किसान आंदोलन पर अवसाद का साया

राकेश अचल

दिल्ली की दहलीज पर चल रहे किसान आंदोलन के 21 दिन बीत गए हैं लेकिन दिल्ली का दिल पसीजने का नाम नहीं ले रहा है। अब किसान आंदोलन को कुचलने के लिए केंद्र सरकार द्वारा समानांतर किसान सम्मेलनों के आयोजन के साथ अदालत की आड़ लिए जाने से आंदोलनकारी अवसाद से घिरने लगे हैं। संत बाबा राम सिंह का आत्मोत्सर्ग इसका संकेत है। सरकार अब भी न चेती तो भगवान जाने कि इस आंदोलन का क्या हश्र होगा?

किसानों का आंदोलन राजनीति से प्रेरित है या इसमें देशद्रोही शामिल हैं जैसे अनर्गल आरोपों से व्यथित किसान, समस्या का कोई हल होते न देख अवसाद से घिरने लगे हैं, आंदोलन की अनदेखी कर सरकार शायद यही चाहती भी है कि ‘सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।‘ जबकि किसान सांप नहीं है, हां सरकार के पास लाठी जरूर है। सरकार के कुछ शुभचिंतकों ने इस आंदोलन को देश की सबसे बड़ी अदालत में घसीट लिया है। इससे भी किसानों के मन में बेचैनी है। जबकि किसान आंदोलन का अदालत से कोई लेनादेना नहीं है। जो लोग इस आंदोलन को शाहीनबाग आंदोलन की तरह बताकर अदालत गए हैं वे या तो सिरफिरे हैं या सरकारी एजेंट हैं।

किसान आंदोलन की उपेक्षा से व्यथित बाबा रामसिंह का आत्मोत्सर्ग चिंता का विषय है। बाबा ने अपना जो मृत्युपूर्व लिखित बयान छोड़ा है उसके आधार पर तो केंद्र सरकार के खिलाफ किसानों को आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज होना चाहिए,  लेकिन ऐसा करेगा कौन? कोई अदालत क्या बाबा के इस आत्मोत्सर्ग को इतनी गंभीरता से लेगी? शायद नहीं, क्योंकि अदालतों में कानूनविद बैठते हैं, संत नहीं। संतों का हृदय नवनीत के समान होता है, जो ज़रा से ताप से पिघल जाता है। सत्ता का हृदय संतों के हृदय जैसा नहीं होता। सत्ता का हृदय ‘संग’ या ‘फौलाद’ का बना होता है। उसे पिघलाना कोई आसान काम नहीं है। उसे अगर पिघलना होता तो कब का पिघल गया होता।

पिछले 21 दिन का इतिहास बताता है कि किसान अपने आंदोलन को लेकर पूरी तरह अनुशासित और दृढ प्रतिज्ञ हैं लेकिन इसके विपरीत सरकार भी किसानों की बात न मानने के लिए कृत संकल्प दिखाई दे रही है। किसान आंदोलन को नाकाम करने के लिए पूरी सरकार और सरकारी पार्टी देश में सात सौ स्थानों पर सरकारी पैसे से किसान सम्मेलन के नाम पर कार्यकर्ता सम्मेलन कर ये प्रमाणित करने पर लगी है कि दिल्ली में सत्याग्रह कर रहे किसान फर्जी हैं, उनका आंदोलन राष्ट्रद्रोही है। किसानों के प्रति सरकार और सरकारी अमले का ये रवैया मुगलिया और आंग्ल सत्ता की हृदयहीनता का मिला जुला रूप दिखाई देता है।

देश में जनता द्वारा, जनता के लिए चुनी हुई सरकार है लेकिन दुर्भाग्य ये है कि जनता की चुनी हुई सरकार जनता को ही अपना मानने के लिए राजी नहीं है। सरकार की उपेक्षा का ही नतीजा है कि दिल्ली की देहरी पर बैठे किसान अब अवसाद का शिकार होने लगे हैं और बात अब आत्मोत्सर्ग तक आ पहुंची है। मैंने पहले ही कहा था कि सत्ता का उसूल ही ‘डिवाइड एंड रूल’ होता है। भले ही सत्ता गुलाम भारत की हो या आजाद भारत की, भाजपा की हो या कांग्रेस की। सत्ता तो सत्ता होती है। सत्ता चाहती है कि देश में उसकी मर्जी के बिना कहीं पत्ता भी न खड़के, लेकिन ऐसा होता नहीं है। कभी हुआ भी नहीं है। लोग सत्ता की हठधर्मिता के खिलाफ खड़े होते आये हैं और आज भी खड़े हैं।

एक बात तय है कि मौजूदा सरकार किसान आंदोलन से निबटने में बुरी तरह नाकाम रही है। देश के प्रधानमंत्री या कृषि मंत्री में इतना साहस नहीं है कि वे किसानों के बीच जाकर उनसे सीधी बात करें। प्रधानमंत्री काशी और कच्छ जाकर किसानों से बात करते हैं और कृषि मंत्री अपने गृहनगर जाकर। पूरी सरकार को अपनी जनता से बात करने में भय लगता है। ऐसी भयभीत सरकार अविश्वास की ‘भीत’ गिरा भी नहीं सकती। सरकार ने अब अदालत की बैसाखी का सहारा ले लिया है। सरकार को यकीन है कि अदालत किसान आंदोलन को भी शाहीन बाग़ के आंदोलन की तरह समेटने में सहायक हो सकती है।

मैं पहले दिन से कहता आ रहा हूँ कि किसान आंदोलन अदालत में तय होने वाला विषय नहीं है, ये सरकार का मामला है, इसे सरकार को ही निबटाना चाहिए। मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि कुछ निहितस्वार्थी तत्व माननीय अदालत को दाल-भात के बीच में मूसल बना देना चाहते हैं। दुर्भाग्य ये है कि अदालत ने भी इस बारे में आयी याचिकाओं को खारिज करने के बजाय अपनी सुनवाई में लेकर सरकार को नोटिस जारी कर दिए हैं। अब चूंकि अदालत का काम अदालत कर रही है इसलिए इस बारे में कुछ भी कहने का कोई अर्थ नहीं है लेकिन जो हो रहा है वो ठीक नहीं हो रहा।

किसानों के आंदोलन में अब पूर्व सैनिक, खिलाड़ी, महिलाएं, शासकीय सेवक सब तो शामिल हैं इसलिए इसे देशद्रोही कहना मूर्खता के अलावा कुछ नहीं है। किसान आंदोलन के समर्थन में देश का विपक्ष भी सरकार की तरह वैसा अभियान नहीं चला पा रहा है जैसा सरकार ने किसान आंदोलन के खिलाफ शुरू कर दिया है। ऐसे में आंदोलन की आत्मा को कुचलना ‘जघन्य’ है। एक आजाद देश की सत्ता को इस तरह की जघन्यता से बचना चाहिए अन्यथा आने वाले दिनों में आंदोलन ही अपराध की श्रेणी में रख दिए जायेंगे।

कभी-कभी लगता है कि केंद्र सरकार जानबूझकर किसान आंदोलन की उपेक्षा कर रही है ताकि उसकी तमाम दूसरी नाकामियों पर पर्दा पड़ा रहे और लोग उनके बारे में चर्चा ही न करें। सरकार की मंशा फलती-फूलती दिखाई भी दे रही है। केंद्र ने रसोई गैस की कीमत एक माह में सौ रुपये बढ़ा दी, पेट्रोल नब्बे रुपये के ऊपर बिक रहा है लेकिन देश में कहीं कोई प्रदर्शन नहीं हो रहा। राजनीतिक दलों से जुड़ी महिला नेत्रियां कहीं गैस सिलेंडरों के साथ प्रदर्शन करती नहीं दिखाई दे रहीं।

कोई पेट्रोल-डीजल की मूलयवृद्धि के खिला बैलगाड़ियां हांकता हुआ दिल्ली कूच करता नजर नहीं आ रहा, क्योंकि सब देश के किसान आंदोलन में उलझे हुए हैं। आधा देश किसान आंदोलन से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा है और बाकी मानसिक रूप से। और जो नहीं जुड़ा है वो किसान आंदोलन के खिलाफ सभाएं करने में व्यस्त है। देश की जनता को इस हकीकत को पहचानना चाहिए। जनता का मौन ही जनता की गले कि हड्डी बन सकता है।

आज किसान पिट रहे हैं, कल मूल्‍यवृद्धि के खिलाफ यदि आम जनता सड़क पर आएगी तो उसे भी सरकारी उपेक्षा का शिकार होना पड़ेगा, पिटना पडेगा, आत्महत्या तक करना पड़ेगी। इसलिए जागरण आज की पहली और आखरी जरूरत है। एक लेखक के रूप में मेरी आँखों पर कोई चश्मा नहीं है। मैं किसी राजनीतिक दल का मानद सदस्य तक नहीं हूँ। मेरी आस्था देश में है, लोकतंत्र में है। उम्मीद है कि आप भी मेरी तरह देश के प्रति तो निष्ठावान होंगे ही।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here