संगीत का संवाहक एक सम्राट: तानसेन

राकेश अचल

देश में सत्ता के सर्वोच्च सिंहासन पर बैठकर सम्राट बनना एक बात है और बिना सत्ता के ही सम्राट जैसा सम्मान हासिल करना दूसरी बात है। आज हम दूसरे तरह के सम्राट का जिक्र छेड़ रहे हैं, क्योंकि कल 26 दिसंबर से ग्वालियर में उनकी समाधि पर चार दिन का संगीत महाकुम्भ आरम्भ होने जा रहा है।

तानसेन एक वास्तविकता भी रहे और एक किंवदंती भी बन गए। कोई पांच शताब्दी पहले ग्वालियर के समीप स्थित गांव बेहट में जन्मे तानसेन के बारे में अनेक किंवदंतियां है। बेहट गाँव ग्वालियर से 45 किमी दूर है। मकरंद पाण्डे के घर जन्मे तानसेन का बचपन का नाम ‘तन्ना’ था, तन्ना मिश्रा यानि ‘मिसर’ कहे जाते थे। कहते हैं कि बचपन में तन्ना का कंठ अवरुद्ध था। वे ढंग से बोल नहीं पाते थे, गाना-बजाना तो दूर की बात है। बचपन में वे गांव के समीप झिलमिल नदी के किनारे स्थित एक प्राचीन शिवमंदिर में जाते तो अपनी पालतू बकरियों का दूध निकाल कर शिव जी का अभिषेक कर देते और उनसे अपना स्वर मांगते।

कहा जाता है कि एक दिन ब्रह्मवाणी हुई कि ‘तन्ना तान खींचो’ तन्ना ने प्रयास किया तो अचानक उनका स्वरावरोध दूर हो गया और कंठ से कर्कश स्वर निकल पड़ा, जिसे बाद में तन्ना ने सतत अभ्यास से मधुर बना लिया। बाल्यावस्था में ही तन्ना, गुरु स्वामी हरिदास की शरण में आ गए। स्वामी हरिदास के कठोर अनुशासन में एक हीरे सा परिष्‍कार पाकर वे धन्य हो गए। तानसेन की आभा से तत्कालीन नरेश व सम्राट भी विस्मित थे और उनसे अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिये निवेदन करते थे।

तानसेन पहले ग्वालियर के तोमरों के यहां, बाद में रीवा रियासत में राज गायक रहे और यहीं से वे मुगलिया दरबार पहुँच गए। तानसेन की प्रतिभा से बादशाह अकबर भी स्तम्भित हुए बिना न रह सके। बादशाह की जिज्ञासा यह भी थी कि यदि तानसेन इतने श्रेष्ठ हैं तो उनके गुरु स्वामी हरिदास कैसे होंगे। यही जिज्ञासा बादशाह अकबर को वेश बदलकर वृन्दावन की कुंज-गलियों में खींच लाई थी।

कहते हैं कि तानसेन जब संगीत का ककहरा सीख रहे थे तब ग्वालियर में राजा मानसिंह तोमर का शासन था। मानसिंह कलाप्रिय और संगीत रसिक राजा थे, उन्होंने स्वयं अनेक संगीत रचनाएं की थी। वे संगीत की धमार और ध्रुपद शैली में लिखते भी थे। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। राजा मानसिंह तोमर की मृत्यु होने और विक्रमाजीत से ग्वालियर का राज्याधिकार छिन जाने के कारण यहां के संगीतज्ञों की मंडली बिखरने लगी।

तब तानसेन भी वृंदावन चले गये और वहां उन्होंने स्वामी हरिदास जी एवं गोविन्द स्वामी से संगीत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। संगीत शिक्षा में पारंगत होने के उपरांत वे शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खां के आश्रय में रहे। इसके पश्चात बांधवगढ़ (रीवा) के राजा रामचन्द्र के दरबारी गायक नियुक्त हुए। मुगल सम्राट अकबर ने उनके गायन की प्रशंसा सुनकर उन्हें अपने दरबार में बुला लिया और अपने नवरत्नों में स्थान दिया।

तानसेन के समकालीन और अकबर के नवरत्नों में से एक अब्दुल रहीम खानखाना ने तानसेन की प्रतिभा से प्रभावित होकर एक दोहा लिखा कि “विधिना यह जिय जानि के, शेषहि दिये न कान। धरा मेरु सब डोलिहैं,  सुनि तानसेन की तान।” यही दोहा बाद में किंवदंती बन गया। तानसेन ने राग मल्हार में कोमल गांधार और निषाद के दोनों रूपों का बखूबी प्रयोग किया। तानसेन को मियां की टोड़ी के आविष्कार का भी श्रेय है। कंठ संगीत में तानसेन अद्वितीय थे। अबुल फजल ने ‘आइन-ए-अकबरी’ में तानसेन के बारे में लिखा है कि “उनके जैसा गायक हिंदुस्तान में पिछले हजार वर्षों में कोई दूसरा नहीं हुआ है” उन्होंने जहाँ ‘मियां की टोड़ी’ जैसे राग का आविष्कार किया, वहीं पुराने रागों में परिवर्तन कर कई नई-नई सुमधुर रागनियों को जन्म दिया। ‘संगीत सार’ और ‘राग माला’ नामक संगीत के श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना का श्रेय भी तानसेन को है।

तानसेन के जन्म और निधन की तिथि को लेकर कोई एकमत नहीं है। इसकी वजह साक्ष्य का अभाव है। कुछ विद्वानों के अनुसार अकबर की कश्मीर यात्रा के समय 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लाहौर में इस महान संगीत मनीषी ने अपनी इह लीला समाप्त की। वहीं कुछ विद्वानों का मत है कि उनका देहावसान 16वीं शताब्दी में आगरा में हुआ था। तानसेन की इच्छानुसार उनका शव ग्वालियर लाया गया और यहां प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार के पास ही इस संगीत सम्राट को समाधिस्थ कर दिया गया।

तानसेन की समाधि ग्वालियर में हजीरा क्षेत्र में मुस्लिम फकीर मुहम्मद गौस की विशाल दरगाह के पास है। यहीं उन्नीसवीं शताब्दी में स्थानीय नगरवधुएं उर्स का आयोजन अपने स्तर पर करती थीं। पूरे हफ्ते वे यहां गाती-बजातीं, नाचती थीं। बाद में यहां शास्त्रीय संगीत के अनेक साधक भी अपनी हाजरी देने आने लगे। सिंधिया के शासनकाल में भी ये सिलसिला चलता रहा।

रियासतकाल में फरवरी 1924 में ग्वालियर में उर्स तानसेन समारोह के रूप में शुरू हुआ, हालांकि इस आयोजन के लिए रियासत की ओर से 1904 में ही राज सहायता दी जाने लगी थी। आजादी के बाद शासन ने इस समारोह की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली और बुनियादी व्यवस्थाएं उपलब्ध कराई जाने लगीं। इस समारोह का आगाज हरिकथा व मौलूद (मीलाद शरीफ) के साथ ही हुआ था। तब से अब तक इसी परंपरा के साथ तानसेन समारोह का आगाज होता आया है। इतनी सुदीर्घ परंपरा के उदाहरण बिरले ही हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनादि परंपरा के श्रेष्ठ कला मनीषी तानसेन को श्रद्धांजलि व स्वरांजलि देने के लिये ग्वालियर में मनाये जाने वाले तानसेन समारोह ने 95 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली है। इस समारोह की सबसे बड़ी खूबी सर्वधर्म समभाव और इससे जुड़ी अक्षुण्ण परंपराएँ हैं।

तानसेन समारोह का प्रारंभ शहनाई वादन से होता है। इसके बाद ढोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ का गायन। सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार पर चादर पोशी भी होती है। ढोली बुआ महाराज अपनी संगीतमयी हरिकथा के माध्यम से कहते हैं कि धर्म का मार्ग कोई भी हो, सभी ईश्वर तक ही पहुंचते हैं। उपनिषद् का भी मंत्र है “एकं सद् विप्र: बहुधा वदन्ति” इस साल भी कोरोना संकट के बावजूद तानसेन समारोह का आयोजन 95 साल से चली आ रही परम्पराओं का पालन करते हुए 26 से 30 दिसम्बर तक हो रहा है।

हर जाति,  धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले श्रेष्ठ व मूर्धन्य संगीत कला साधकों ने कभी न कभी इस आयोजन में अपनी प्रस्तुति जरूर दी है। इस समारोह में देश के प्राय: सभी नामचीन्ह संगीतज्ञ अपनी हाजरी लगा चुके हैं। मैंने श्रीमती गंगूबाई हंगल, पंडित रविशंकर, मल्लिकार्जुन मंसूर, उस्ताद बिस्मिल्ला खान, पं. भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर सरोद वादक अमजद अली खाँ,  संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा, असगरी बाई, मोहनवीणा वादक पं. विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीतकारों को यहीं सुना।

वर्ष 1989 में तानसेन समारोह में शिरकत करने आये भारत रत्न पंडित रविशंकर ने कहा था ‘’यहां एक जादू सा होता है,  जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है।” एक बार मशहूर पखावज वादक पागलदास भी तानसेन उर्स के मौके पर श्रद्धांजलि देने आये, लेकिन रेडियो के ग्रेडेड आर्टिस्ट नहीं होने के कारण समारोह में भाग नहीं ले सके। उन्होंने तानसेन की मजार पर ही बैठ कर पखावज का ऐसा अद्भुत वादन किया कि संगीत रसिक मुख्य समारोह से उठकर उनके समक्ष जा कर बैठ गये।

संगीत शिरोमणि तानसेन की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के लिए मध्यप्रदेश शासन द्वारा सन 1980 में राष्ट्रीय तानसेन सम्मान की स्थापना की गई। वर्ष 1985 तक इस सम्मान की राशि पाँच हजार रुपये थी। वर्ष 1986 में इसे बढ़ाकर पचास हजार रुपये कर दिया गया। उस समय प्रदेश में लता मंगेशकर सम्मान की राशि एक लाख रुपये थी। मैंने जब इस बारे में तत्कालीन रेल मंत्री स्वर्गीय माधवराव सिंधिया का ध्यान आकर्षित कराया तो उन्होंने हस्तक्षेप कर राज्य शासन से इस राशि को वर्ष 1990 में एक लाख रूपये करा दिया। इस सम्मान में नगद राशि के साथ ही प्रशस्ति पट्टिका भी भेंट की जाती रही है। बाद में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पुरस्कार राशि बढ़ाकर दो लाख रुपये कर दी।

अभी तक तानसेन सम्मान से देश के ख्यातिनाम 49 कलाकार सम्मानित किये जा चुके हैं। और मैं सौभाग्य से इन सभी समारोहों का साक्षी रहा हूँ, मैंने इस समारोह में पहली हाजरी 1972 में लगाई थी। इस तरह मुझे यहां आते हुए 48 साल पूरे हो गए हैं जो एक कीर्तिमान है। इस बार मुझे दिसंबर में अमेरिका जाना था, लेकिन मैंने केवल तानसेन समारोह की वजह से ही अपनी यात्रा को एक माह आगे बढ़ा दिया।

राष्ट्रीय तानसेन समारोह की विशेषता ये रही है कि पहले राज्याश्रय बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिये। यह समारोह सदैव भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्षी बना है। आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहां गुरु शिष्य परंपरा लगभग ओझल हो गई है। भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परंपरा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। पिछले कुछ वर्षों से तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परंपरा के साथ ही विश्व के अनेक संगीतज्ञों की भागीदारी होने लगी है। इससे समारोह का स्वरूप वैश्विक हो गया है।

संगीत सम्राट तानसेन की ख्याति ही है कि कहा जाने लगा है की ग्वालियर में यदि बच्चे भी रोते हैं तो सुर में और पत्थर लुढ़कते है तो ताल में। आइये आप भी इसका अनुभव कीजिये।

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