सतीश के जरिये ग्‍वालियर में कांग्रेस को खड़ा करने का दांव..!

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डॉ. अजय खेमरिया

सतीश सिंह सिकरवार ने अंतत: कमलनाथ के समक्ष कांग्रेस का दामन थाम ही लिया। पिछले 5 महीने से इस दलबदल की पटकथा लिखी जा रही थी जो अंतत: कमलनाथ के टिकट देने के वचन के साथ ही पूरी हो गई। ग्वालियर पूर्व से अब सतीश सिकरवार फिर से मैदान में होंगे। 2018 में वे मुन्नालाल गोयल से इसी सीट से हार चुके हैं। तब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने सतीश को ग्वालियर के लगभग सभी दिग्गजों की आपत्ति को दरकिनार कर अपनी कैबिनेट मंत्री माया सिंह का टिकट काटकर उन्हें मैदान में उतारा था।

सिंधिया के दलबदल के साथ निर्मित परिस्थितियों में सतीश सिकरवार को अपने सियासी भविष्य पर खतरा नजर आ रहा था। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने हालिया ग्वालियर दौरे में उनसे अलग से मिलकर पार्टी में बने रहने का आग्रह किया था। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी उनसे महल में बुलाकर मन्त्रणा की थी लेकिन सतीश सिंह ने उपचुनाव में उम्मीदवारी के लिए कमलनाथ के प्रस्ताव को स्वीकार करना बेहतर समझा। इस निर्णय के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि अब सिकरवार परिवार का भी बीजेपी में कोई खास भविष्य नहीं रहने वाला है। यह परिवार ग्वालियर के साथ साथ मुरैना जिले में लंबे समय से सुमावली और जौरा की सीटों पर चुनावी राजनीति में सक्रिय है।

एक जमाने मे दिग्गज समाजवादी नेता रहे दादा गजराज सिंह सिकरवार की पूरी राजनीति कांग्रेस के विरोध पर आधारित रही है। वे बीजेपी के टिकट पर सुमावली से विधायक रहे हैं। उनके छोटे बेटे सत्यपाल सिंह भी 2013 में यहां से विधायक रह चुके हैं। चर्चा थी कि 2020 के उपचुनाव में बीजेपी  सत्यपाल या गजराज सिंह को जौरा से टिकट देकर सुमावली और ग्वालियर पूर्व के समीकरण को साध सकती है, लेकिन अब सतीश सिकरवार के कांग्रेस में शामिल होने से इन सँभावनाओं पर विराम लग गया है।

इधर कांग्रेस के पास ग्वालियर पूर्व की सीट पर कोई मजबूत उम्मीदवार नहीं था, इसलिए सतीश को शामिल कराकर कमलनाथ ने एक मास्टर स्ट्रोक चलने का सन्देश देने की कोशिश की है। सतीश जमीनी तौर से इस सीट पर पिछले काफी समय से सक्रिय हैं, लगातार नगर निगम के वार्डों से निर्वाचित भी होते रहे हैं। लेकिन अब देखना यह होगा कि बीजेपी कैडर के साथ मजबूत दिखने वाले सतीश, कांग्रेसी बाने में अपनी पुरानी छवि को कायम रख पाते हैं या नहीं।

यह भी तथ्य है कि बीजेपी में एक बड़ा वर्ग उन्हें अंदर खाने मदद करता था, लेकिन उनकी दबंग इमेज के चलते लोग उनसे दूरी बनाकर भी चलते थे। 2018 में बीजेपी टिकट पर उनकी शिकस्त का मूल कारण इस दबंग छवि को भी माना गया था। ग्वालियर पूर्व की सीट पर उनके दावे को कांग्रेस में इसलिये भी मजबूत माना जा रहा है क्योंकि ठाकुर बिरादरी के वोट यहां दलितों, मुस्लिम के साथ मिलकर उनको मुकाबले में बना सकते है।

2018 में उनके विरुद्ध डॉ. गोविंद सिंह की टीम भी दीनदयाल पुरम और भिंड रोड के इलाके में सक्रिय थी क्योंकि डॉ. गोविंद सिंह को 2014 के लोकसभा चुनाव में सतीश के चाचा वृंन्दावन सिकरवार ने सिंधिया के इशारे पर बसपा से लड़कर तीसरे नम्बर पर पहुँचा दिया था। इस चुनाव में अनूप मिश्र चुनाव जीते थे। खबर है कि कमलनाथ ने सिकरवार परिवार और डॉ. गोविंद सिंह के बीच भी दोस्ती करा दी है।

वैसे ग्वालियर पूर्व बीजेपी के परम्परागत प्रभुत्व वाली सीट है पार्टी का कैडर वोट यहां बड़ी संख्या में है। ब्राह्मण, वैश्य, मराठी, सिंधी, पंजाबी के अलावा शिवराज फैक्टर वाले वोटर भी यहां बड़ी संख्या में हैं। अनूप मिश्रा, माया सिंह यहां से जीतते रहे हैं। सिंधिया फैक्टर भी इस सीट पर अहम है, क्योंकि महल भी इसी सीट में आता है। अब दोनों उम्मीदवार दलबदल वाले हो गए हैं इसलिए बीजेपी के मुन्नालाल को अब अकेले दलबदलू की तोहमत चुनावी कैम्पेन में नहीं झेलनी पड़ेगी।

यह भी तथ्य है कि कांग्रेस में सतीश की स्वीकार्यता इतनी आसान नहीं रहने वाली है जैसा प्रचारित किया जा रहा है। क्योंकि बालेंदु शुक्ला भी इसी सीट से लड़ने के वादे पर बीजेपी छोड़कर कांग्रेस में आये थे, वहीं दर्शन सिंह यादव के बेटे मितेन्द्र सहित अन्य नेता भी यहां से टिकट के दावेदार हैं। कमलनाथ का यह दांव कितना कारगर होगा यह तो चुनाव नतीजे के बाद ही पता चलेगा, लेकिन ग्वालियर अंचल में कांग्रेस हर कीमत पर सिंधिया के उम्मीदवारों को घेरने की रणनीति पर काम कर रही है।

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