौतिक रूप से उसे मारने की जरूरत ही नहीं है। और इसी ‘निशुल्क सुविधा’ का लाभ लेकर कई ‘लत्ताड़’ इस प्लेटफार्म पर छुट्टे सांड की तरह घूम रहे हैं। न तो उनका विचार से कोई लेना देना है और न ही किसी मुद्दे की मूल भावना से। उन्हें बस लात चलानी है, तो चलानी है। आज इस पर चलाई, कल उस पर चलाएंगे। ऐसे लाल, हरे, पीले, नीले,काले कई ‘लात-गिरोह’ पैदा हो गए हैं, जो दिन-रात यही काम करते रहते हैं। यहां कुछ बेसिक रंगों की लातें हैं और कुछ लातें इन रंगों के मिश्रण से तैयार हुई हैं।सब अपने अपने रंग से खेल रहे हैं।
इस ‘महारास‘ का एक दूसरा पक्ष भी है। ट्विटर के प्रागैतिहासिक काल की बात छोड़ दें और यदि उसके ‘आधुनिक या उत्तर आधुनिक काल’ की बात करें तो ज्ञात होगा कि जिन जिन लोगों ने इस मंच पर लात खाई है, उनके कृत्य भी स्तुत्य नहीं रहे हैं। वे जानबूझकर सांड के सामने लाल कपड़ा लेकर निकले हैं। सोशल मीडिया पर यह भी एक ‘विशिष्ट प्रजाति’ है, जो समझती है कि अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उसे कुछ भी कहने की छूट है। बुल फाइट के दृश्य यदि आपने देखे हों, तो उसमें ट्विटर की आधुनिक दशा के सारे उत्तर मौजूद हैं। वहां फाइटर लाल कपड़ा लेकर सांड के सामने लहराता हुआ घूमता है। भड़का हुआ सांड उसके पीछे भागता है और वह तेजी से खुद को रोक कर या दिशा बदलकर सांड को चकमा देता हुआ उसके वार से बच निकलता है। लेकिन हर बार ऐसा नहीं होता। जिस समय सांड का दांव लगता है, तब वो फाइटर की ऐसी दुर्दशा करता है कि जान के लाले पड़ जाते हैं। लहूलुहान हुए या सांड की लातों से कुचले हुए फाइटर को उसके सहयोगी यदि मैदान से बाहर न ले जाएं तो सांड उसकी जान ही ले ले। इसलिए मामला हाथ से बिगड़ता देख या तो फाइटर खुद ही मैदान छोड़ देता है या उसके घायल होने पर उसके साथी किसी तरह उसे सांड के वार से बचाते हुए बाहर निकाल लेते हैं।
यानी आप यदि सोच समझकर बुल फाइट के मैदान में उतरे हैं और आपके हाथ में लाल कपड़ा भी है, तो फिर यह मत चिल्लाइए कि सांड ने आप पर हमला कर दिया। आप जानते हैं कि आप पर हमला होगा, आप जानते हैं कि आपकी दुर्दशा हो सकती है, और दुर्दशा क्या, आपकी जान भी जा सकती है। तो भाई, जान बूझकर आप खुद ‘लाल सूट’ पहनकर घूमें और दोष सांड को दें यह तो कोई बात नहीं हुई। सांडों के बाड़े में लाल सूट पहनकर घूमना न तो अभिव्यक्ति की आजादी का मामला है और न ही किसी शूरवीरता का। आज के सोशल मीडिया का यही‘असली सामाजिक संदेश’ है। लात खाने से बचना है तो इसे समझिए… वरना सहलाते बैठे रहिए अपना पृष्ठ भाग…!