अरुण कुमार त्रिपाठी
कहा जाता है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इसी सूत्र को थोड़ा बढ़ाकर कहा जाए तो कहना पड़ेगा कि वैश्विक आपदा या महामारी वसुधैव कुटुंबकम की वजह बन रही है। कोरोना काल में वसुधैव कुटुंबकम की भावना को सबसे ज्यादा अगर किसी क्षेत्र ने चरितार्थ किया है तो वह है विज्ञान। पिछले कुछ वर्षों से जो राजनीति धार्मिक कट्टरता की ओर लौट रही थी वह अचानक डाक्टरों और वैज्ञानिकों के प्रति नतमस्तक हो गई है। तीर्थयात्रियों पर पुष्प वर्षा करने वाली राजसत्ता का डाक्टरों और नर्सों पर फूल बरसाना एक अच्छा प्रतीक था जिसमें डाक्टरों और उनसे जुड़े मध्यवर्ग को खुश करने से ज्यादा विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र को नमन करने का भाव दिख रहा था। यहां त्रेता युग में विमान और कौरवों के टेस्ट ट्यूब बेबी होने का भाव भी विलीन हो रहा था।
कितना अच्छा होता आदर का यही भाव उन मजदूरों पर भी दिखाया जाता जो बड़े बड़े शहरों और उद्योगों को बना और चलाकर अपने रोजगार गंवा, थके हारे लाचार और बेचारे बनकर अपने घर लौट रहे थे। अगर ऐसा होता तो विज्ञान और लोकतंत्र का ऐसा रिश्ता कायम होता कि मानवता की विजय के बारे में आत्मविश्वास और बढ़ता।
दुनिया भर की सरकारों का एक वर्गीय और सांप्रदायिक चरित्र होता है और उससे उन हितों से ऊपर उठकर काम करने की अचानक उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी दायरे में विज्ञान और प्रौद्योगिकी का भी विकास होता है इसलिए उसमें भी विश्वयारी ही दिखती है विश्व बंधुत्व नहीं। विज्ञान को अगर स्वतंत्र रूप से काम करने दिया जाए तो वह राष्ट्रवादी संकीर्णता को तोड़ता है। वह न तो दो राज्यों की सीमाओं पर दीवार खड़ी करता है और न ही दो देशों की। लेकिन कोराना काल में भी अमेरिका और चीन के बीच विश्व बंधुत्व का यह रिश्ता कायम नहीं हो पाया है।
दोनों देशों में महाशक्ति के महापद पर बने रहने और कब्जा करने की होड़ मची है। इसकी छाया विज्ञान के शोध क्षेत्र पर भी पड़ रही है। अमेरिका और चीन अपने अपने राष्ट्रीय झंडों का मीम बनाकर वैज्ञानिक प्रयोगों की सूचना दे रहे हैं। दवाओं पर चर्चा कर रहे हैं। वे अपने शोधों के साथ भी सैनिक शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। बॉयोटेक हथियारों की होड़ वाली साजिश की थ्योरी तो अपनी जगह चल ही रही है। इसी के साथ चल रही है जल्दी से जल्दी दवाई और वैक्सीन बना लेने और उस पर अपने देश का ठप्पा लगा लेने की तैयारी।
विज्ञान की यह खींचतान दो देशों के भीतर ही नहीं अलग अलग देश के आंतरिक मामलों में भी चल रही है। अमेरिका के अतार्किक और मनमौजी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से उन्हीं के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. एंथनी फाउची परेशान हैं। वे उनके जुमलों को कैसे झेलते हैं यह तो उनके चेहरे के बदलते भावों को देखकर जाना जा सकता है, लेकिन ब्रिटेन के साइंटिफिक एडवाइजरी ग्रुप आन इमरजंसी (सेज) की संरचना और कार्यप्रणाली पर भी कई सवाल उठे हैं।
सेज ने जन स्वास्थ्य के महामारी विशेषज्ञों से मशविरा नहीं किया और काम चालू कर दिया। उसने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि चीन और हांगकांग ने इस बीमारी को कैसे नियंत्रित किया। उसने न तो प्रोफेसर गैब्रील लियांग को अहमियत दी और न ही माइक रेयान को। उसकी संरचना में न तो जेंडर का संतुलन है न विशेषज्ञता के क्षेत्रों का और न ही नस्लीय समूहों का। पहले उसने हर प्रकार की कम्युनिटी टेस्टिंग से मना कर दिया और बाद में जब संक्रमण बढ़ा और डब्ल्यूएचओ की सलाह आई तो टेस्टिंग, ट्रेसिंग और आइसोलेटिंग पर उतर आया।
भारत में भी आरंभ में डॉक्टरों और प्रशासकों में तालमेल बनाने में दिक्कत हुई। प्रशासन इसे कानून व्यवस्था की समस्या समझ रहा था और डॉक्टर इसे चिकित्सा विज्ञान की। जबकि मीडिया इसे क्राइम की स्टोरी बनाने में लगा था। यह अंधेरा धीरे धीरे छंटा और जब अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के अनुभव और सुझाव को अपनाया गया तो काम और कार्रवाई एक ढर्रे पर आई। लेकिन यहां भी विभिन्न बीमारियों बनाम केवल कोरोना के द्वंद्व के कारण चिकित्सा सेवा में एक खींचतान बनी रही। कैंसर का इलाज करें या कोरोना का या दोनों का। इस भ्रम का निवारण तब हो पाया जब स्वयं स्वास्थ्य और विज्ञान मंत्री हर्षवर्धन ने हस्तक्षेप किया।
इससे कम खींचतान दवाओं के उपयोग पर भी नहीं। आयुर्वेद और होम्योपैथी के विशेषज्ञ भी अपना योगदान देने और प्रयोग करने के लिए बेचैन रहे लेकिन एलोपैथी वाले उन्हें रत्ती भर भाव देने को तैयार नहीं थे। इसे कुछ लोग एलोपैथी का आतंक भी कहते हैं।
इन दिक्कतों के बावजूद पूरी दुनिया में कोरोना का मुकाबला करने के लिए विभिन्न वैज्ञानिकों के बीच सहयोग का जो ज्वार उठा है वह असाधारण है। यह जानते हुए कि वैज्ञानिकों, राष्ट्रों और कंपनियों के बीच एक बेहद स्वार्थी किस्म की होड़ होती है और वे अपनी सूचनाएं, आंकड़े और फार्मूले जल्दी किसी से साझा नहीं करतीं, इस दौर में यह काम तेजी से हो रहा है। वैज्ञानिक जरनल जितने शोध पत्र साल भर में प्रकाशित करते थे, उतने हफ्तों में हो रहे हैं। नोबेल विज्ञानी पाल नर्स लिखते हैं कि यूके रिसर्च एंड इनोवेशन व मेडिकल रिसर्च कौंसिल ने नया कोष तैयार किया है।
वेलकम ट्रस्ट ने बिल गेट्स और मिलंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ मिलकर शोध का काम तेजी से शुरू कर दिया। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और इम्पीरियल कालेज ने नए वैक्सीन पर काम करने का इरादा जताया है। ग्लैक्सोस्मिथ क्लाइन और एस्ट्राजेनेका जैसी कंपनियों ने अपनी होड़ समाप्त करके आपसी सहयोग से दवा और वैक्सीन पर काम करना शुरू किया है। मेगा लैब बनाए गए हैं और विज्ञान के काम करने का तरीका ही बदल गया है।
इतना ही नहीं शोध के प्रयोगों के निष्कर्षों को तेजी से साझा किया जा रहा है। जरनल रोज पेपर प्रकाशित कर रहे हैं। अध्ययन का कार्य अंतरअनुशासनिक हो चला है। विभिन्न विषयों की दीवारें टूट रही हैं। वायरोलाजी, मेडिसिन, इम्युनालॉजी, पब्लिक हेल्थ सब एक होकर काम कर रहे हैं। नए नए विचारों और योजनाओं का उद्भव हो रहा है। यूसीएल हास्पिटल फाउंडेशन और हेल्थ सर्विस लैबोरटीज ने बिना सरकारी सहयोग के तीन हफ्तों में वायरस टेस्टिंग किट तैयार कर लिया है।
यह स्थितियां जान बैरी की पुस्तक `द ग्रेट इन्फ्लुएंजा’ के उन वर्णनों की याद दिला रही हैं जब प्रथम विश्व युद्ध के बाद फैले इन्फ्लुएंजा के प्रभाव में अमेरिका की मेडिकल साइंस का पूरा मानचित्र ही बदल गया था। लेकिन इक्कीसवीं सदी के विज्ञान की यह गति बीसवीं सदी के मुकाबले कई गुना ज्यादा है।
भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने कोविड-19 पर तेजी से काम शुरू कर दिया है। सीएसआईआर की 15 प्रयोगशालाओं में तीव्र गति से काम चल रहा है। सीएसआईआर के महानिदेशक डाक्टर शेखर पांडे ने कोविड-19 पर नीति निर्माण के लिए एक कोर टीम बनाई है जिसमें आठ निदेशक शामिल हैं। वैक्सीन बनाने के लिए भारत और अमेरिका एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री पांपियो ने ऐसी घोषणा कर दी है। इन दोनों देशों ने तीन दशक में डेंगी, इन्फ्लुएंजा और टीबी पर जो काम किया है उसका अनुभव काम आएगा।
उधर चीन के साथ भी वैज्ञानिक सहयोग की घोषणाएं हो रही है। भारत के बॉयोटेक्नालॉजी विभाग ने एक कोरोना टीम बनाई है शोध के लिए। दिल्ली के डॉक्टर सरीन ने तो प्लाज्मा थैरेपी से कोरोना के इलाज में नई उम्मीद पैदा की है। अच्छी बात यह है कि प्लाज्मा थैरेपी में तब्लीगी जमात से जुड़े मरीजों ने योगदान दिया है। इससे सांप्रदायिक विभाजन भी मिटा है।
चीन और अमेरिका की उलझनों के बावजूद दुनिया के विभिन्न देश वैज्ञानिक शोध में एक दूसरे के साथ भरपूर सहयोग कर रहे हैं और तमाम तरह के आंकड़ों और प्रयोगों के परिणामों को साझा कर रहे हैं। वैज्ञानिक रहस्यों की यह साझेदारी अपने में अद्वितीय है। अमेरिका भले चीन से खिंचा है लेकिन वह ऑस्ट्रिया और नार्वे जैसे देशों से सहयोग कर रहा है। इटली में भी शोध चल रहे हैं, दूसरे देशों के सहयोग से।
इन स्थितियों को देखकर इटली के कोरोना वायरस के क्लीनिकल ट्रायल के प्रमुख डॉ. फ्रांसेस्को पेरोने कहते हैं कि इस समय वैज्ञानिक मानवता के प्रति अपनी सेवा की सच्ची भावना से मैदान (लैब) में उतर आए हैं। ‘’मैंने वैज्ञानिकों – सच्चे और अच्छे वैज्ञानिकों को- कभी राष्ट्रीयता के संदर्भ में बात करते नहीं देखा। वे मेरा देश, तेरा देश, मेरी भाषा, तेरी भाषा, मेरी भौगोलिक स्थिति जैसी शब्दावली का प्रयोग नहीं करते।‘’ नेताओं ने अगर सीमाएं बंद कीं तो वैज्ञानिक उसे खोल रहे हैं।
यानी विज्ञान वसुधैव कुटुंबकम की अपनी मूल भावना पर लौट आया है। उसकी यह भावना कायम रहे तो एक नया और सुंदर विश्व बन सकता है। विज्ञान को जिन तीन चीजों ने नुकसान पहुंचाया था शायद वे इस दौर में पछाड़ खाकर गिर जाएं। फासीवादी राजसत्ताएं विज्ञान का बड़ा नुकसान करती हैं। वे उसे राष्ट्र के दायरे में बांध देती हैं और जनता के दमन और पड़ोसी देशों को नुकसान पहुंचाने के लिए शोध करवाती हैं। ऐसा न करने वाले वैज्ञानिकों का जीवन असुरक्षित हो जाता है। दूसरा नुकसान वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों करवाती हैं जिन्होंने विज्ञान को मुनाफे से जोड़कर कुछ विशेष प्रौद्योगिकी और उत्पादों को ही विज्ञान बताने की साजिश की है।
आज भी फाइजर और जॉनसन जैसी कंपनियां लगी हुई हैं कि उन्हें दवा और वैक्सीन का फार्मूला मिले और वे पूरी दुनिया में मुनाफा कमाएं, उसी तरह से जैसे चीन और अमेरिका चाहते हैं कि उन्हें इलाज का रहस्य मिले और वे फिर दुनिया पर अपना दबदबा कायम करें। इसी मानसिकता से उत्पन्न पेटेंट प्रणाली ने पूरी दुनिया में शोषण बढ़ाया और वैज्ञानिक विकास को अवरुद्ध किया।
विज्ञान के साथ तीसरी दिक्कत है उसे किसी एक धातु का बना हुआ जड़वत विचार समझ लेना। विज्ञान अपने में कोई एक शिलाखंड नहीं है जिसे कहीं स्थापित करके उसकी पूजा की जाती है। वह प्रवहमान नदी और हवा की तरह एक जीवंत विचार और आख्यान है जिसमें असहमतियों की पर्याप्त गुंजाइश होती है। वह असहमतियां सैद्धांतिक भी होती हैं और कार्यप्रणाली से संबंधित भी। किसी वैज्ञानिक की सलाह पर अमल करना राजनीतिक निर्णय होता है। निर्णायक मंडल में कौन बुलाया जाता है यह नेताओं और नीति निर्माताओं के उद्देश्यों और स्वार्थों पर निर्भर करता है।
नेता उसी विज्ञान को पसंद करते हैं जो उनकी प्राथमिकताओं के अनुकूल हो। विज्ञान एक अनुमान है न कि भविष्यवाणी। वैज्ञानिक सबूत दे सकते हैं लेकिन उस सबूत पर काम करना राजनीति इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। वह राजनीतिक इच्छा शक्ति तभी पैदा होगी जब राजनेता वैज्ञानिक दृष्टि वाले होंगे और वे अंतरअनुशासनिक नजरिए से काम करेंगे। यहां पर वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों को प्रशासन का हिस्सा बनाने का सवाल भी अहम है। पर वह आसान नहीं है।
विज्ञान के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है सूचनाओं का मुक्त आदान प्रदान और उसकी साझेदारी, खुलापन और विचारों की विविधता। अगर चीन ने अपने उस डॉक्टर की सलाह मानी होती जिसने चमगादड़ों से फैलते बुखार को महामारी बनते देखा था तो शायद दुनिया आज ऐसी न होती। इसीलिए डॉ. जेडी बरनाल जैसे भौतिक शास्त्री अपनी चर्चित पुस्तक `द सोशल फंक्शन आफ साइंस’ में स्पष्ट रूप से संदेश देते हैं, ‘’जरूरत इस बात की है कि पूरी दुनिया के पैमाने पर विज्ञान और लोकतांत्रिक शक्तियों के बीच सहयोग कायम किया जाए। विज्ञान को इससे पूर्ण स्वतंत्रता और विकास का मौका मिलेगा और लोकतांत्रिक शक्तियां इससे अपनी शक्तियों और संभावनाओं को जानने की ओर बढ़ेगी।‘’
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)
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टीम मध्यमत