एक पखवाड़ा मौत के साथ-15
हर कहानी का एक न एक दिन अंत होता है। ममता की कहानी इससे अछूती कैसे रह सकती है। और जब खुद उसीका का अंत हो गया तो उसकी कहानी की सांसें कितने दिन चल सकती हैं…
आज जब कहानी को समेट लेने की घड़ी है, मुझे आनंद फिल्म का वह आखिरी सीन याद आ रहा है जब कैंसर की पीड़ा झेलते हुए आनंद (राजेश खन्ना) की जीवनलीला समाप्त हो जाती है। उसका दोस्त डॉ. भास्कर (अमिताभ बच्चन) उसके खामोश हो जाने पर कहता है- ‘’मैं तुम्हें इस तरह खामोश नहीं होने दूंगा, छह महीने से तुम्हारी बक बक सुन रहा हूं मैं… बोल बोल के मेरा सर खा गए हो तुम, बोलो… बातें करो मुझसे… बातें करो मुझसे… बातें करो मुझसे…
और नेपथ्य से आनंद की आवाज गूंजती है- ‘’बाबू मोशाय… जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह, उसे न तो आप बदल सकते हैं ना मैं… हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी है… कब, कौन, कैसे उठेगा यह कोई नहीं बता सकता है…’’ (और फिर उस पात्र का अट्टहास सुनाई देता है)
पिछले 15 दिनों से आप भी मेरी बकबक ही तो सुनते आ रहे हैं। अब मेरे भी खामोश हो जाने का वक्त है… आखिर मैं भी कब तक यूं ही बोलता रहूंगा… सच है, हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां ही तो हैं। आनंद को तो पता था कि उसकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी है, लेकिन हमें तो यह भी नहीं पता कि हमारी डोर किसकी उंगलियों में बंधी है…
मैंने अपनी बात सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले से शुरू की थी जिसमें उसने व्यक्ति को सम्मान से मरने का हक देने को जायज ठहराया था। मैंने उस फैसले पर जो कॉलम लिखा था उसका शीर्षक दिया था- ‘’जीने का न हो पर सम्मान से मरने का अधिकार तो मिला’’… ममता की कहानी मैंने इस दरख्वास्त के साथ शुरू की थी कि मैं यह शीर्षक वापस लेना चाहता हूं।
अब ‘एक पखवाड़ा मौत के साथ’ बिताने के बाद मैं महसूस करता हूं कि शायद आप भी मुझे वह शीर्षक वापस लेने की इजाजत दे देंगे। मैं गलत था… मैं मान बैठा था कि जब सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया है तो हमें सम्मान से मरने का हक तो मिल ही जाएगा… लेकिन आनंद ने सही कहा था- ‘’हम सबकी डोर ऊपर वाले की उंगलियों में बंधी हैं…’’ बस फर्क सिर्फ इतना है कि हम कभी नहीं जान पाते कि हमारा ऊपरवाला कौन और किस रूप में है?
आप पूछ सकते हैं कि इस आपबीती का नतीजा क्या निकला? तो मेरे हिसाब से नतीजा यह है कि आप यदि बीमार हों और मरना भी चाहते हों तो पांच दस लाख रुपए अपनी जेब में जरूर रखिएगा। उसके बिना यह सिस्टम आपको ठीक से मरने भी नहीं देगा। और सम्मान? उसकी बात तो भूल ही जाइए… सिस्टम आपको मरने दे रहा है यही क्या कम है?
यह कहानी न तो कोई खबर थी और न ही कोई कल्पना… यह सिर्फ और सिर्फ आपबीती थी; आइए आप और हम सब मिलकर दुआ करें कि यह आपबीती, जगबीती में कभी तब्दील न हो। मरीज को अस्पताल में भरती कराने से लेकर, मौत के बाद उसके अंतिम संस्कार तक के लिए सिफारिश लगवाने का विचार मन में आए ऐसे सिस्टम में थोड़ा तो सुधार हो…
ममता के परिवार ने तो सब कुछ सहा, पर हम दुआ करें कि ऐसी ‘सहनशक्ति’ मांगने लायक स्थितियां भी ईश्वर किसी के सम्मुख न आने दे। मरना तो तय है ही, पर कम से कम अंधेरा इतना ज्यादा घना तो न हो कि मरने का कारण भी नजर न आ सके। माना कि कुछ बीमारियां बहुत घातक रूप से संक्रामक होती हैं, लेकिन 21 वीं सदी में जी रहा, इतनी तरक्की कर लेने वाला यह समाज ऐसी व्यवस्था तो बनाए कि उस मरीज को चीलों और गिद्धों के हवाले कर दिए जाने जैसी मौत तो न मिले।
माना कि उपचार अब कारोबार हो गया है, लेकिन यह कारोबार ऐसा तो न हो कि एक सिक्के के बदले उतने ही वजन वाला आपका गोश्त काट लिया जाए। कारोबार ही सही पर यह इंसान को जीवन देने या उसकी सांसे लौटा लाने का ईश्वरीय कारोबार है, इसे ‘मांस के मॉल’ में तो तब्दील मत करिए।
याद रखिए, जीवन से बड़ी कोई उम्मीद नहीं होती। मरीज आपके पास यही उम्मीद लेकर आता है। आप उसे जीवन देने का भरोसा नहीं दे सकते तो कोई बात नहीं, पर उसके हाथ में मौत का शपथ पत्र तो न थमाइये। शर्तिया इलाज भले न दे सकते हों, लेकिन उसके मन में शर्तिया मौत का डर तो न बैठाइये।
हमने यह कहानी आप तक लाने का फैसला इसीलिए किया कि आप हकीकत को जान सकें। मेरी नजर में इस पूरी कहानी में मुजरिम कोई नहीं है लेकिन शरीके जुर्म सभी हैं। ऐसा भी नहीं कि यह कोई पहली कहानी हो और न ही यह कोई आखिरी कहानी होगी। अस्पतालों में चले तो जाएं, आपको करीब करीब हर मरीज और हर परिवार के साथ जुड़ी ऐसी ही कोई कहानी जरूर मिलेगी। लेकिन क्या हम इस व्यवस्था को इन कहानियों तक ही सीमित रहने देंगे?
शब्द ही मेरा हथियार है, इसके अलावा मैं और चला भी क्या सकता हूं… मेरे पास शब्द थे जो मैंने आप तक पहुंचा दिए, लेकिन हजारों लाखों लोग ऐसे हैं जो ‘निशब्द‘ यह सारी पीड़ा झेलते रहते हैं… मैंने तो कह कर अपना दुख बांट लिया, लेकिन बहुतों के पास तो अपने दर्द को बांट सकने वाली ऐसी किस्मत भी नहीं…
पर एक बात जरूर है, हमारे पास शब्द हों या न हों, लिखने की ताकत हो या न हो लेकिन चीखने का माद्दा तो जरूर है… सो वक्त आने पर चीखिए… इतनी जोर से चीखिए कि दुनिया भर की दीवारें हिल जाएं… जिंदा कौमों की यही निशानी है, जिंदा कौमों को यही करना भी चाहिए…
कल- अंतिम कड़ी में कहानी से कौन क्या सीखे?