अजय बोकिल
यह खबर इसलिए चौंकाने वाली नहीं थी कि बीजेपी ने ‘75 पार को घर बिठाओ’ के अपने ही फार्मूले को दरकिनार किया, न ही इसलिए थी कि केरल जैसे राज्य में अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रही बीजेपी ने मशहूर ‘मेट्रो मैन’ को अपने पाले में खींच लिया, बल्कि इसलिए ज्यादा थी कि 88 पार की उम्र में भी एक शख्स सत्ता परिवर्तन का हौसला बांधे हुए है। वह अभी भी चुनावी रण में जोश के साथ राजनीतिक दुश्मनों के साथ दो-दो हाथ करने को बेताब है। वो भी उस केरल राज्य में, जहां बीजेपी के भगवा रंग को किसी ऐसे दमदार चेहरे की तलाश है, जो किसी भी तरह पार्टी की विजय पताका राजधानी तिरुवअंनतपुरम् के ‘समस्थान सरक्कार सिरिकेन्द्रम्’ (राज्य सचिवालय) पर फहरा सके और जो देश में वामपंथ के इस आखिरी मजबूत किले को ढहा सके।
ये उम्मीद असंभव भले न हो, लेकिन आकाश जैसी है। क्या जीवन के नौंवे दशक की ओर मुखातिब ई. श्रीधरन् इस चुनौती को स्वीकार कर उसे अंजाम तक पहुंचा पाएंगे, खासकर तब कि जब रेल के रूप में मेट्रो चलाने और राजनीतिक मेट्रो चलाने में जमीन आसमान का अंतर है। श्रीधरन् इन दिनों अपने गृह राज्य केरल के मलप्पुरम जिले के पोन्नानी गांव में पत्नी के साथ सुकून भरी रिटायर्ड जिंदगी बिता रहे हैं। उन्हें भाजपा में औपचारिक रूप से अभी शामिल होना है। लेकिन इसके पहले ही उन्होंने अपने बयानों से संकेत दे दिया है कि वे (अगर चले तो) घुटे हुए राजनेता साबित होंगे।
इसके पहले ई. श्रीधरन आजाद भारत की रेल इंजीनियरिंग का पर्याय बन चुके हैं। 1954 में भारतीय रेल इंजीनियरिंग सेवा में आने के बाद अपनी काबिलियत साबित करते हुए उन्होंने 1964 में आए तूफान में ध्वस्त पम्बन ब्रिज को मात्र 46 दिन में खड़ा कर तत्कालीन रेल मंत्री से 1 हजार रुपये का नकद पुरस्कार पाया था। अपने काम के प्रति जुनून और अडिग निष्ठा के कारण ही श्रीधरन को ‘मेट्रो मैन’ की अघोषित उपाधि मिली। 1974 में जब जार्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में पूरे देश में 17 लाख कर्मचारियों ने रेल के चक्के जाम कर दिए थे, उस वक्त बतौर रेलवे इंजीनियर श्रीधरन कोलकाता में (देश की पहली) मेट्रो रेल के डिजाइन में व्यस्त थे। उसके बाद उन्होंने कई कठिन और बेहद चुनौती भरे प्रोजेक्ट जैसे कोंकण रेलवे, दिल्ली मेट्रो, कोच्ची मेट्रो आदि शानदार तरीके से पूरे किए।
खास बात यह है कि सरकारी सेवा में रहते हुए भी श्रीधरन की पूरी जिंदगी बेदाग रही और अपने काम से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया, चाहे फिर किसी पार्टी की सरकार हो। इसी असाधारण उपलब्धि के लिए अटल सरकार ने उन्हें पद्मश्री, तो मनमोहन सरकार ने पद्मविभूषण से नवाजा। इसके अलावा भी कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार श्रीधरन को मिले हैं। यह संयोग ही है कि इन दोनों समकालीनों यानी वैज्ञानिक व भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को ‘मिसाइल मैन’ तो इलात्तुवलपिल श्रीधरन को ‘मेट्रो मैन’ का खिताब मिला।
मोदी सरकार ने श्रीधरन को कोई पुरस्कार तो नहीं दिया, लेकिन केरल जैसे वाम और मध्यमार्गी राजनीति वाले राज्य में राष्ट्रवादी भाजपा का आइकन बनाने का फैसला किया। कहा जा रहा है कि श्रीधरन जैसी असाधारण प्रतिभा के भाजपा से जुड़ने के बाद केरल के युवाओं में एक सकारात्मक भगवा संदेश जाएगा। अहम बात यह है कि भाजपा ने यह फैसला राज्य में दो माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के मुहाने पर लिया है। इससे केरल में कितनी राजनीतिक उथल-पुथल मचेगी, मचेगी भी या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा। खास बात यह है कि श्रीधरन उस दिन भाजपा में शामिल रहे हैं, जिस दिन यानी 21 फरवरी को भाजपा राज्य में अपनी ‘विजय यात्रा’ शुरू करने जा रही है।
हालांकि श्रीधरन ने भाजपा में प्रवेश के पहले ही जो जोश भरा इंटरव्यू दिया, उससे इतना तो पता चलता ही है कि श्रीधरन जैसे लोग समय से हार नहीं मानते। उन्होंने कहा कि अगर चुनाव में भाजपा सत्ता में आई तो वो केरल का मुख्यमंत्री बनना पसंद करेंगे। राज्यपाल बनना उन्हें मंजूर नहीं है, क्योंकि उसके पास शक्तियां नहीं हैं। श्रीधरन पार्टी के आदेश पर विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए भी तैयार हैं। उन्होंने कहा कि मेरा लक्ष्य केरल में बीजेपी को सत्ता में लाना, इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास और राज्य को कर्ज के जाल से बाहर निकालना है। श्रीधरन के मुताबिक आज हर मलयाली पर 1.2 लाख रुपये का कर्ज है। राज्य दिवालिया होने की कगार पर है। श्रीधरन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी नीतियों के भारी प्रशंसक हैं।
श्रीधरन के हौसले भले बुलंद हों, लेकिन उनके सामने राजनीतिक चुनौती हिमालय जैसी है। कारण कि भाजपा को केरल में अभी भी मजबूत जमीन की तलाश है। 2016 के विधानसभा चुनाव में उसे 8.93 प्रतिशत वोट और मात्र 1 सीट मिली थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत (एनडीए) 15.64 फीसदी हुआ, लेकिन मंजिल अभी कोसों दूर है। राज्य में माकपानीत लेफ्ट फ्रंट पिछले विधानसभा चुनाव में 43.48 प्रतिशत वोट लेकर सत्ता में आया था, जबकि विपक्ष में बैठे कांग्रेसनीत यूनाइटेड फ्रंट को 38.81 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। यानी रास्ता बहुत लंबा और चुनौती भरा है।
सत्ता में आने के लिए भाजपा को 30 फीसदी वोटों का इजाफा करना होगा और 140 विधायकों वाली विधानसभा की 70 से ज्यादा सीटें जीतनी होंगी। यह कोई हंसी खेल नहीं है। अलबत्ता चुनाव में विपक्ष के पास श्रीधरन के खिलाफ बोलने के लिए कुछ नहीं होगा। लेकिन श्रीधरन का इंजन केरल में भाजपा की रेंगती मेट्रो को कितना खींच पाएगा, यह देखना दिलचस्प होगा। राज्य के बीजेपी सूत्रों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विधानसभा चुनावों के मद्देनजर हाल में केरल में 1100 किमी सड़कें बनाने के लिए 65 हजार करोड़ रुपये देने का ऐलान किया है। ऐसी योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए भी श्रीधरन जैसी शख्सियत चाहिए।
हालांकि इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि केरल का राजनीतिक और सामाजिक ताना-बाना उत्तर-पश्चिमी भारत के राज्यों से अलग है। भाजपा केरल में जिस तरीके से हिंदुओं को गोलबंद करने की कोशिश करती रही है, उसमें उसे बहुत सीमित सफलता मिली है। शायद इसीलिए पार्टी साम्प्रदायिक के साथ-साथ विकास की राजनीति भी करना चाहती है। पार्टी शायद मानती है कि इस राजनीति का श्रीधरन सही चेहरा हो सकते हैं।
केरल में सत्ता में आना तो फिलहाल भाजपा के लिए बहुत दूर की बात है, लेकिन श्रीधरन के नेतृत्व में पार्टी कुल संख्या की एक चौथाई सीटें भी जीत सकी तो भी यह बड़ी बात होगी। बहरहाल चुनाव नतीजा जो भी है, भाजपा ने दांव जोरदार खेला है। लेकिन असल सलाम तो श्रीधरन के उस जज्बे को है, हर नई चुनौती को बेहिचक स्वीकारना जिसकी तासीर में है। चुनाव में वो जीतें चाहे हारें, एक नई मिसाल तो कायम करेंगे ही।