अजय बोकिल
देश में तीन कृषि विधेयकों के संसद में पारित होने, उन्हें पारित कराने के सरकार के तरीके और इस पर विपक्ष के अभद्रता भरे विरोध को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। मोदी सरकार इस मुद्दे पर किसानों को हर तरीके से आश्वस्त करने की कोशिश कर रही है, लेकिन लगता है कि किसानों को उसकी बातों पर भरोसा नहीं हो रहा। विपक्ष इन सुधारों को ‘नई कृषि गुलामी’ के रूप में पेश कर रहा है। राजनीति से हट कर देखें तो इस बीच कृषि उपज व्यापार, न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा कृषि उत्पादों के भंडारण की सीमा खत्म किए जाने को लेकर बहुत-सी शंकाएं खड़ी की जा रही हैं। वो पूरी तरह निराधार हैं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन क्या पूरे कृषि जगत पर वैसा ही अनिष्ट मंडरा रहा है, जैसा कि चित्रित किया जा है, इस पर भी विचार करने की जरूरत है।
सबसे ज्यादा बवाल देश में कृषि मंडियां और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) खत्म होने को लेकर है। हालांकि सरकार कह चुकी है कि ऐसा नहीं होने जा रहा। फिर भी कृषि मंडियां खत्म करने का किसानों पर क्या असर होगा, इसे जानने का सही पैमाना उस बिहार से बेहतर कोई नहीं हो सकता, जहां कृषि उपज मंडियां 14 साल पहले ही नीतीश कुमार सरकार ने खत्म कर दी थीं। भाजपा के सहयोग से बनी नीतीश सरकार ने 2006 में इसके लिए बाकायदा कानून बनाया।
उसके बाद से बिहार में क्या स्थिति है। किसान अपनी उपज सीधे व्यापारियों को बेचते हैं। वहां किसानों को किस भाव अपनी उपज बेचनी पड़ती है? क्या उनका आर्थिक शोषण हो रहा है? कृषि मंडियां खत्म होने के बाद बिहार के किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का क्या महत्व रह गया है? अगर वहां किसान असंतुष्ट हैं और भारी शोषण का शिकार हो रहे हैं तो फिर राजनीतिक रूप से सर्वाधिक सचेत समझे जाने वाले बिहार में कोई बड़ा किसान आंदोलन बीते 14 साल में क्यों खड़ा नहीं हो पाया? इन सवालों के जवाब खोजना इसलिए जरूरी है, क्योंकि नए कृषि सुधारों के भविष्य की छाया बिहार के कृषि व्यापार में देखी जा सकती है।
पहला सवाल यही है कि बुनियादी सुविधाओं से युक्त कृषि मंडियों पर ताले लगने के बाद बिहार में कृषि उत्पादों का बाजार कैसा है? क्योंकि बिहार में 1 करोड़ से ज्यादा जोतें हैं। इनमें 86 लाख किसान सीमांत, 10 लाख से ज्यादा छोटे और 7 लाख से अधिक मझले और बड़े किसान हैं। चावल, गेहूं और मक्का राज्य की मुख्य अनाज फसलें हैं। वहां कृषि उपज व्यापार के सम्बन्ध में छपी ताजा रिपोर्ट्स बताती हैं कि कृषि मंडी युग समाप्त होने के बाद बिहार के तमाम बड़े छोटे शहरों और कस्बों में सड़क किनारे कृषि उपज बिक्री बाजार विकसित हो गए हैं। जहां किसान अपना माल आपसी सौदे के तहत सीधे व्यापारी को बेचते हैं।
ये बाजार स्थानीय निकाय संचालित करते हैं, जिसके बदले में निकाय किसान और व्यापारी दोनों से विक्रित मूल्य का 1-1 फीसदी टैक्स वसूल करते हैं। इसे सुविधा शुल्क कहा जाता है। वैसे वहां सब्जियों की खरीद बिक्री पर से यह 1 फीसदी शुल्क भी हटाने की मांग हो रही है। लेकिन ये सवाल कि क्या नई मुक्त व्यवस्था में किसानों का शोषण रुक गया, ज्यादातर किसानों का कहना है कि व्यावहारिक दृष्टि से कोई फर्क नहीं पड़ा। कृषि मंडी में पहले आढ़तिये (कमीशन एजेंट) माल का भाव तय करते थे, अब यही काम दूसरे राज्यों से आने वाले व्यापारी करते हैं। किसान को सरकार का कोई कानूनी संरक्षण नहीं बचा। अलबत्ता कृषि उत्पादों के भावों की नवीनतम सूचनाएं आम किसान को मिलना भी मुश्किल हो गया है।
हालांकि जो शिक्षित और जागरूक किसान हैं, उन्होंने स्मार्ट फोन के जरिए बिहार से बाहर के बाजारों में अपना माल बेचना शुरू किया है। लेकिन हकीकत में ज्यादातर किसानों को एमएसपी के नीचे ही उपज बेचनी पड़ती है। इसका एक कारण नई व्यवस्था में खरीदी सेंटरों की संख्या घटना भी है। जो नए कृषि बाजार बने हैं, उनका कोई खास रखरखाव नहीं है। यह जिम्मा निजी क्षेत्र पर छो़डा गया है। उसकी रुचि अधोसंरचना विकसित करने की जगह अपने हिसाब से माल खरीदने में ज्यादा होती है। तीसरी बात ये कि कृषि मंडियां खत्म होने से राज्य सरकार को हर साल मिलने वाले 70 करोड़ रुपये से ज्यादा के राजस्व से भी हाथ धोना पड़ा है।
नई व्यवस्था के बारे में किसानों की मिली-जुली राय है। कई किसानों का मानना है कि कृषि मंडियां भी शोषण मुक्त नहीं थीं, नई व्यवस्था भी नहीं है। किसान को सरकारी नियम-कानून के पेंच से जरूर मुक्ति मिल गई है, लेकिन अधिकांश को अपना माल एमएसपी से नीचे ही बेचना पड़ रहा है। इसी कारण पिछले दिनों बिहार में किसानों ने मक्का खरीदी एमएसपी पर करने को लेकर आंदोलन भी किया था। उधर सरकार का दावा है कि थोक में खरीदी करने वाली आईटीसी जैसी बड़ी कंपनियां किसानों को अच्छा भाव दे रही हैं। बिहार की यह व्यवस्था दो साल पहले तत्कालीन फडणवीस सरकार के समय महाराष्ट्र में भी लागू करने की मांग उठी थी।
कुल मिलाकर तस्वीर यह बनती है कि कृषि उपज मंडियां खत्म करने या उनका महत्व घटाने से किसानों को बहुत ज्यादा लाभ नहीं होता। केवल 2 फीसदी मंडी शुल्क से राहत मिलती है। खरीदार व्यापारी कार्टेल बना लेते हैं तो सरकार भी किसान की मदद नहीं कर पाती। वैसे एमएसपी केवल 23 फसलों के लिए ही है और केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्रसिंह तोमर ने फिर स्पष्ट किया है कि देश में एमएसपी पहले की तरह लागू रहेगी।
हो सकता है कि शुरू में आपसी प्रतिस्पर्द्धा में निजी व्यापारी किसानों को माल का अच्छा भाव दें। लेकिन मार्केट के जोर पकड़ते ही वो कार्टेल बनाकर भाव गिराने लगे तो क्या होगा? मार्केट काबू में आते ही कॉरपोरेट का जो उस पर एकाधिकार शुरू हो जाएगा, किसान उसे कैसे तोड़ेगा? इसका कोई समाधानकारक जवाब नहीं है। सरकार यह भी कह रही है कि कृषि मंडियां बंद नहीं होंगी। अच्छी बात है, लेकिन अगर ज्यादातर कृषि व्यापार मंडी से बाहर ही होने लगेगा तो मंडियां किस ऑक्सीजन पर जिंदा रहेंगीं?
एक बात और। जब केन्द्र सरकार ने ‘मॉडल मंडी एक्ट’ सहित कृषि उत्पादों से सम्बन्धित तीन अहम बिल पारित किए हैं, तब कुछ समय बाद ही बिहार में विधानसभा और मप्र सहित कुछ राज्यों में विस उपचुनाव होने हैं। नए कृषि कानूनों का किसानों पर क्या असर पड़ेगा, किसान इन्हें किस रूप में ले रहे हैं, चुनाव नतीजे इसे नापने का पैमाना होंगे। हाल में कृषि अर्थ शास्त्री और अटल सरकार में कृषि मंत्री रहे सोमपाल शास्त्री ने दावा किया कि मोदी सरकार के कृषि बिल का मूल ड्राफ्ट तो वीपी सिंह सरकार ने बनाया था। तब इसका समर्थन भाजपा और वामपंथी भी कर रहे थे। लेकिन अब वामपंथी इसके विरोध में हैं।
विपक्ष इन बिलों को पूरी तरह किसान विरोधी बता रहा है। कुछ राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा और यूपी में किसानों को इस मुद्दे पर गोलबंद किया जा रहा है। यह आग फैली तो मोदी व अन्य भाजपा सरकारों के लिए मुश्किल हो सकती है। क्योंकि नए कृषि सुधारों को लेकर सबसे बड़ी आशंका कृषि के कॉरपोरेटीकरण की है। डर है कि धीरे-धीरे किसान कॉरपोरेट क्षेत्र के गुलाम हो जाएंगे और अपनी जमीनों से भी हाथ धो बैठेंगे। यह डर मुख्यत: कांट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर है और एकदम गैर वाजिब भी नहीं है। क्योंकि कई देशों में ऐसा हो चुका है।
नई व्यवस्था में सबसे बड़ा विरोधाभास यही है कि किसान को उपज बेचने की आजादी तो मिल रही है, लेकिन उसे कानूनी संरक्षण से भी मुक्त किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक कांट्रैक्ट फार्मिंग में कानूनी विवाद सुलझाने का अधिकार एडीएम स्तर के अधिकारी को दिया गया है। जिस देश में अदालतों पर भी मैनेज होने के आरोप लगते हों, वहां एसडीएम को ‘मैनेज’ करना कॉरपोरेट कंपनियों के लिए तो बाएं हाथ का खेल है।
कुल मिलाकर किसान अब दोराहे पर खडा है। कॉरपोरेट द्वारा ठगे जाने पर एक अकेला क्या कर लेगा? हालांकि सरकार का कहना है कि ऐसी स्थिति नहीं आएगी। ये सब विपक्ष की कपोल कल्पना है। ईश्वर करे ऐसा ही हो, लेकिन फसल बीमा योजना में भी ऐसे ही किसान हित के दावे थे, लेकिन जमीन पर क्या हो रहा है, यह बताने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं है।