आज यादें
ले चली हैं मुझे
तुम्‍हारे बचपन की दिवाली की तरफ
याद है मुझे
जब पहली बार
पकड़ी थी तुमने फुलझड़ी
कुछ डरते, कुछ झिझकते हुए
और जब  
उससे उड़ने वाली चिनगारियां
आ लगी थीं तुम्‍हारे नन्‍हे हाथों पर
तुमने वहीं गिरा दी थी
वो जलती हुई फुलझड़ी
डर और घबराहट में कहा था तुमने-
‘’ताता हो गई पापा’’
मैंने तुम्‍हारी कोमल हथेलियों को
अपने होठों से सहला कर
चुप कराया था तुम्‍हें।
पहना दिए थे मोजे नन्‍हे हाथों पर
ताता होने से बचाने के लिए
और फिर तुमने मजे मजे में
जला डाली थीं
जाने कितनी फुलझडि़यां।
लेकिन उस दिन
जब मैं तुम्‍हारी समूची देह
कर रहा था
अग्नि को समर्पित
तुम मौन थे…
चाहता था मैं
तुम चीखो उसी तरह
कहो मुझसे
‘’ताता हो रही है पापा’’
लेकिन चुपचाप बुझ गए तुम
किसी फुलझड़ी की तरह…
एक छोटी सी चिनगारी
तुम्‍हें छू जाने पर
तड़प उठने वाला मैं
स्‍वयं अग्नि को सौंप रहा था तुम्‍हें
और तुम खमोश थे
नहीं पूछ सका उस दिन
कुछ भी तुमसे
आज
इतने दिनों बाद
पूछना चाहता हूं
उत्‍तर दो बेटा…
शिकायत करो…
सुनना चाहता हूं तुमसे
फिर वही बात- 
‘’ताता हो गई पापा…’’
भले ही सहला न पाऊं अब
तुम्‍हारी देह अपने होठों से।
तुम्‍हारी यादों पर ही लगा दूंगा
थोड़ा सा मरहम
अपनी आंखों से…

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