सीधी या टेढ़ी!

प्रमोद शर्मा

प्रदेश का एक जिला है, नाम है सीधी! हालांकि यह नाम भर से सीधी है। यहां के काम अक्सर टेढ़े या उलटे ही होते हैं। प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र के इस सीधी जिले तक पहुंचने वाली राह भी सीधी न होकर बहुत टेड़ी-मेड़ी और मुश्किलों भरी है। यही कारण है कि कोई भी अधिकारी-कर्मचारी यहां जाना नहीं चाहता। सीधी नाम के इस जिले में भेजे जाने के नाम से ही सरकारी महकमे के मुलाजिम थर-थर कांपने लगते हैं। यदि किसी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी से कोई राजनेता खफा होता है तो उसे सीधे सीधी भेजने की धमकी देता है।

यह धमकी काम कर जाती है और शतरंज के खेल की तरह- ‘प्यादे से फर्जी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जाए‘ को जीवन का मूलमंत्र मानने वाले अफसर की चाल कम से कम उस राजनेता के तईं एकदम सीधी हो जाती है। फिर वह एक बेजुबान प्यादे की तरह उसके सामने सिर झुकाए खड़ा तो रह सकता है, लेकिन न तो उसे काट सकता है और न ही पीछे ही हट सकता है। हां, उसके दाएं-बाएं खड़े प्रतिद्वंद्वी पर जरूर घात लगाए रहता है।

प्रदेश के अंचलों में एक कहावत बहुत प्रचलित है- ‘उलटी गंगा बहाना।‘ यह कहावत सीधी पर भी सीधी बैठती है। सीधी जिले की मुख्य नदी सोन है। इस नदी की कहानी भी सीधी न होकर उलटी ही है। इसका उद्गम नर्मदा के साथ एक ही पर्वत से होता है, लेकिन इसका प्रवाह नर्मदा से एकदम विपरीत है। हुई न उलटी गंगा। सीधी जिला पहले विशाल था, बाद में सिंगरौली नया जिला बनाया गया। सिंगरौली में कोयले का कारोबार बहुत बड़ा है। सिंगरौली भले ही अलग जिला बन गया हो, लेकिन उसका असर जाते-जाते ही जाएगा।

कहते हैं न कि- ‘कोयले की कोठरी में कैसो हूं सयानो जाए।‘ अब इस कोयले की कोठरी में सूबासदर पहुंचे तो कालिख भले ही न लगी हो, किन्तु मच्छरों ने डंक लगा दिए। डंक भी ऐसे लगाए मानो किसी अनाड़ी कंपाउंडर ने नश्‍तर चुभो दिए हों। अब सूबासदर को ‘नश्‍तर‘ लगा तो उसका असर दूर तक तो होना ही था। अब उस ‘नश्‍तर‘ की पीड़ा उन मुलाजिमों पर हो रही है, जो इसके लिए जिम्मेदार पाए गए या ठहराए गए।

वैसे, खटमल-मच्छर ऐसी प्रजाति के जीव हैं, जो किसी से भी भय नहीं खाते। उलटे मच्छरों के डर से आदमी तो क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक परेशान रहते हैं। संस्कृत के एक विद्वान ने लिखा भी है कि-
‘कमले ब्रह्मा शेते, हरः शेते हिमालये।
क्षीराब्धौ च हरिः शेते, मन्ये मत्कुणशंकया।।
अर्थात- मेरा ऐसा मानना है कि मच्छरों से डरकर ही ब्रह्माजी कमल में छिपकर, शिवजी हिमालय में छिपकर और विष्णु भगवान क्षीरसागर में जाकर सोते हैं। अब सरकार को बेचारे मुलाजिमों पर कार्रवाई का हंटर चलाने के पहले कम से कम यह बात तो ध्यान में रखनी ही चाहिए थी।

मच्छर कांड के कारण यहां के बुद्धिजीवियों में कई तरह की चर्चाएं हो रही हैं। कहा जा रहा है कि सरकार मच्छरों के दंश से परेशान हो उठे, लेकिन सीधी के माथे पर जो पिछड़ेपन के दंश का दर्द दशकों से साल रहा है, उससे आज तक कोई नहीं तिलमिलाया। चंद साल पहले ही सीधी को देश के सबसे अधिक पिछड़े 250 जिलों की सूची में शामिल किया गया था। विशेष कोश से फंड भी दिया जाता है, लेकिन नतीजे ज्यादा आशाजनक नहीं हैं।

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि कोयले से बिजली भी बनती है और उजाला भी होता है। सूबे में दौड़ने वाला करंट सीधी से ही आता है। यहां भले ही आज तक रेलगाड़ी नहीं पहुंची, लेकिन मौजूदा दौर में सत्ता की जो गाड़ी दौड़ रही है, उस गाड़ी में पहिए विंध्य क्षेत्र के ही ज्यादा लगे हैं। राजधानी की उजास का पथ विंध्य क्षेत्र की बिजली से ही रोशन हो रहा है। हालांकि बिजली बनने का काम भले ही अभी शुरू हुआ हो, लेकिन सीधी-सिंगरौली का बच्चा-बच्चा सदियों से करंट मारता है। चतुर बीरबल और विद्वान बाणभट्ट की जन्मस्थली न तो बुद्धि के क्षेत्र में बंजर हुई है और न ही साहित्य के क्षेत्र में। बस, उनकी आवाज अब सत्ता के गलियारों में चक्कर काटकर गुम हो जाती है। वैसे, कई बार लोगों को सीधी बात सीधी तरह से समझ में नहीं आती, इसलिए मुहावरा बना कि- ‘सीधी उंगली से घी नहीं निकलता।‘ ऐसी स्थिति में उंगली टेढ़ी करने की सलाह विद्वान पहले ही दे गए हैं। कहते हैं कि उंगली टेढ़ी होते ही कितने भी टेढ़े मामले हों, सीधे हो ही जाते हैं।
राम-राम

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