अजय बोकिल
मप्र में शिक्षा के क्षेत्र में ‘क्रांतिकारी’ खबर यह है कि अब प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों के बच्चे कक्षा में हाजिरी के वक्त ‘यस सर’ या ‘यस मैडम’ की जगह ‘जय हिंद’ बोलेंगे। शिवराज सरकार ने इस बारे में सभी स्कूलों को आदेश जारी कर दिए हैं। प्रायवेट स्कूलों में यह ‘क्रांति’ लागू होगी या नहीं, साफ नहीं है। लेकिन शिक्षा प्रणाली में इस ‘देशभक्तिपूर्ण बदलाव’ की जिद राज्य के शिक्षा मंत्री विजय शाह की थी। शाह ने बीते साल 1 अक्टूबर को राज्य के सतना जिले के स्कूलों में पायलट प्रोजेक्ट के बतौर इसे लागू किया था।
अब इस पहल को पूरे प्रदेश में लागू कर दिया गया है। यह नए शैक्षणिक सत्र से आरंभ होगा। अभी तक परंपरा यह रही है कि क्लास में उपस्थिति या रोल कॉल के समय टीचर द्वारा कक्षा में बच्चे का नाम पुकारे जाने पर जवाब में ‘यस सर’, ‘यस मैम’ या गांवों के हिंदी मीडियम स्कूलों में ‘उपस्थित’ जैसे शब्द सुनाई पड़ते रहे हैं। नई व्यवस्था के तहत सभी स्कूलों में रोल कॉल के जवाब का ‘संबोधनात्मक एकीकरण’ होगा। स्कूल किसी भी मीडियम का हो, जवाब एक ही आएगा-‘जय हिंद।‘
वैसे आजादी के पहले और बाद में भी देशभक्ति के जो शर्तिया नारे हैं, उनमें ‘जय हिंद’ भी है। वास्तव में यह ‘जय हिंदुस्तान की’ का संक्षिप्तीकरण है और इसका अर्थ ‘भारत की विजय’ है। कहा जाता है कि ‘जय हिन्द’ के नारे की शुरुआत केरल के क्रांतिकारी चेम्बाकरमण पिल्लई ने की थी। उन्होने कॉलेज में इस शब्द का उपयोग अभिवादन के रूप में करना शुरू किया।
पिल्लई बाद में उच्च अध्ययन के लिए जर्मनी चले गए। वहां अर्थशास्त्र में पीएचडी कर जर्मन नौ सेना में शामिल हो गए। साथ में वे अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों में भी हिस्सा लेते रहे।1933 में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में उनकी मुलाकात नेताजी सुभाषचंद्र बोस से हुई तो पिल्लई ने उनका अभिवादन ‘जय हिंद’ कहकर किया। ये शब्द नेताजी को पसंद आया।
बाद में जर्मनी में कैद ब्रिटिश भारतीय सैनिकों को संबोधित करते हुए नेताजी ने भी ‘जय हिंद’ शब्द का प्रयोग किया। अखबारों में यह खबर पढ़ कर जर्मनी में अध्ययनरत एक और भारतीय छात्र आबिद हसन सफरानी नेताजी से मिले। आबिद हैदराबाद के थे और समर्पित क्रांतिकारी थे। वे भी आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए। नेताजी ने उन्हें अपना निज सचिव बनाया। आबिद नेताजी के लिए जर्मन अनुवादक का काम भी करते थे। कहते हैं कि आबिद ने ही आजाद हिंद फौज के जवानों के बीच आपसी संबोधन के लिए ‘जय हिंद’ शब्द सुझाया। यही आगे चलकर आजाद हिंद फ़ौज का युद्धघोष बना।
1946 में एक चुनाव सभा में जवाहरलाल नेहरू ने लोगों को ‘कांग्रेस जिंदाबाद’ के बजाए ‘जय हिंद’ का नारा लगाने के लिए प्रेरित किया। आजादी के दिन 15 अगस्त 1947 को नेहरूजी ने लाल किले से अपने पहले भाषण का समापन ‘जय हिन्द’ से किया। यह परंपरा अब तक चली आ रही है। आजाद भारत के पहले डाक टिकट पर भी ‘जय हिंद’ लिखा गया। ग्वालियर के स्वतंत्रता सेनानी रामचंद्र मोरेश्वर करकरे ने 1947 में एक नाटक ‘जय हिंद’ लिखा था। आज भी आकाशवाणी के कार्यक्रमों का समापन ‘जय हिंद’ से होता है। भारतीय सेना और सुरक्षा बलों का घोष वाक्य ‘जय हिंद’ ही है।
बेशक ‘जय हिंद’ देशभक्ति के भाव से जन्मा और उसमें पगा शब्द है। इसका जोशपूर्ण उच्चारण मन-मस्तिष्क में देशप्रेम का संचार करता है। लेकिन इसका रोल कॉल से क्या सम्बन्ध है? क्लास में हाजिरी यह खात्री करने के लिए ली जाती है कि विद्यार्थी कक्षा में आया है या नहीं। गोल तो नहीं मारा। उसका देशभक्ति से शायद ही कोई लेना-देना हो। क्योंकि अभिवादन और उपस्थिति के जवाबी संबोधन में भावात्मक अंतर है। वह व्यक्ति की सशरीर मौजूदगी की पुष्टि भर है न कि उसके देशभक्त भी होने की।
रोल कॉल का नया नियम परोक्ष रूप से यह भी साबित करेगा कि जो क्लास में (किसी भी कारण से) नहीं आया है, वह देशभक्त नहीं है। वैसे भी स्कूलों में प्रार्थना के बाद जो सामूहिक नारा जोर से लगता आया है, वह ‘जय हिंद’ ही है। यही नारा क्लास में व्यक्तिगत हाजिरी का प्रतीक बनकर कितना असर पैदा करेगा, कहना कठिन है। इस बारे में मंत्री विजय शाह का तर्क है कि उनके दादाजी सेना में थे। वो जब भी किसी से मिलते थे तो ‘जय हिंद’ कहते थे। क्योंकि यह राष्ट्र के प्रति सम्मान प्रकट करने का अच्छा तरीका है।
मंत्री शाह ने शिक्षा के क्षेत्र में जो ‘नवाचार’ किए हैं, उनमें शिक्षक को ‘राष्ट्रनिर्माता’ कहना भी शामिल है। इसी की अगली कड़ी के रूप में देशभक्ति दर्शाने का यह एक और आसान नुस्खा है।
मोटे तौर पर मध्यप्रदेश के स्कूलों में दो करोड़ बच्चे पढ़ते हैं। यानी हर दिन स्कूलों में लगभग दो करोड़ बार ‘जयहिंद’ शब्द का उच्चारण होगा। इससे देशभक्ति का ज्वार किस विस्फोटक गति से बढ़ेगा, इसकी सुखद कल्पना की जा सकती है। जैसे मंत्रों के बारंबार जाप से धार्मिक-तांत्रिक सिद्धी होती है, उसी तरह देशभक्तिपूर्ण शब्दों की आवृत्ति जितनी बार होगी, उतना ही प्रदेश और देश का भला होगा।
अभी तक सरकारी स्कूलों में शिक्षित पुरानी पीढि़यों में यही बेसिक डिफेक्ट रहा है कि वे देशभक्त होकर भी ठीक से देशभक्त प्रोजेक्ट नहीं हो पाई थीं। उनमें से ज्यादातर को शुरू से ही ‘यस सर..’ कहने की आदत पड़ जाती है, जो तमाम उम्र नहीं जाती। यह बात अलग है कि राजनीति से लेकर नौकरशाही तक ‘यस सर’ ही कामयाबी का शर्तिया व्यावहारिक फार्मूला है। इसे ‘जयहिंद’ कैसे और कितना ‘रिप्लेस’ करेगा, सोचने की बात है।
यूं आजकल देशभक्त होना ही काफी नहीं है। आपका देशभक्त होते दिखना भी जरूरी है। ऐसे में जब क्लास की शुरुआत ही देशभक्ति से होगी तो अलग से देशभक्ति की क्लास लगाने की जरूरत नहीं रहेगी। ‘जय हिंद’ शब्द में ‘हिंदुस्तान की विजय’ का चिरंतन भाव तो है ही, अगर इस ‘हिंद’ में ‘ऊ’ की मात्रा भी जोड़ दी जाए तो इसके ‘जय हिंदू’ होने में भी ज्यादा दिक्कत नहीं है। लेकिन ये सब देशभक्तिकाल के उत्तर कांड की बातें हैं। फिलहाल रोल कॉल की नीरस, व्यक्ति केन्द्रित और भौतिकवादी परंपरा को बदलने के लिए मंत्री विजय शाह को ‘जय हिंद।‘
( सुबह सवेरे से साभार)