पुण्यतिथि पर विशेष
राकेश अचल
कांग्रेस के एक दिग्गज नेता माधवराव सिंधिया यदि आज होते तो 75 साल के हो गए होते। 30 सितंबर 2001 को कांग्रेस के लिए मोर्चे पर जाते हुए उत्तरप्रदेश के मैनपुरी में एक विमान हादसे में उनका असमायिक निधन हो गया था। मुझे वो दिन आज तक नहीं भूलता।
उन दिनों मैं ग्वालियर से आजतक के लिए काम करता था। खा-पीकर दिन में एक झपकी लेने लेट गया, तीसरे पहर पत्नी ने झकझोर कर जगाया और विस्मय से बोली- देखो तो टीवी पर क्या आ रहा है कि महाराज नहीं रहे? मेरी नींद एकदम नदारद हो गयी, मैंने कहा- क्या बकती हो? लेकिन दूसरे ही पल जब टीवी स्क्रीन पर माधवराव सिंधिया के हैलीकॉप्टर के दुर्घटनाग्रस्त होने की खबर देखी तो झटका लगा। मोबाइल आन किया तो उस पर हैड आफिस से एक दर्जन मिसकॉल पड़े थे। पलटकर फोन लगाया तो फटकार पड़ी- क्या फोन बंद कर बैठ जाते हो, जाओ फौरन महल जाकर सिंधिया के बारे में डिटेल खबर भेजो।
बहरहाल उस रोज जैसे-तैसे सिंधिया के निधन से स्तब्ध ग्वालियर के चित्र और रोते हुए कांग्रेस कार्यकर्ताओं के कथन रिकार्ड कर दिल्ली भेजे थे। फिर तो लगातार सिंधिया जी की अंत्येष्टि तक ये सिलसिला चलता रहा। कभी खुद खबर भेजी और कभी खुद खबर बने भी, सिंधिया जी के साथ इक्कीस साल की यादें जो जुड़ी थीं।
स्वर्गीय माधवराव सिंधिया आजादी के पहले जन्मे थे और उन्हें बाकायदा महाराज के रूप में ग्वालियर ने उनके पिता के निधन के बाद अंगीकार भी किया था। इसे आप ग्वालियर की मानसिकता कहें या ग्वालियर के सामाजिक,राजनीतिक जीवन पर सिंधिया परिवार का प्रभाव, कि ग्वालियर में समाजवादियों और वामपंथियों को छोड़, शायद ही ऐसा कोई राजनीतिक दल होगा जो सिंधिया के प्रति नतमस्तक न रहा हो।
माधवराव सिंधिया व्यक्तित्व के धनी तो थे ही, लेकिन उनका राजनीतिक नजरिया भी ग्वालियर से लोकसभा का चुनाव लड़ने के समय तक परिपक्व हो चुका था। उनका आभामंडल ही था जो 1984 में भाजपा के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी को ग्वालियर की जनता ने सिंधिया के मुकाबले नकार दिया था। वो भी तब जबकि राजमाता वाजपेयी जी के साथ खड़ी थीं।
माधवराव सिंधिया की कार्यशैली सदैव अविवादित रही, हालाँकि विवाद उनके आगे-पीछे मंडराते रहे। वे विवादों से हमेशा बचते रहते थे। चाहे राजनीतिक विवाद हों चाहे पारिवारिक विवाद उन्होंने कभी सीधे किसी विवाद पर अपना मुंह नहीं खोला। सच कहें तो वे राजनीति के मर्यादा पुरुषोत्तम थे। ये अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन मुझे इसका अनुभव एक पत्रकार के नाते बहुत अच्छे से हुआ।
तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव के मंत्रिमंडल से इस्तीफा और कांग्रेस से निष्कासन के समय हमने स्वर्गीय सिंधिया को खूब कुरेदा की वे राव के खिलाफ या कांग्रेस के खिलाफ कुछ बोलें। हमने अपने शब्द उनके मुंह में रखने की भी कोशिश की, लेकिन वे नहीं बोले, तो नहीं बोले। ये बात और है कि सिंधिया को एक चुनाव कांग्रेस से बाहर होकर लड़ना पड़ा।
दूसरा मौका राजमाता सिंधिया के निधन के बाद उनके निज सचिव रहे सरदार संभाजी आंग्रे द्वारा राजमाता की वसीयत को लेकर शुरू हुए विवाद के समय का था। हमारा चैनल चाहता था कि किसी भी तरह माधवराव सिंधिया इस विषय पर अपना पक्ष कैमरे के सामने रख दें। दूसरे चैनल भी प्रयास कर थक-हार चुके थे। मैंने सिंधिया जी से अपनी नौकरी का हवाला देते हुए बाइट देने को कहा, तो वे बेबस होकर बोले-“अचल जी हमारी कुछ मर्यादाएं हैं, हम इन्हें किसी भी कीमत पर नहीं तोड़ सकते। ”
उन्होंने बाद में मेरी समस्या का समाधान अपने मौसा जी स्वर्गीय धर्मेन्द्र बहादुर से बाइट दिलाकर किया था। सिंधिया जी ने मुझे कई बार ऐसे ही मौकों पर स्वर्गीय माधवशंकर इंदापुरकर से बात करने को कहा। इंदापुरकर जी ने सिंधिया के लिए उस समय चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया था, जब वे कांग्रेस के बाहर थे। भाजपा इंदापुरकर को उनके खिलाफ अपना प्रत्याशी बना चुकी थी, लेकिन उनके इनकार के बाद भाजपा ने अंतत: सिंधिया के लिए मैदान खाली छोड़ दिया था।
मुझे लगता है कि आज जब कांग्रेस लगातार रसातल में जा रही है, तब यदि सिंधिया होते तो शायद कांग्रेस को उबारने में उनकी बेहद महत्वपूर्ण भूमिका होती, क्योंकि उनका मान-सम्मान कांग्रेस में उनके धुर विरोधी भी करते थे। मैंने मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय अर्जुन सिंह और कांग्रेस के वर्तमान महासचिव दिग्विजय सिंह को सिंधिया की कार का दरवाजा खोलकर कोर्निश करते हुए देखा है। हर किसी को ये सम्मान नहीं मिलता।