शर्म करो ग्वालियर वालो…!

राकेश अचल 

ग्वालियर देश के सबसे पुराने शहरों में से एक प्रमुख शहर है। इस शहर का अपना स्वर्णिम अतीत है, लेकिन इस शहर के स्वर्णिम भविष्य को यहां के नेता और नागरिक मिलकर चौपट करने पर आमादा हैं। देश और प्रदेश के दूसरे ऐतिहासिक शहरों की तरह यहां भी बीते पचहत्तर साल में बहुत कुछ हो जाना चाहिए था, किन्तु नहीं हो पाया। बल्कि जो पुरानी रियासत के समय इस शहर के पास था उसे भी मौजूदा भाग्यविधाताओं ने समाप्त कर दिया और तकलीफ की बात ये है कि किसी को इसका अफ़सोस नहीं है।

ग्वालियर के अतीत को तो सबने नहीं देखा, लेकिन उसके चिन्ह बीते पचास साल पहले तक यहां मौजूद थे। ग्वालियर का ऐतिहासिक किला, शानदार महाराज बाड़ा, नैरोगेज रेल, संग्रहालय, अपना बिजलीघर, यानि सभी बुनियादी सुविधाएं इस शहर के पास थीं। जब देश के दूसरे शहरों के पास, रेल बिजली, टेलीफोन, सीवर जैसी सुविधाएं नहीं थीं तब ये शहर ग्वालियर इन सभी सुविधाओं से लैस था। लेकिन आज इस शहर को विकास या कहिये कि अनियोजित विकास के नाम पर बर्बाद कर दिया गया है।

ग्वालियर आजादी से पहले देश की दो-तीन समृद्ध समझी जाने वाली एक रियासत की राजधानी था। यहां जो कुछ था वो दूसरी तत्कालीन रियासतों के पास नहीं था। आजादी के बाद ग्वालियर को इसीलिए विकास की सूची से लगभग अलग रखा गया। सारा विकास इंदौर, भोपाल, जबलपुर और उज्जैन जैसे शहरों तक सीमित होकर रह गया। आजादी के तीन दशक ग्वालियर ने उपेक्षा के साथ बिताये। 1984 में तत्कालीन सांसद और ग्वालियर रियासत के अंतिम वैध वारिस माधवराव सिंधिया के प्रयासों से ग्वालियर में विकास का पहिया फिर घूमा। यहां रेल सुविधाओं के साथ ही दो बड़े राष्ट्रीय स्तर के संस्थान आये, मालनपुर और बानमौर जैसे नए औद्योगिक क्षेत्र भी विकसित हुए किन्तु साथ ही ग्वालियर की पहचान रहे जेसी मिल और बिड़लाओं के तमाम बड़े उद्योग हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गए।

ग्वालियर ने देश को एक प्रधानमंत्री दिया, लेकिन प्रधानमंत्री ने ग्वालियर को जो मिलना था वो नहीं दिया। वे अपनी पराजय की टीस अंत तक पाले रहे। 2003 के बाद मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार आयी और लगातार 15 साल रही। इन पंद्रह साल में भाजपा ने ग्वालियर को दो नए विश्वविद्यालय दिए और विकास के नाम पर केंद्र के सहयोग से चलने वाली अनेक योजनाएं दीं लेकिन उनका लाभ ग्वालियर को नहीं मिला। आज ग्वालियर स्मार्ट सिटी परियोजना का अंग भी है लेकिन इस परियोजना ने ग्वालियर का अंग-भंग कर दिया है, स्मार्ट सिटी का पूरा पैसा नौकरशाही और ठेकेदारों ने ठिकाने लगा दिया, लेकिन न शहर का यातायात सुधारा न पर्यावरण।

आज ग्वालियर शहर प्रदेश का सबसे पिछड़ा शहर है। यहां नया शहर विकसित करने के लिए बनाया गया साडा न नया शहर बसा पाया और न कोई नया उद्योग ही लग पाया। शहर के पास आजतक नगर बस सेवा नहीं है। मेट्रो रेल तो सपना है ही उलटे यहां सौ साल पहले चलाई गयी नैरोगेज रेल के कोच और बेच दिए गए हैं, जबकि ये रेल हैरिटेज ट्रेन बन सकती थी। ग्वालियर वाले न अपना किला बचा पाए और न अपना महाराज बाड़ा। दोनों ही अतिक्रमण की चपेट में है और इस अतिक्रमण के संरक्षक हैं यहां के परम पूज्य नेता, यहां की पुलिस और यहां के नागरिक।

ग्वालियर का दुर्भाग्य है कि यहां के नागरिकों को यहां से कोई प्यार नहीं है। वे इस शहर को नर्क बनाकर ही उसमें रहने में अपनी शान समझते हैं। ग्वालियर अकेला ऐसा शहर है जहां दुर्गम किले पर जाने के लिए आजादी के पचहत्तर साल बाद भी रोपवे नहीं बन पाया। संगीत सम्राट तानसेन का मकबरा आज भी अतिक्रमण की चपेट में है। यहाँ योजनाओं के शिलान्यास होते हैं लेकिन योजनाएं शहर की जरूरतों के हिसाब से नहीं नेताओं की मर्जी से बनती हैं। पहले भाजपा के नेताओं की मर्जी चलती थी, लेकिन अब केवल महाराज की मर्जी चलती है, लेकिन वे भी नगर विकास को लेकर निर्मम नहीं हैं, उन्हें भी स्थानीय राजनीति के हिसाब से अपनी प्राथमिकताएं तय करना पड़ती हैं।

ग्वालियर से प्रदेश का सबसे पुराना छापाखाना छीन लिया गया, कोई कुछ नहीं बोला। ग्वालियर के महाराज बाड़ा को मुक्त करने के लिए हाईकोर्ट निर्देश दे-देकर हार गया, लेकिन महाराज बाड़ा पैदल चलने लायक नहीं हो सका। यहां का चप्पा-चप्पा नीलाम कर दिया गया है। यहाँ बने टाउन हॉल को सँवारने पर करोड़ों रूपये खर्च कर दिए गए, लेकिन टाउन हॉल सही मायनों में टाउन हॉल नहीं बन पाया। यहां का विक्टोरिया मार्किट दो दशकों से बंद पड़ा है। अब उसके सामने पार्किंग बना दी गयी है, यानि आप महाराज बाड़ा को खोजते रह जायेंगे। शहर में हाथ ठेलों को व्यवस्थित करने की हर मुहिम राजनीति का शिकार हुई, आज भी है। आज भी ग्वालियर की सड़कों पर गाय और भैंसों को विचरते देखा जा सकता है।

अनियोजित विकास की वजह से ग्वालियर के पहाड़ भोपाल के पहाड़ों की तरह न पर्यावरण के काम आये और न शहर के। यहां बेहिसाब अतिक्रमण करा दिया गया। नदी-नाले तक नहीं छोड़े गए। इन सबके ऊपर किसी न किसी दल के नेता का कब्जा है। सम्पत्ति चाहे रेल की हो, चाहे वन विभाग की, सब नेताओं ने हड़प ली है। नीम बेहोशी के शिकार इस शहर को नौकरशाहों ने भी जमकर लूटा। वे ग्वालियर को संवारने के बजाय उसे लूटकर ले गए और आज स्थिति ये है कि नौकरशाही राजशाही की ताबेदार बनकर रह गयी है। न यहां की लोहामंडी हटी और न वर्कशाप, न डेरियां हटी हैं न गोशालाएं।

मैं ग्वालियर में पांच दशक से हूँ इसलिए मेरा ग्वालियर से एक अलग तरह का लगाव है। लेकिन जिनकी गर्भनालें यहां की मिट्टी में दबी हैं वे खामोश रहते हैं। ग्वालियर के प्रति जो ललक इंदौर या दूसरे शहरों की जनता में है वो ग्वालियर की जनता में है ही नहीं। यहां नेताओं को शहर की नहीं अपने बेटों की चिंता है। ग्वालियर का ऐतिहासिक मेला परिसर अतिक्रमण की चपेट में है। इस मैदान को प्रगति मैदान बनाने का सपना देखने वाले काल कवलित हो गए। आने वाले दिनों में ये परिसर एक मैरिज गार्डन में बदलकर रह जाएगा। यहां बनाये गए शिल्प ग्राम का कोई अता पता नहीं है। शिल्प बाजार का भी नियमित उपयोग नहीं हो रहा है। स्वर्णरेखा नदी पर जनता के लिए बनाई गयी हाट अब इंडियन कॉफी हाउस को सौंप दी गयी है।

ग्वालियर आज भी सौ साल पुराने तिघरा जलाशय पर पेयजल के लिए निर्भर है। हम लोगों ने 35 साल पहले शहर को चंबल से पानी दिलाने के लिए आंदोलन किया था, लेकिन आज भी ये योजना मूर्त रूप नहीं ले पायी। ग्वालियर के प्रति उपेक्षा का हाल ये है कि यहां जिला न्यायालय, हजार बिस्तर के अस्पताल की इमारतें बरसों से अधूरी बनी खड़ी हैं। विश्वविद्यालय की जमीनें खुर्दबुर्द हो चुकी हैं। मोतीमहल और गोरखी जैसी पुरानी बेशकीमती इमारतें राजनीतिक ग्रहण का शिकार हैं। महापौर कार्यालय पर कबूतर उड़ते नजर आते हैं। चिड़ियाघर सौ साल का हो गया है, लेकिन उसका विस्थापन नहीं हो पा रहा है। लम्बी फेहरिस्त है ग्वालियर की बर्बादियों की। देखते जाइये आने वाले दिनों में ग्वालियर का क्या हश्र होता है, क्योंकि ग्वालियर के पास भाग्य भले न हो, लेकिन भाग्यविधाताओं की कोई कमी नहीं है।(मध्यमत)
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