राकेश अचल
सियासत बहुत बुरी चीज हो गयी है। सियासत को किसी के इकबाल की फ़िक्र नहीं है। बेफिक्र सियासत ने एक के बाद एक सभी का इकबाल खतरे में डाल दिया है। अब इनसान तो छोड़िये, संवैधानिक संस्थाएं तो छोड़िये बेचारी मशीनों तक का इकबाल असुरक्षित है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के फौरन बाद माननीय प्रधानमंत्री जी के चुनाव क्षेत्र बनारस में पकड़ी गयी ईवीएम की खेप बताती है कि अब ईवीएम को खिलौना बनाकर मनमाने ढंग से उसका इस्तेमाल करने की कोशिश की जा रही है।
भारत में ईवीएम की शुरुआत दुर्भाग्य से 2014 के पहले हो गयी थी। ईवीएम का पंजीयन 1980 में इंदिरा गांधी के जमाने में किया गया था। 1982 में प्रयोग के तौर पर केरल के पारावुर विधानसभा क्षेत्र के 50 मतदान केंद्रों पर इसका इस्तेमाल किया हुआ था। लेकिन इसकी विश्वसनीयता पर उस समय उंगली उठायी गयी थी और वो चुनाव विवादों में आ गया था। इस मशीन की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मतदान खारिज कर दिया था। अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ईवीएम को तब तक इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जब तक इस पर कोई स्पष्ट कानून ना बने।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद 1988 में संसद ने पहली बार जन प्रतिनिधित्व क़ानून 1951 में संशोधन किया गया और ईवीएम के इस्तेमाल की मंज़ूरी दे दी गई। नवंबर 1998 में प्रयोग के तौर 16 विधानसभा सीटों पर इस मशीन का इस्तेमाल किया गया। तब मध्य प्रदेश और राजस्थान में 5-5 सीटों पर और दिल्ली में 6 सीटों पर इस मशीन को आजमाया गया था। इसके बाद 2001 में तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में सभी सीटों पर ईवीएम का प्रयोग हुआ और फिर 2004 के लोकसभा चुनाव में पहली बार पूरे देश ने ईवीएम के ज़रिए अपना वोट दिया था।
कागज के मतपत्र के बाद हम मशीन का बटन दबाकर मतदान तो करने लगे लेकिन इस मशीन से छेड़छाड़ की शिकायतें हर समय बनी रहीं। बात आगे बढ़ी और अब इस मशीन की अदला-बदली के मामले भी प्रकाश में आने लगे हैं। बनारस का मामला एकदम ताजा है। आमतौर पर सत्तारूढ़ दल कहते हैं कि विपक्ष जब हारने लगता है तब मशीनों की विश्वसनीयता या उसके साथ छेड़छाड़ का आरोप लगता है। मशीन पर यकीन न करने वाले केवल राजनेता ही नहीं बल्कि शायर भी होते हैं। एक शायर ने लिखा था-
लहू में भीगी हुई आस्तीन जीत गयी
चुनाव हार गए, हम मशीन जीत गयी
मशीनी युग में यदि मशीन अविश्वसनीय हो जाये तो मुश्किल बढ़ना स्वाभाविक है। सियासत ने केवल चुनावों को ही मशीनों के हवाले नहीं किया, अपितु पूरा सिस्टम ही मशीनों के हवाले कर दिया गया है। समस्याएं इतनी विकराल हो गयी हैं कि आम आदमी सबकुछ भूलकर मशीन बन गया है। उसके पास सियासत से जूझने का न समय है और न माद्दा। आप कह सकते हैं की आम आदमी ने मशीनों के समाने समर्पण कर दिया है। समर्पण न करे तो बेचारा करे क्या? संवैधानिक संस्थाएं पहले ही सत्तारूढ़ दलों के लिए या तो तोता-मैना बन गयी हैं या उन्हें केंचुआ कहा जाने लगा है। मशीनों को क्या कहा जायेगा अभी बताना कठिन है।
बनारस में ईवीएम मशीनों की खेप पकड़े जाने के बाद विपक्ष आक्रामक है। विपक्ष का कहना है कि जब तक बनारस के डीएम और कमिश्नर को नहीं हटाया जाता, हम मतगणना नहीं होने देंगे। विपक्ष का गुस्सा जायज है। सवाल यही है कि आखिर ये मशीनें आयीं कहाँ से? इन्हें लाया कौन? और क्यों लाया? मशीनें आखिर मशीनें होती हैं। उनकी अपनी सीमा होती है, मशीनों का अपना दिमाग नहीं होता। वे रिमोट से चलाई जाती हैं। रिमोट जिसके हाथ में होता है उसके इशारे पर नाचती हैं। उन्हें नहीं मतलब कि रिमोट किसके हाथ में है, वो परिवारवादी है या अंधभक्त।
आफत की जड़, लेकिन लोकतंत्र को आधुनिक बनाने वाली ईवीएम मशीन का आविष्कार वर्ष 1898 में अमेरिका के गिलेस्पी और जैकब मायर्स ने किया था। मायर्स ने एक वोटिंग मशीन का पहला प्रदर्शन 1892 लॉकपोर्ट, न्यूयॉर्क शहर के चुनाव में किया। हालाँकि ईवीएम के माध्यम से पारदर्शिता, चुनाव की प्रकिया की सरलता, 90 फीसदी से अधिक सुरक्षा, एवम् समय के साथ परिवर्तन को सुनिश्चित किया जा सकता है, किया जा रहा है। मजे की बात ये है कि इस मशीन के अनेक लाभ के होने के बावजूद अनेक देशों ने इस पर प्रतिबंध लगा रखा है। उनका मानना है कि यह लोकतांत्रिक पद्धति नहीं है या असंवैधानिक है। प्रतिबंध लगाने वाले प्रमुख देशों में अमेरिका, इंग्लैंड, नीदरलैंड एवं जर्मनी आदि प्रमुख हैं।
बहरहाल मशीन के जरिये कोई चुनाव जीते या हारे, हमें इससे कोई लेनादेना नहीं है। हमारी फ़िक्र ये है कि मनुष्य की तरह मशीन की साख को कोई बट्टा नहीं लगना चाहिए। पांच राज्यों में राजनीतिक दलों के लिए आज ‘कत्ल की रात’ है। इस कातिल रात में ही मशीनों की इज्जत-आबरू को सबसे ज्यादा खतरा रहता है। बनारस में विपक्ष मशीनों पर दूरबीनों से नजर रख रहा है। आप भी जहाँ हैं नजर रखें। आमीन!
(मध्यमत)
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