सात साल पहले भोपाल में सूखे जैसे हालात के चलते यहां का विश्वविख्यात तालाब सूख गया था और शहर के तमाम लोगों और संस्थाओं ने इसे एक अवसर के रूप में लेते हुए सूखे तालाब को गहरा करने का भारी भरकम अभियान चलाया था। उन दिनों सूखे तालाब में बड़ी भीड़ दिखाई देती थी, उस भीड़ में ज्यादातर चेहरे अखबारों और चैनलों के कैमरों के कारण आते थे। कॉरपोरेट ने उस आपदा को प्रचार के उत्तम अवसर के रूप में लिया था और सूखे तालाब के आसपास दर्जनों बैनर लग गए थे। हरेक बैनर में खुद को तालाब का एक मात्र माई बाप बताते हुए उसके उद्धार का दावा किया गया था। उस अभियान में राज्य के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी सपत्नीक श्रमदान किया था। लेकिन बहुत जोर शोर से शुरू हुआ गहरीकरण का वह अभियान तालाब क्षेत्र में यहां वहां कुछ बेतरतीब गड्ढे बनाने के साथ खत्म हो गया।
ऐसा नहीं है कि पानी को लेकर चलाए जाने वाले बहुप्रचारित अभियानों का ही यह हश्र होता हो। तालाब गहरीकरण जैसे अभियानों की बात भी छोड़ दें, हम तो छोटे मोटे रिसाव तक को ठीक नहीं कर पाते। देश प्रदेश का कोई शहर ऐसा नहीं होगा जहां पानी की पाइप लाइनें आए दिन फूटती न हों, उनमें चौबीसों घंटे रिसाव न होता हो, घरों में लगे नलों से अखंड पानी न टपकता हो… घरों और शहर की भी बात न करें, आप तो राज्य मंत्रालय वल्लभ भवन में ही चले जाएं, शायद ही ऐसा कोई वॉशरूम होगा जहां आपको पानी टपकता या बहता न मिले। सरकार सचमुच यदि पानी के प्रति चिंतित है तो शुरुआत वल्लभ भवन से ही कर ले। वहां रिस रही टोंटियां तो ठीक की ही जा सकती हैं। मंत्रालय में ही यदि रिसाव रुक जाए तो बहुत बड़ी बात होगी। (इस वाक्य के अन्यथा अर्थ न लगाएं, मैं फिलहाल पानी के रिसाव की बात कर रहा हूं।)
दूसरा मामला प्रशासनिक व्यवस्था का है। हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में देवास जिले के गांव गोरवा की खेत तालाब योजना की सराहना की थी। उस योजना के सूत्रधार तत्कालीन जिला कलेक्टर उमाकांत उमरांव को वहां से हटाने के बाद पानी से जुड़ी किसी भी योजना या विभाग में काम नहीं सौंपा गया। वर्तमान में वे उच्च शिक्षा विभाग में आयुक्त हैं। दूसरा मामला रीवा के पूर्व कलेक्टर जी.पी. श्रीवास्तव का है, उन्होंने भी रीवा में जलस्रोतों के संरक्षण और पुनर्जीवन पर काफी काम किया, लेकिन वहां से हटाने के बाद उन्हें पहले राज्य निर्वाचन आयोग में सचिव बनाया गया और आज वे राजस्व विभाग में सचिव का काम देख रहे हैं। ऐसे और भी कई अधिकारी होंगे, जो इस काम में रुचि रखते होंगे या उसे अलग तरीके करना चाहते होंगे। पर अभी तो सरकार में ऐसी व्यवस्था या मानसिकता तक मौजूद नहीं है, कि जो अधिकारी पानी बचाने की योजनाओं में रुचि लेकर काम कर रहे हैं, या कुछ नया करने की सोच रखते हैं, उनसे वैसा काम लिया जा सके। यह मानसिकता तो आकाश से नहीं बरसेगी, इसे तो आप खुद में पैदा कर ही सकते हैं।
दरअसल मध्यप्रदेश देश के उन राज्यों में है जहां आज भी आमतौर पर ठीक ठाक बारिश हो जाती है। हम जल संचयन और जल संरक्षण के मामले में देश में मिसाल बन सकते हैं। खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए हमने कृषि केबिनेट के गठन और कृषि पर अलग से बजट जैसे नवोन्मेषी प्रयास किए हैं। लेकिन समय की मांग को देखते हुए आज खेती से पहले पानी पर सोचने की जरूरत है। क्यों न मध्यप्रदेश इसके लिए अलग से ‘जल केबिनेट’ या ‘जल प्राधिकरण’ का गठन करते हुए पूरे राज्य में एक विशेष अभियान चलाए। आज पानी से जुड़े मामले कई विभाग अलग-अलग देख रहे हैं, जल संसाधन, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी, नगरीय प्रशासन, पंचायत एवं ग्रामीण विकास, नर्मदा घाटी विकास जैसे अनेक विभागों में आपस में तालमेल न होने से भी कई दिक्कतें होती हैं। ऐसे में क्यों न एक समग्र नोडल एजेंसी हो जो पानी संबंधी सारे कामों की निगरानी का काम करे। उस एजेंसी या प्राधिकरण के पास जल से संबंधित सभी विभागों की मॉनिटरिंग का काम हो। संबंधित विभागों की नीतियों, विभिन्न योजनाओं के अलावा उनके बजट प्रस्ताव भी उसी प्राधिकरण से होकर जाएं। उधर सरकार के स्तर पर गठित जल केबिनेट की प्रति माह बैठक हो और स्वयं मुख्यमंत्री यह बैठक लें। इसमें सभी संबंधित विभागों के बीच बेहतर समन्वय के साथ ही जल संरक्षण पर प्रभावी निगरानी भी हो सकेगी। पानी संबंधी सारे मसले एक ही जगह से समन्वित होने पर जलस्रोतों, जल संसाधनों की समुचित मॉनिटरिंग की जा सकेगी और सिंचाई, पेयजल आदि की व्यवस्था के साथ जलापूर्ति के ढांचे को भी और अधिक मजबूत बनाया जा सकेगा। मुख्यमंत्री की सतत मॉनिटरिंग से इस दिशा में गंभीरता भी बनी रहेगी।
कुल मिलाकर पानी के बारे में दिखावा करने या सिर्फ हल्ला मचाने के बजाय पूरी ईमानदारी से काम करने की जरूरत है। संकट है, इससे कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन समाधान या समाधान के रास्ते भी हैं, बशर्ते आप उन पर चलना चाहें…