राकेश अचल
आज का शीर्षक 1974 में बनी फिल्म ‘आज की ताजा खबर’ के एक लोकप्रिय गीत की पैरोडी है। इस शीर्षक से 2001 में फिल्म भी बनी और ढेरों कविताएं भी लिखी गयीं, लेकिन ‘मुझे मेरे टीवी से बचाओ’ नाम की न कोई फिल्म बनी है और न कोई गीत ही लिखा गया है। मुमकिन है कि आने वाले दिनों में ये काम भी हो जाये, क्योंकि आजकल हमारे यहां कहा जाता है कि- ‘मोदी है तो मुमकिन है।‘
दरअसल टीवी आज के समाज का सबसे बड़ा दोस्त और उससे बड़ा दुश्मन बन गया है। टीवी का भारतीय जनमानस पर बढ़ता प्रभाव देखकर टीवी उद्योग से जुड़े लोगों ने इसका दुरुपयोग शुरू कर दिया है। अब वे जो दिखाया जाना चाहिए, उसे न दिखाकर वो सब दिखा रहे हैं जो नहीं दिखाना चाहिए और जिसके दिखने या न दिखने का जन स्वास्थ्य से कोई लेना-देना नहीं है। हमारी बैठकों से हमारे शयनकक्ष तक पहुंचे टीवी को घर से कैसे बाहर निकाला जाये ये समस्या खड़ी हो गयी है।
भारत में टीवी की उम्र अब लगभग साठ साल की हो गयी है। इस लिहाज से आज के टीवी को जितना परिपक्व और जिम्मेदार होना चाहिए था, उतना हो नहीं पाया। उलटे आज का टीवी सठियाया हुया लगने लगा है। टीवी पर क्या दिखाया जाना चाहिये और क्या दिखाया जा रहा है, ये खुद टीवी को पता नहीं है। आये दिन कुकुरमुत्तों की तरह जन्म लेने वाले टीवी चैनलों के बीच शुरू हुई टीआरपी की अंधी होड़ अब खतरनाक मुकाम तक आ पहुंची है। टीवी चैनलों की इस लड़ाई ने जनता को वास्तविक परिदृश्य से दूर ले जाकर खड़ा कर दिया है।
एक जमाना था जब कुछ फ़िल्में सिनेमाघर के पर्दों से महीनों तक नहीं उतरती थीं, आज यही हालत टीवी की हो गयी है। आजकल टीवी पर एक खबर अगर चढ़ जाये तो उसे उतारना मुश्किल होता है। अब देखिये न सुशांत सिंह राजपूत की खबर तीन माह बाद भी टीवी के लिए सदाबहार है जबकि देश में संसद से लेकर सड़क तक न जाने क्या-क्या हो चुका है। टीवी हमें वो सब दिखाना चाहता है जो उसने तय कर रखा है या जिसके लिए उसने सुपारी ले रखी है। टीवी को अवाम की जरूरतों का न कोई अंदाजा है और न वो अवाम की जरूरतों को पूरा करना चाहता है। अब भला किसान आंदोलन से टीवी को क्या हासिल होगा? हरिवंश का कठपुतली नृत्य टीवी के किस काम का?
अक्सर तर्क दिया जाता है कि-‘आपके हाथ में रिमोट है, आप जब चाहें, तब चैनल बदलकर अपनी पसंद का चैनल देख लीजिये। ‘सवाल यही तो है कि हमारी-आपकी पसंद का कोई चैनल आज है क्या? आप चाहे जितने चैनल बदल लीजिये, हर चैनल पर सुशांत सिंह राजपूत की आत्मा मंडराती मिलेगी। सुशांत एक मिसाल है। टीवी जिस मुद्दे की सुपारी ले लेता है, उसे तब तक दिखाता है जब तक कि लक्ष्यपूर्ति न हो जाये या, नया विषय उसके हाथ न लग जाये। अब टीवी नए प्रोडक्शन पर खर्च नहीं करता। अब टीवी दंगल कराता है। मुर्गों की लड़ाई दिखाता है, या फिर सरकार के कहे पर घंटों सजीव भाषण दिखाता है।
जिन लोगों ने पहली बार टीवी देखा था वे चमत्कृत थे, इस खोज को लेकर और एक लम्बे समय तक इसके जादुई असर से बाहर निकल नहीं पाए थे। अब परिदृश्य उलटा है। टीवी का दर्शक अब टीवी से बाहर निकलना चाहता है लेकिन टीवी भूत की तरह उसके पीछे लग गया है। टीवी बैठक और शयनकक्ष से होता हुआ आपके मोबाइल और कलाई घडी तक में जा घुसा है। आप आगे-आगे और टीवी आपके पीछे-पीछे। जाइये आप कहाँ जायेंगे? सवाल यही है कि टीवी से आतंकित दर्शक अब कहाँ जाये? उसका अपना तो कोई टीवी चैनल है नहीं। हर टीवी धन्नासेठों का है या फिर उसके ऊपर किसी न किसी राजनीतिक दल का कब्जा है।
आप मानें या न मानें किन्तु मेरी मान्यता है कि अब टीवी एक औजार बन गया है जनमानस को दूषित करने का। आपने देखा कि कॉरोनाकाल में नजरबंद भारतीय दर्शक को ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ दिखाकर घरों में रोका गया, कभी क्रिकेट टीवी पर छा गया, राजनीति का तो स्थाई डेरा है ही टीवी पर। आम आदमी का क्या है यहां? टीवी पर मंदिर है, मस्जिद है, छोटी-बड़ी अदालत है, उसकी अवमानना है, लेकिन आम आदमी का सुख-दुःख नहीं है। टीवी की स्वतंत्रता नियंत्रित है और उसका नियंत्रण जानबूझ कर पूंजीपतियों ने अपने हाथों में ले लिया है, ताकि जनता सवाल करना भूल जाये। कभी न पूछे कि आपने क्या बेचा और क्या खरीदा? कभी न पूछे कि बाजार में रोजमर्रा की चीजें लगातार महंगी क्यों हो रही हैं?
मैं अगर कहूं कि टीवी चैनलों पर अश्लील, अमर्यादित व डरावने दृश्यों को दिखाये जाने के कारण जनमानस में गलत संदेश प्रसारित हो रहा है और इसी के परिणामस्वरूप युवा पीढ़ी दिशाहीन होकर टीवी दृश्यों की नकल कर रही है, तो शायद आप यकीन नहीं करेंगे। आप यकीन नहीं करेंगे कि युवकों में आवारागर्दी और पिता की कमाई पर ऐश करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, जो उनके कर्तव्य, सृजनशीलता को नष्ट कर रही है। आप शायद नहीं मानेंगे कि निरंतर हत्याओं व बलात्कारों के दृश्य देखने से बच्चों के मानसिक विकास पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। देश में बढ़ती हुई हिंसक घटनाएं इसके दुष्परिणाम हैं। इन चैनलों पर नारी देह को नग्न दिखाने के साथ ही विज्ञापन के नाम पर चारित्रिक सीमाओं से तटस्थ होकर गंदे व अमानवीय चित्रों को प्रदर्शित किया जा रहा है।
हमारा टीवी अब हमें नए सामाजिक मूल्यों से प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। टीवी का नया नारा है- ‘तुम अपना देखो, मैं अपना देखूं’ तो ठीक है आप अपना देखिये और उन्हें अपना देखने दीजिये। ये नए समाजिक मूल्य आपको कहाँ से कहाँ ले जायेंगे इसका पता शीघ्र चल जाएगा। मेरा काम तो आपको सतर्क करना है सो मैं कर ही रहा हूँ। मेरी टीवी से कोई जाती दुश्मनी नहीं है। मुझे तो टीवी से यदा-कदा रोटी भी मिल जाती है, लेकिन आप सोचिये, ठंडे दिमाग से, कि आपको आपके टीवी से क्या हासिल हो रहा है। यदि पता चल जाये तो हमें भी बताइयेगा।