अरुण कुमार त्रिपाठी
आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर और मशहूर अर्थशास्त्री वी. उपाध्याय ने भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में दो दिन पहले आए विश्व बैंक के आकलन को आधा अधूरा बताया था। उनका कहना था कि विश्व बैंक का आकलन वास्तविकता पर आधारित नहीं है। हकीकत में आने वाले वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर 1.5 या 2.8 प्रतिशत नहीं रहने वाली है। वह तो नकारात्मक होने वाली है क्योंकि मार्च में तो सब कुछ ठप हो गया था। एक दिन पहले ब्रिटिश मल्टीनेशनल और इन्वेस्टमेंट बैंक बार्कलेज ने भी भारत की विकास दर जीरो (0.8) पर निर्धारित की है। जबकि वैश्विक विकास दर (-) 3.0 प्रतिशत तक गिरने की आशंका है। यह स्थिति पूंजीवाद के और तानाशाह होने की ओर भी जाती है और लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलन के उभार की ओर भी। यह हर देश और काल की परिस्थिति पर निर्भर करता है।
विश्व बैंक ने कहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 के बाद विकास के सबसे निचले स्तर पर आएगी। उसके अनुसार 2020-2021 में भारत की विकास दर 1.5 से 2.8 प्रतिशत तक आ सकती है। ध्यान देने की बात है कि पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पहले ही छह प्रतिशत तक दावा की जाने वाली विकास दर को दो प्रतिशत कम करके देखने का सुझाव दे रहे थे। विश्व बैंक के अलावा अन्य वित्तीय संस्थाओं ने भी जो अनुमान लगाया है वह 1.6 प्रतिशत से 4.0 प्रतिशत के बीच है। सबसे ज्यादा अनुमान एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) का 4.0 प्रतिशत है तो सबसे कम 1.6 गोल्डमैन सैक्स का है। जबकि आईएमएफ का अनुमान 1.9 प्रतिशत का है।
प्रोफेसर वी. उपाध्याय के अनुमान को विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) का भी समर्थन हासिल है। आईएलओ का अनुमान है कि कोरोना के कारण जो तालाबंदी हुई है उससे 40 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे आ सकते हैं। संगठन का कहना है कि भारत के 90 प्रतिशत श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। तालाबंदी से अनौपचारिक क्षेत्र ठप हो गया है और इसमें काम करने वाले बेरोजगार हो गए हैं। सेंटर फार मॉनीटरिंग इंडियन इकानामी (सीएमआईई) की रपट कहती है कि भारत में जो बेरोजगारी पहले ही 45 साल के सबसे उच्च स्तर यानी 10 से 15 प्रतिशत के आसपास थी आज वह शहरी क्षेत्र में 30 प्रतिशत और गांव में 20 प्रतिशत तक चली गई है।
तालाबंदी के बाद अपने घरों के लिए निकल पड़े मजदूरों और कर्मचारियों की पीड़ा तो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई ही पड़ी थी लेकिन जो लोग सरकार के आदेश का पालन करते हुए और आश्वासन पर भरोसा करते हुए दिल्ली, सूरत और मुंबई जैसे शहरों में रुक गए थे वे अब रक्त के आंसू रो रहे हैं। उन्हें पेट भर भोजन नहीं मिल रहा है और मांगने पर धमकाने और मारपीट की हरकतें हो रही हैं। दिल्ली के शेल्टर होम में खाने को लेकर मारपीट हुई और एक व्यक्ति यमुना में कूद पड़ा। बाद में मारपीट हुई और शेल्टर होम को आग लगा दी गई और कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।
यही स्थिति सूरत में भी हुई जहां खाना न मिलने पर लोगों ने प्रदर्शन किया और उन पर लाठी चार्ज हुआ। मुंबई में बांद्रा स्टेशन पर मंगलवार को हजारों लोग इस उम्मीद से आ गए कि उन्हें घर जाने के लिए ट्रेन मिल जाएगी। ट्रेन तो नहीं मिली लेकिन जब वे लौटने को तैयार नहीं हुए तो लाठियां बरसने लगीं।
बेरोजगारी का यह हाहाकारी दृश्य सिर्फ भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में उपस्थित है। आईएमएफ के अनुमान के अनुसार अमेरिका (-5.9), यूके (-6.5), जापान (-5.2), फ्रांस (-7.2),रूस (-5.5) जैसे कई देशों की विकास दर नकारात्मक रहने का अनुमान है। इसमें चीन और भारत ही हैं जहां क्रमशः 1.2 और 1.9 का अनुमान लगाया जा रहा है। अमेरिका जैसे देश में जहां की अर्थव्यवस्था पिछले दिनों तेजी से आगे बढ़ रही थी वहां एक झटके में सोलह लाख लोग बेरोजगार हुए हैं और बेरोजगारी भत्ते की मांग कर रहे हैं। यह दृश्य दिल्ली से लास एंजिलिस तक फैला हुआ है।
लेकिन विकसित और विकासशील देशों में इसका प्रभाव एक जैसा नहीं है और न ही उससे निपटने की क्षमता और तरीका। एक तो यह 2008 से भी बुरा समय है और दूसरी बात यह है कि विकसित देशों ने इससे निपटने के लिए अपने केंद्रीय बैंकों के खजाने खोल दिए हैं। जबकि विकासशील देश अभी लोगों को भोजन देने और जांच करा पाने की प्रक्रिया से ही संघर्ष कर रहे हैं। यूएस फेडरल रिजर्व, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और बैंक आफ इंग्लैंड ने बहुत सारे पैकेजों की घोषणाएं कर दी हैं और यही कारण है कि उनका गिरता हुआ शेयर मार्केट ऊपर उठने लगा है। विकसित देशों में सामाजिक सुरक्षा की पर्याप्त योजनाएं हैं जो अपने नागरिकों की बढ़ चढ़ कर मदद कर रही हैं।
भारत में सेवा क्षेत्र जैसे परिवहन, होटल और रेस्तरां वाले उद्योग बैठ गए हैं। फिर भी भारत दुनिया का ऐसा अपवाद है जहां असाधारण रूप से तालाबंदी की गई है। प्रधानमंत्री ने 14 अप्रैल को 19 दिन और बढ़ाकर सुरक्षा के साथ बेचैनी भी पैदा की है। जिस पाकिस्तान से हम अपनी तुलना और होड़ करते हुए थकते नहीं वहां की सरकार ने भी प्रमुख उद्योगों का चक्का जाम नहीं किया है। तुर्की में 20 से 65 साल के लोग अभी भी काम पर जा रहे हैं। इंडोनेशिया ने भी धीमी गति से तालाबंदी लागू की है क्योंकि उन्हें आर्थिक मंदी का खौफ है। दक्षिण कोरिया ने तो तालाबंदी की बजाय टेस्ट करने की क्षमता पर भरोसा किया और नए मामले रोक लिए। यहां तक कि ब्राजील के बोलसोनारो ने भी कहा है कि एक दिन हम सब को मरना है।
भारत ने हाल में जो श्रम सुधार किए हैं उन्होंने भी मजदूरों की दशा को बिगाड़ा ही है। उन सुधारों ने अनौपचारिक सेक्टर में सुरक्षा देने की बजाय नियोक्ताओं को मनमानी करने की छूट दे दी है। इस बात को अन्य ट्रेड यूनियनों समेत भारतीय मजदूर संघ जैसे संगठनों ने भी स्वीकार किया था। हालांकि श्रम मंत्रालय ने मजदूरों के वेतन संबंधी समस्याओं के हल के लिए 20 कंट्रोल रूम बनाए हैं जहां पर चीफ लेबर कमिश्नर रैंक के अधिकारी तैनात किए गए हैं। वे कितनों का वेतन दिला पाए कहा नहीं जा सकता। इस बीच 8 करोड़ भारतीयों के खाते में पीएम-किसान योजना के तहत सीधे 16,000 करोड़ रुपए हस्तांतरित किए गए हैं। लेकिन यह राशि क्या कोरोना से आने वाली मंदी से निपटने के लिए पर्याप्त है? शायद नहीं।
कोरोना का संक्रमण अभी शांत नहीं हुआ है और कब शांत होगा कहा नहीं जा सकता। लेकिन गरीबी का दुष्चक्र तेजी से घूम रहा है। कोरोना से पहले देश राष्ट्रवाद बनाम अल्पसंख्यक अधिकारों के विवाद में उलझा था अब वह गरीबी और अनुशासन के बहाने चलने वाले दमन के बीच उलझेगा। एक तरह से राजनीति के क्षेत्र में गरीबी के एजेंडे की वापसी हो रही है। देखना है कि आने वाले समय को वह कितना बदल पाती है? इस बात की संभावना है कि गरीबी राष्ट्रवाद और पर्सनालिटी पर आधारित नेतृत्व की पिछलग्गू बन जाए या फिर सभी को अपना पिछलग्गू बना ले। यह स्थिति पूंजीवाद के और तानाशाही की ओर जाने की भी है और लोकतांत्रिक समाजवादी आंदोलनों की वापसी की भी है।
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