राकेश अचल
जिन मित्रों ने कविवर हरिवंश राय बच्चन की कविता ‘अग्निपथ’ पढ़ी होगी वे इस शीर्षक का आनंद आसानी से उठा सकेंगे। मध्यप्रदेश की राजनीति के ध्रुवतारे ज्योतिरादित्य सिंधिया को देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस छोड़े कोई ढाई महीना होने को है, लेकिन वे अभी भी अग्निपथ पर चल रहे हैं। राजपथ उनसे अभी भी दूर है। आप कह सकते हैं कि जैसे ही वे अग्निपथ पार कर लेंगे उनके लिए राजपथ खुल जाएगा।
ज्योतिरादित्य सिंधिया 11 मार्च 2020 से पहले राष्ट्रीय नेता थे लेकिन कांग्रेस छोड़ते ही वे प्रदेश के नेता के रूप में ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए। उन्हें अपनी पुरानी हैसियत पाने के लिए सबसे पहले राजयसभा में जाना है। भाजपा इसके लिए उनके नाम की घोषणा कर चुकी है, लेकिन कोरोना ने उनके अग्निपथ की लम्बाई और बढ़ा दी है। मुमकिन है बहुत जल्द वे दोबारा राष्ट्रीय राजनीति में चमकने लगेंगे। लेकिन इसके पहले उन्हें कुछ करिश्मे करके दिखाना होंगे। बिना करिश्मे के भाजपा में अपनी जगह बनाये रखना आसान काम नहीं है क्योंकि भाजपा बीते छह साल से करिश्माबाज पार्टी की तरह ही काम करती आ रही है।
लॉकडाउन-4 की समाप्ति के बाद से मध्यप्रदेश में न चाहते हुए भी लॉकडाउन को शिथिल किया जा रहा है। सिंधिया को राज्यसभा में और उनके 22 समर्थकों को दोबारा विधानसभा में भेजने के लिए ये शिथिलता आवश्यक भी है और विवशता भी। जनता को दांव पर लगाना सियासत के बाएं हाथ का काम है। लॉकडाउन-4 से बाहर आते ही ज्योतिरादित्य सिंधिया को पहले तो अपनी ढाई महीने लम्बी चुप्पी पर उठाये गए अनेक सवालों का जवाब देना है और फिर कुछ न कुछ करिश्मे दिखाना है। इसके बिना उनका काम चलने वाला नहीं है।
सिंधिया ने विभीषण बनकर कांग्रेस की सत्ता तो गिरा दी, लेकिन अब वे कांग्रेस को संगठन के स्तर पर कितना नुक्सान पहुंचा सकते हैं ये भी बहुत महत्वपूर्ण है। अलबत्ता कांग्रेस के पास भाजपा जैसा जमीनी संगठन नहीं है, लेकिन कांग्रेस में क्षत्रप भी कम नहीं हैं, जो अपनी-अपनी हदों में कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण हैं।
सवाल ये है कि क्या सिंधिया अपने 22 निर्वाचित विधायकों के अलावा भी कांग्रेस के कुछ और दिग्गजों को विधानसभा उपचुनाव से पहले कांग्रेस से अलग कर भाजपा में शामिल करा सकते हैं? सिंधिया यदि ऐसा कर सके तो भाजपा में उनके लिए जगह और सम्मान तनिक बढ़ जाएगा, अन्यथा उनका रास्ता आसान नहीं होगा।
भाजपा ने सिंधिया को अपने स्वार्थ के लिए स्वीकार किया है। भाजपा को पता है कि सिंधिया को साथ लेकर वो मध्यप्रदेश में जर्जर होकर दोबारा शक्तिशाली हुई कांग्रेस को लम्बे समय के लिए ध्वस्त कर सकती है। सिंधिया के बाद कांग्रेस के पास अब केवल पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और कमलनाथ बचे हैं। इनके बाद की पीढ़ी में एक भी ऐसा नेता नहीं है जो पूरे प्रदेश में सर्वस्वीकार्य हो। यदि इन दोनों को उपचुनाव के जरिये कमजोर किया जा सके तो भाजपा के लिए भविष्य की राजनीति आसान हो जाएगी, अन्यथा रास्ते में पड़े विरोध के कांटे कभी भी अवरोधक बन सकते हैं।
ज्योतिरादित्य सिंधिया के राजनीतिक जीवन में 2019 और 2020 का बड़ा महत्व है। 2019 में वे पहली बार पराजित हुए और 2020 में उन्होंने पहली बार दल-बदल किया। दल-बदल राजनीति में सबसे पड़ा दुष्कर्म माना जाता है, इसके खिलाफ बाकायदा क़ानून है। लेकिन अपना राजनीतिक वजूद बनाये रखने के लिए सिंधिया ने जो जरूरी समझा सो किया और न करते तो भी उनके लिए अपना वजूद बनाये रखना आसान नहीं होता।
तय है कि सिंधिया ममता बनर्जी की तरह अपना दल बनाकर कांग्रेस को चुनौती नहीं दे सकते थे, इसलिए उन्हें भाजपा का सहारा लेना ही पड़ता,सो उन्होंने लिया। लेकिन क्या वे भाजपा में रहकर अपना पुराना आभामंडल दोबारा स्थापित कर पाएंगे, ये प्रश्न अभी तक बना हुआ है।
एक बात तय है कि सिंधिया को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बनना और केंद्र में मंत्री बनने के लिए उन्हें मध्य्प्रदेश में अपना अस्तित्व प्रमाणित करना ही होगा। केवल राज्यसभा की सदस्य्ता केंद्रीय राजनीति में स्थापित होने की गारंटी नहीं हो सकती। भाजपा सिंधिया के लिए मध्यप्रदेश से मौजूदा किसी केंद्रीय मंत्री को हटाकर ही स्थान बना सकती है।
मुमकिन है कि विधानसभा उपचुनावों के नतीजे आने के बाद ऐसा हो भी, लेकिन अभी राजनीति के अग्निपथ पर सिंधिया अकेले हैं। उन्हें अपने 22 समर्थकों की विधायकी सुनिश्चित करना है। इस संख्या में यदि एक भी अंक कम होता है तो ये सिंधिया का निजी नुक्सान होगा। सिंधिया को अग्निपथ से राजपथ पर लाने में भाजपा के प्रांतीय नेता कितनी मदद कर पाएंगे ये देखना बहुत जरूरी है।
सिंधिया में जनसेवा की जो आग है, वो भरी पड़ी है, लेकिन उस पर समय की राख पड़ी हुई है। इसे उड़ाने के लिए, साफ़ करने के लिए, आने वाले दिनों में वे क्या जतन करते हैं ये देखना रोचक होगा। ग्वालियर-चंबल और बुंदेलखंड से बाहर निकलकर सिंधिया यदि महाकौशल और मालवा में भी कोई गुल खिला सके तो तय मानिये कि वे मध्यप्रदेश की राजनीति की जरूरत बन जायेंगे। अन्यथा उन्हें उस अग्निपथ पर तब तक चलना पडेगा जब तक कि कोई नया राजपथ उनके लिए न खुल जाये।
ज्योतिरादित्य सिंधिया राजनीति में कार्यकर्ता की हैसियत से नहीं आये। राजनीति उन्हें उत्तराधिकार में मिली। 30 सितम्बर 2001 को उनके पिता माधवराव सिंधिया की एक हवाई जहाज हादसे में मृत्यु हो गई। 18 दिसम्बर 2001 को ज्योतिरादित्य राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी से जुड गये और उन्होंने अपने पिता की सीट गुना से चुनाव लड़ने का फैसला किया। 24 फरवरी को वे साढ़े चार लाख वोट से जीत हासिल कर सांसद बने।
कांग्रेस ने उन्हें मई 2004 में फिर से चुनाव लड़ाया, वे जीते भी। 2007 में केंद्रीय संचार और सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री के रूप में केंद्रीय मंत्री परिषद में उन्हें शामिल किया गया। 2009 में लगातार तीसरी बार सांसद चुने गए और इस बार उन्हें वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री बनाया गया। 2014 में सिंधिया गुना से फिर चुने गए थे, लेकिन 2019 में वे अप्रत्याशित तरिके से भाजपा के कृष्णपाल सिंह यादव से सीट हार गए।
इस पराजय के बाद सिंधिया पार्टी में लगातार हाशिये पर धकेले जाते गए। हारकर उन्होंने 10 मार्च 2020 को पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को अपना इस्तीफा दे दिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से बाहर हो गये। वह 11 मार्च 2020 को उसी भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गये, जिसने उनके राजनितिक पटल पर पराजय लिखा था।
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