जिज्ञासु होना किसी भी पत्रकार के लिए बुनियादी शर्त है। इसी जिज्ञासु प्रवृत्ति ने हाल ही में एक मामले पर मुझे परेशान कर दिया है। मामला संसद में पेश की गई एक रिपोर्ट का है। तेलुगू देशम पार्टी के सांसद जेसी दिवाकर रेड्डी की अध्यक्षता वाली संसद की उपभोक्ता मामलों की समिति ने पिछले दिनों भ्रामक और गुमराह करने वाले विज्ञापनों को लेकर उन मशहूर हस्तियों को भी सजा देने की सिफारिश की है, जो ऐसे उत्पादों को खुद आजमाए बिना ही उनका प्रचार प्रसार करते हैं। सिफारिश में कहा गया है कि गुमराह करने वाले ऐसे विज्ञापनों के मामले में पहली गलती पर दोषी पाई गई सेलिब्रिटी को दो साल की सजा और 10 लाख रुपए का जुर्माना हो। दुबारा ऐसी गलती करने पर पांच साल की सजा और 50 लाख रुपए के जुर्माने की बात कही गई है।
संसदीय समिति की ये सिफारिशें इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये उस उपभोक्ता संरक्षण विधेयक 2015 के संदर्भ में की गई हैं, जिसे पिछले साल संसद के पटल पर रखा गया था। यह विधेयक 30 साल पुराने उपभोक्ता संरक्षण कानून के स्थान पर लाया गया है। इसमें लोगों को विज्ञापनों के जरिए की जाने वाली धोखाधड़ी से बचाने के प्रावधान किए जा रहे हैं। इसके अलावा विज्ञापनों की निगरानी करने वाली संस्था ‘भारतीय विज्ञापन मानक परिषद’ (एएससीआई) को और ज्यादा अधिकार देने की व्यवस्था भी की जा रही है।
दरअसल विज्ञापनों में सेलिब्रिटी के नाम या चेहरे के उपयोग और ग्राहक अथवा उपभोक्ता के साथ धोखाधड़ी का मुद्दा हाल ही में उस समय उठा था, जब मशहूर बिल्डर ‘आम्रपाली’ समूह द्वारा लोगों से पैसे लेने के बावजूद मकान न दिए जाने की ढेरों शिकायतें सामने आई थीं। आम्रपाली के ब्रांड एम्बेसेडर महेंद्रसिंह धोनी को भी इसे लेकर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था और काफी सारे सवाल जवाब होने पर धोनी ने खुद को इस समूह से अलग कर लिया था।
आम्रपाली मामले पर, भारत में विज्ञापनों की दुनिया के सबसे बड़े ब्रांड अभिनेता शाहरुख खान ने अपनी प्रतिक्रिया में धोनी का बचाव तो किया था, लेकिन उन्होंने नसीहत भी दी थी कि किसी भी प्रॉडक्ट या ब्रांड का विज्ञापन करने वाले सितारे को विज्ञापन करने से पहले कंपनी के वादों की ठीक से पड़ताल करवा लेनी चाहिए।
अब मेरी जिज्ञासा की बात। मेरी जिज्ञासा का मुद्दा यह है कि धोनी या शाहरुख जैसी सेलिब्रिटीज के मामले में तो कानून अपना काम करेगा लेकिन उस प्रचार का क्या होगा, जो सरकारों की ओर से किया जाता है और जिसमें किए जाने वाले वादों पर नेताओं के चेहरे की मुहर लगाई जाती है। उन मामलों में शेर के मुंह में दांत गिनने कौन जाएगा? विज्ञापन तो विज्ञापन होता है, चाहे उसमें प्रधानमंत्री का फोटू लगे या अमिताभ बच्चन का, महेंद्रसिंह धोनी का चेहरा दिखाया जाए या राहुल गांधी का, प्रियंका चोपड़ा की छवि हो या बहन मायावती की। मंत्री का बखान हो या संतरी का। आप ऐसा कैसे कह सकते हैं कि, कलाकार या खिलाड़ी अथवा अन्य कोई सेलिब्रिटी तो झूठ बोल सकता है, नेता नहीं। जबकि सबसे ज्यादा गुमराह करने वाली हरकतें तो सरकारों और नेताओं के स्तर पर ही होती हैं।
यकीन न हो तो केंद्र या किसी भी राज्य सरकार के द्वारा किए जाने वाले प्रचार प्रसार को उठाकर देख लीजिए। जो और जैसा प्रचारित किया जाता है, वैसा यदि सचमुच में हो तो यह देश तो कभी का ‘स्वर्ग’ हो जाए और हम सारे लोग ‘रामराज्य’ के वासी कहलाएं। लेकिन सारा देश जानता है कि नेताओं के चेहरों के साथ जो दावे किए जाते हैं उनकी असलियत क्या है।
आपको याद होगा पिछले साल मई माह में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश देकर सरकारी विज्ञापनों में मंत्रियों और नेताओं के फोटो छापने व दिखाने पर रोक लगा दी थी। नेताओं से लेकर केंद्र सरकार तक ने उस पर बड़ा हल्ला मचाया और पिछले दिनों कोर्ट ने नेताओं के चेहरों पर लगी वह बंदिश हटा ली। अब फिर से सारे सरकारी विज्ञापन नेताओं के ‘लोकप्रिय’ चेहरों के साथ आने लगे हैं।
इसलिए मैं जानना चाहता हूं कि, इन चेहरों के साथ किए जाने वाले दावों की हकीकत कौनसी ‘मानक परिषद’ जांचेगी। क्या किसी परिषद या कानून में इतनी हिम्मत होगी कि कोई भी गलत या भ्रामक जानकारी प्रचारित करने पर मंत्रीजी को पहली बार में दो साल की सजा और 10 लाख रुपए का जुर्माना और दुबारा ऐसी गलती करने पर पांच साल की सजा और 50 लाख रुपए का जुर्माना कर सके। यदि ऐसा नहीं होना है तो फिर यह डंडा सिर्फ धोनियों, विराटों, सलमानों, शाहरुखों, प्रियंकाओं या दीपिकाओं पर ही क्यों। उन पर भी क्यों नहीं जो जनता के पैसे से अपना चेहरा चमकवाते फिरते है।
जिनका चरित्र ही काला है, वे गोरा करने वाली कितनी ही क्रीमें लगा लें, उजला होने से तो रहे। ऐसे में क्या तो क्रीम का दोष और क्या उसकी ‘डुगडुगी’ बजाने वाले का। जब इस देश में ‘फॉग’ ही चल रहा है, तो ‘फॉग’ (धुंध) ही चलने दीजिए। आप क्या कहते हैं…