समाज की धुलाई और धोबी घाट की दरकार…!

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अजय बोकिल

बिहार में धोबी समाज की यह चेतावनी वाकई दिलचस्प और गंभीर है कि वे होली के बाद प्रदेश के जनप्रतिनिधियों के कपड़े धोना बंद कर देंगे। कारण इस समाज की 18 सूत्री मांगों का कोई निराकरण नहीं हो रहा है। धोबी समाज की मुख्य मांग यही है कि पटना के कंकड़बाग में धोबी घाट निर्माण जल्द कराया जाए। समाज ने अगले माह से जन आंदोलन करने का फैसला भी किया है।

यानी धोबी घाट न बना तो राज्य के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों को धुले कपड़े नसीब न होंगे। उनके वास्तविक और राजनीतिक स्वच्छता अभियान की हवा निकल जाएगी। समाज को पता चलेगा कि धोबी समाज की अहमियत क्या है? स्वच्छता अभियान में उसका कितना महती योगदान है। क्योंकि सफाई के मायने केवल घर-बाहर का झाड़ पोंछा ही नहीं है।

साफ कपड़े पहनना भी है। साफ-सुथरे वस्त्र ही आपकी सफाई पसंदी का खुला ऐलान होते हैं और यह काम बड़े पैमाने पर आज भी धोबी समाज ही करता है। यह बात अलग है कि व्यक्ति के माध्यम से समाज को साफ रखने का बीड़ा उठाने वाले इस धोबी समाज को अस्पृश्य समझा जाता रहा है।

देश में धोबी जाति को रजक भी कहा जाता है। ये लोग सदियों से कपड़े धोने और प्रेस करने का काम करते आ रहे हैं। यह काम ( आज भले वाशिंग मशीनें आ गई हों) धोबी घाटों पर होता रहा है। धोबी घाट पर एक पत्थर होता है, जिस पर कपड़े पीट पीट कर धोए जाते हैं। यह दरअसल समाज का मैल होता है, जो धोबी समाज पौराणिक काल से साफ करता आ रहा है।

धोबी समाज के लिए धोबी घाट का ‍कितना महत्व है, इसे इसी बात से समझा जा सकता है कि दशहरे पर कपड़े धोने वाले इस पत्थर को पूजा जाता है और समाज जिस देवी की मुख्य् रूप से पूजा करता है वह घाटोइया कहलाती है। यानी धोबी घाट का पत्थर ही रोजी रोटी भी है। मुंबई का धोबी घाट तो इतना प्रसिद्ध है कि वह फिल्मी गीतों में भी उल्लेखित हुआ है। यहां हर रोज करीब 10 हजार धोबी 500 केबिनों में कपड़े धोते हैं।

देश में रजक समाज के लोगों की संख्याो करीब पांच करोड़ है और कपड़ा धुलाई का उदयोग भी लगातार बढ़ रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक इस साल यह उद्दयोग बढ़कर 76.5 अरब डाॅलर तक होने की उम्मीद है। धोबी समाज देश में ज्यादातर राज्यों में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आता है, जबकि दक्षिणी राज्यों में इसे अोबीसी में शामिल किया गया है। अखिल भारतीय रजक समाज सभी राज्यों में अनुसूचित जाति में शामिल होना चाहता है।

समय के साथ रजक समाज के लोग अन्य धंधों में जा रहे हैं, लेकिन मुख्य काम कपड़ों की धुलाई है। लेकिन समाज को शिकायत इस बात की है कि उनके परंपरागत व्यवसाय के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए जो किया जाना जरूरी है, वह नहीं किया जा रहा। पटना का धोबी समाज भी सिर्फ यही चाहता है कि बरसों पुराने कंकड़बाग का धोबी घाट जल्द से जल्द बनें ताकि इस बिहार की राजधानी में रहने वालों के कपड़ों का मैल ठीक से धोया जा सके।

समाज को इस बात का मलाल है कि राज्य की नी‍तीश सरकार महादलित, गंगा की सफाई या फिर पिछड़ों की राजनीति करती है, इन पर अरबों रूपए बहाए जा रहे हैं, लेकिन बिना किसी राजनीतिक नारे या अभियान के समाज की सफाई करने वाले धोबी समाज की मांगों पर ध्यान नहीं देती।

धोबी समाज की चेतावनी में ध्यान देनेवाला बिंदु यह है कि वह होली के बाद नेताअोंके कपड़ों की धुलाई बंद करेगा। अब होली के बाद ही क्यों? क्या नेताअों के कपड़े सिर्फ होली पर मैले होते हैं? क्या बाकी समय उनका कलफ लगे कपड़ों भीतर के मैल को छुपाने का सतही उपक्रम होता है? और ‍फिर धोबी समाज ने सिर्फ नेताअों के कपड़े धोना बंद करने की चेतावनी ही क्यों दी? आम लोगों की क्यों नहीं?

इसका कारण शायद यही है कि धोबी समाज में ही बड़ों- बड़ों के मन का कलुष धोने की कूवत है। वह कपड़े धोने के साथ सोशल मीडिया की निर्भीकता के साथ सवाल भी करता है। रामायण में एक धोबी ने ही राम के मन में लंका से लौटी सीता की पवित्रता को लेकर घुमड़ रहे सवालों को ही सार्वजनिक किया था।

रहा सवाल होली का तो यह त्यौहार मौज मस्ती के साथ मन के मैल को धोने का और अस्वच्छता का उत्सव मनाने का पर्व भी है। होली में कपड़ों के गंदे होने अथवा किसी अवांछित रंग में रंग जाने की पराकाष्ठा है। हालांकि नेताअों के कपड़े मैले होने के लिए किसी खास पर्व की जरूरत नहीं होती, वो हर मौसम में भी ऐसे ही पाए जा सकते हैं, लेकिन धोबी समाज का मानना है कि होली में खराब हुए कपड़ों को फिर से पुरानी चमक में लौटाना बेहद मुश्किल है।

होली में उड़ने वाले कई रंग ऐसे हैं, जो ‍किसी डिटर्जेंट से नहीं धुलते। वो धोबी घाट के उस पत्थर पर सौ दफा कूटने से भी शायद ही धुलते हैं, जिन पर धोबी को पूरा भरोसा रहता है। क्योंकि यह मैल कथनी और करनी के बीच का होता है। सतत एक पाखंड में जीने का होता है। ऐसे नेता बिरले ही होते हैं, जिनके कपड़ों को धोबी घाट तक जाने की जरूरत नहीं पड़ती। जो बिना कूटे और बिना साबुन के ही निर्मल हो जाते हैं।

धोबी जब पक्का घाट मांगता है तो वह केवल पर्यटन के लिए नहीं होता। वह उस श्रम और सफाई के ‍लिए मांगता है, जो समाज को कायदे में रखती है। इस लिहाज से नेताअों के कपड़ों की धुलाई से परहेज अपने आप में प्रतीकात्मक है।

(सुबह सवेरे से साभार)

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