राकेश अचल
भारत उन देशों में से एक हैं जहाँ कहने को तो गंगा जैसी पवित्र मानी जाने वाली नदियां बहती हैं लेकिन हकीकत में भारत की नदियाँ दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित हैं। कोरोना काल में तो गंगा जैसी नदियों की भी शामत आ गयी है क्योंकि इस पतित पावनी में हर रोज हजारों दिवंगतों की अस्थियों का विसर्जन किया जा रहा है। हिन्दू मान्यताओं में व्यक्ति की मुक्ति के लिए दिवंगतों के अस्थि अवशेष गंगा में प्रवाहित करने का विधान है। कम से कम उत्तर भारत के लोग तो हरिद्वार और प्रयाग में ही जाकर अस्थि विसर्जन करते हैं। जो लोग गंगा तक नहीं पहुँच पाते वे आसपास की नदियों को ही गंगा मानकर उसमें अस्थि विसर्जन कर देते हैं।
अस्थियों के अलावा चिताओं की राख भी गंगा में या आसपास के जल स्रोतों में बहाई जाती है। भारत में प्रतिदिन होने वाली मौतों का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है किन्तु माना जाता है कि अलग-अलग कारणों से आम दिनों में सामान्य तौर पर दो से ढाई हजार लोगों की मौत होती थी, लेकिन कोरोना काल में आजकल अकेले कोरोना से ही रोजाना 4 हजार से ज्यादा लोग काल कवलित हो रहे हैं।
भारत में पहली बार हुआ है कि यहां अंतिम संस्कार के लिए भी मृत शरीर कतार में हैं, ईंधन की कमी है और स्थिति इतनी भयावह है कि अंतिम संस्कार करने में असमर्थ लोग अस्थिकलशों के बजाय मृतकों के शव ही नदियों में प्रवाहित कर रहे हैं या उन्हें नदियों के तट पर रेत में दफन कर रहे हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि इस संक्रमण काल में हमारी नदियाँ रोजाना कितनी अस्थियां और राख पीने को विवश हैं। क्या इस विषम परिस्थिति में हमने अपनी मान्यताओं के विकल्प नहीं तलाशना चाहिए, जिससे हमारे जल स्रोत अक्षुण्ण रह सकें।
आप जानकर हैरान होंगे कि जल स्रोतों के प्रदूषण में भारत की स्थितियां यहां की जनता के विरोधाभासी आचरण के कारण सबसे ज्यादा दयनीय है। हम एक ओर नदियों को माँ कहकर पूजते हैं वहीं दूसरी और उनमें मल विसर्जन से लेकर सब कुछ विसर्जन करने में भी नहीं हिचकते। हमें लगता है कि नदियाँ तो हैं ही इस काम के लिए। उपलब्ध जानकारी के मुताबिक नीति आयोग के समग्र जल प्रबंधन सूचकांक 2018 के अनुसार, भारत में 600 मिलियन से अधिक लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, चेन्नई शहर अपने सबसे भयावह जल संकटों में से एक का सामना कर रहा है।
भारत में नदी जल की गुणवत्ता घातक स्तर पर आ चुकी है। नदी जल में कोलीफॉर्म बैक्टीरिया जैसे प्रदूषक इसे घरेलू उपभोग के लिए अयोग्य बनाते हैं। लगभग 70 फीसदी नदी जल प्रदूषित होने के कारण यूएनईपी के वैश्विक जल गुणवत्ता सूचकांक में भारत 122 देशों में 120 वें स्थान पर है। प्रदूषण के साथ जल की अप्राप्यता कृषि को प्रभावित करने के साथ खाद्य सुरक्षा और आजीविका के लिए जोखिम उत्पन्न कर रही है। समुद्री जीवन प्रदूषण के कारण सुपोषण, असंतुलित पीएच स्तर आदि ने समुद्री जीवन को प्रभावित किया है, जिससे नदियों में विविधता को क्षति हुई है। सबसे बड़ी बात तो ये है कि जल के गिरते स्तर के कारण समुद्र जल मुहाने से नदी में प्रवेश करता है, जिससे कई स्थानों पर भू-जल लवणीय हो जाता है।
अस्थि विसर्जन के अलावा हम अपनी नदियों को जिस तरह से दूषित कर रहे हैं उसमें हमारी जीवन शैली और तकनीकी ज्ञान की कमी भी है। भारत के शहरों में स्थापित सीवेज उपचार क्षमता अत्यंत सीमित है। सीमा-पार नदियों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्थितियां भी विषम हैं। सियांग नदी (तिब्बत) पर चीन की बांध-निर्माण गतिविधियों ने ब्रह्मपुत्र नदी को स्वच्छ करने के प्रयासों को प्रभावित किया है। दुःख की बात ये है कि भारत में नदी संरक्षण और नदी जोड़ो जैसे अभियान भी सियासी होकर रह गए हैं। ये अभियान भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुके हैं। अकेली गंगा के सांस्कृतिक महत्व के कारण 14 राज्यों को अन्य 32 नदियों के संरक्षण के लिए दिए गए 351 करोड़ की तुलना में उत्तर प्रदेश को वर्ष 2015 के बाद से 3, 696 करोड़ रुपये की समर्पित केंद्रीय निधि प्राप्त हुई है।
सरकारी आंकड़े कहते हैं कि गंगा-यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार अब तक 15 अरब रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है लेकिन उनकी वर्तमान हालत 20 साल पहले से कहीं बदतर हैI गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के बावजूद इसमें प्रदूषण जरा भी कम नहीं हुआ हैI करोड़ों रुपये यमुना की सफाई के नाम पर भी बहा दिए गए, मगर रिहायशी कॉलोनियों व कल-कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी का कोई माकूल इंतजाम नहीं किया गया।
हमारे मध्यप्रदेश में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से नर्मदा के जल की शुद्धता जांचने के लिए किए गए एक परीक्षण में पता चला है कि अमरकंटक में नर्मदा सबसे ज्यादा मैली है। सरकार द्वारा कराई जाने वाली जांचों के आंकड़े चौकाने वाले हैं। जानकार सूत्रों के अनुसार अमरकंटक और ओंकारेश्वर सहित अन्य स्थानों पर नर्मदा के जल में क्लोराइड और घुलनशील कार्बन डाईआक्साइड का स्तर खतरनाक श्रेणी तक पहुंच गया है। लगातार मिल रही गंदगी के कारण नर्मदा का पीएच भारतीय मानक 6.5 से 8.5 के स्तर से बढ़कर 9.02 पीएच तक पहुंच गया है। इस प्रदूषित जल को पीने से लोग पेट संबंधी बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। हमारे प्रदेश की सबसे अधिक स्वच्छ मानी जाने वाली चंबल नदी भी अब संकट में है।
फिलहाल मैं बात नदियों में अस्थि विसर्जन और मूर्ति विसर्जन को रोकने की कर रहा हूँ। क्या हमारे धर्माचार्य नदियों को बचाने के लिए विसर्जन का कोई दूसरा विकल्प खोज कर दे सकते हैं? मैंने दुनिया के दर्जनों देशों में जल स्रोतों को देखा है। मुझे ये कहते हुए कोई संकोच नहीं है कि छोटे-छोटे देशों के मुकाबले विश्वगुरु होने का दावा करने वाले हमारे भारत में नदियों, झीलों और तालाबों की दशा सबसे अधिक खराब है।
अगर भारत की नदियों के प्रदूषण का यही हाल रहा तो आने वाले समय में या तो ये गायब हो जाएँगी या नालों में परिवर्तित हो जाएँगी। इसलिए आवश्यक है कि हम खुद सुधरे, सरकारें तो सुधरने से रहीं। हम उन कल-कारखानों के खिलाफ खड़े हों जो नदियों को प्रदूषित कर रहे हैं। हम उन परम्पराओं को समय के हिसाब से बदलें जिनके कारण हमारी नदियां अंतिम साँसें ले रही हैं। हम अपनी नदियों को अगर सचमुच माँ की संज्ञा और सम्मान देते हैं तो नदियों में कागज, फूल-पत्ती, अस्थि, प्लास्टर ऑफ पेरिस और कल कारखानों के अपशिष्ट पदार्थ का एक कण भी न जाने दें।
नदियों के जल में साबुन तेल लगाकर न नहायें, मल विसर्जन न करें। अन्यथा जिन पावन नदियों के किनारे हमारी संस्कृति विकसित हुई थी, वो इन्हीं नदियों के किनारे समाप्त भी हो जाएगी। हमारे स्वर्गीय कवि वीरेंद्र मिश्र कहते थे- नदी के अंग काटेंगे, तो नदी रोयेगी। नदी को बहने दो.. नदी को बहने दो..। आइये अपनी नदियों को रोने से बचाएं। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
—————-
नोट- मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।– संपादक