राकेश अचल
ग्वालियर के सिंधिया परिवार के ऊपर लगा ‘गद्दार’ होने का दाग आज की राजनीति में एक सियासी जुमले से अधिक कुछ नहीं हैं, क्योंकि यदि सिंधिया पर लगे इस कलंक की वजह से उन्हें समाज बहिष्कृत करता तो वे देश की राजनीति में 73 साल बाद जीवित न रहते। सिंधिया को इस क्षेत्र की जनता के साथ ही इस देश के राजनीतिक दलों ने सर-माथे पर रखा है और आज भी रख रहे हैं। इससे साफ़ जाहिर हैं कि सिंधिया परिवार पर देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में लगाया जाने वाला गद्दारी का आरोप अब एक जुमले से ज्यादा कुछ नहीं है।
सिंधिया परिवार ने 1857 में गद्दारी की या नहीं, ये सब अब इतिहास का हिस्सा है, मुझे इस पर कुछ कहना नहीं है लेकिन मैं आपको सिर्फ ये बताना चाहता हूँ कि इस विषय में देश के राजनीतिक दल कितने दोगले और अवसरवादी हैं। आजादी के बाद देश की राजनीति में कदम रखने के लिए सिंधिया परिवार को प्लेटफार्म कांग्रेस ने उपलब्ध कराया। राजनीति में कदम रखने वाली सिंधिया परिवार की पहली सदस्य राजमाता विजयाराजे सिंधिया 1957 में पहली बार कांग्रेस के टिकिट पर ही लोकसभा के लिए चुनी गयी थीं।
कल तक सिंधिया परिवार को ‘गद्दार’ बताने वाली भाजपा ने इस परिवार के सदस्यों, जिनमें राजमाता विजयाराजे सिंधिया और उनकी बेटी यशोधरा राजे सिंधिया शामिल हैं, को मध्य्प्रदेश में 10 बार लोकसभा के लिए अपना प्रत्याशी बनाया। इससे पहले जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के लिए ये परिवार ‘गद्दार’ नहीं था। आज सिंधिया परिवार को ‘गद्दार’ बताकर गरियाने वाली कांग्रेस ने राजमाता विजयाराजे सिंधिया के अलावा उनके पुत्र स्वर्गीय माधवराव सिंधिया को 6 बार और माधवराव सिंधिया के निधन के बाद उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया को 4 बार अपना प्रत्याशी बनाया है।
सिंधिया परिवार को ‘गद्दार’ बताकर मतदाताओं को ठगने वाले राजनीतिक दलों का चरित्र इस मामले में दोगला है। वे अपनी सुविधा से ‘गद्दारी’ की परिभाषा तय करते हैं। भाजपा ने हाल ही में ज्योतिरादित्य सिंधिया को राज्यसभा भेजा है, उनकी बुआ मध्यप्रदेश सरकार में मंत्री हैं, आखिर क्यों? यदि वे सचमुच किसी गद्दार परिवार से आती हैं तो कांग्रेस हो या भाजपा उनका त्याग क्यों नहीं करते? और यदि ‘गद्दार’ नहीं हैं तो इस परिवार को ‘गद्दार’ कहना बंद क्यों नहीं करते?
सवाल ये है कि जिस देश की संसद में बीते 73 साल से सिंधिया परिवार के सदस्य ससम्मान बैठ रहे हैं उस परिवार को ‘गद्दार’ शब्द से मुक्ति आखिर कब और कैसे मिलेगी? सवाल ये है कि यदि क्षेत्र की जनता इतिहास के पन्नों में दर्ज कहानी और आक्षेपों को सही मानती है तो सिंधिया परिवार के सदस्यों को लगातार इतने भारी मतों से चुनती क्यों है? कहीं न कहीं, कुछ न कुछ लोचा तो जरूर है। या तो इतिहास गलत है या राजनीतिक दल या फिर जनता।
सिंधिया परिवार ने 1857 में क्या किया, क्या नहीं ये दुनिया जानती है। झांसी में यदि अंग्रेज ग्वालियर की तरह उत्तराधिकार के सवाल पर बवाल खड़ा न करते तो शायद ‘गदर’ होता ही नहीं, क्योंकि असली लड़ाई आजादी की नहीं उत्तराधिकार की थी। मुमकिन है कि ग्वालियर में भी यदि अंग्रेज उत्तराधिकार का सवाल खड़ा करते तो झांसी से पहले ग्वालियर में गदर हो जाता, क्योंकि झांसी के मुकाबले ग्वालियर रियासत का सैन्य बल कहीं ज्यादा था। ग्वालियर में तत्कालीन रानी बैजाबाई भी झांसी की रानी से कम नहीं बैठतीं।
बहरहाल ये समय इतिहास में झाँकने का नहीं हैं बल्कि वर्तमान को देखने का है। अब राजनीतिक दलों को ये तय करना होगा कि वे सिंधिया परिवार को ‘गद्दार मानते हैं या नहीं? जनता को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा करने वालों से जनता को ही सवाल करना चाहिए। कोई भाजपा से ये सवाल क्यों नहीं पूछता कि उसने कांग्रेस से निकाले जाने के बाद माधवराव सिंधिया के खिलाफ अपना प्रत्याशी क्यों हटाया था, वे तो उसी परिवार से आते थे न जिसे भाजपा गद्दार कहते नहीं थकती थी।
जनता की आँखों में धूल झोंकने वाले राजनीतिक दल सिंधिया परिवार की कथित ‘गद्दारी’ की बात तो करते हैं लेकिन 1860 से लेकर 1947 तक हुए विकास और आधुनिकीकरण की बात क्यों नहीं करते? ग्वालियर रियासत ने आजादी के पहले के 87 साल में जो प्रगतिशील दृष्टिकोण अपनाया उसकी चर्चा आखिर क्यों नहीं की जाती। मुझे लगता हैं कि सिंधियाओं की गद्दारी से कहीं ज्यादा विकास महत्वपूर्ण हैं। सिंधियाओं ने अंग्रेजों से दोस्ती गांठने से पहले उन्हें कितनी बार धूल चटाई ये भी राजनीतिक दलों के प्रचार विभागों को देखना चाहिए। ऐसी कितनी रियासतें हैं जो अपने समय में ग्वालियर का मुकाबला विकास के मामले में कर सकती थी?
‘गद्दारी’ को लेकर लिखते हुए आप मुझे सिंधिया परिवार का शुभचिंतक न समझ बैठें इसलिए ये जान लेना जरूरी है कि मेरा एक पत्रकार के नाते सिंधिया परिवार के हर सदस्य से साबका रहा है लेकिन मैं न उनके साथ कभी हवाई जहाज में बैठा और न कभी मैंने उनके प्रभाव से कोई लाभ लिया, उलटे मुझे सिंधिया के खिलाफ खबरें लिखने की वजह से 14 बार अपनी नौकरियां बदलना या छोड़ना पड़ीं, लेकिन मुझे इसका कोई अफ़सोस नहीं है, ये सब मेरे अध्यवसाय का हिस्सा था, और आज जो सवाल मैं खड़ा कर रहा हूँ वो भी मेरे अध्यवसाय का ही हिस्सा है। मेरा कहना है कि राजनीतिक दल और जनता एक साथ दो चरित्र नहीं अपना सकते। वे या तो सिंधिया को खारिज करें या फिर स्वीकार करें, आखिर सिंधिया कब तक गालियां खाते रहेंगे?