विजयमनोहर तिवारी
यह मूल कॉपी करीब 15 हजार शब्दों की है, जो सिर्फ कल्पेश याज्ञनिक के साथ काम और उनसे कई साल लंबे परिचय के अनुभव हैं। … दो साल पहले उन्हें इंदौर में आग को समर्पित करके लौटने पर यह अनुभव मैंने तत्काल लिखे। आगे आप जो पढ़ेंगे, वह इसी कॉपी का एक छोटा सा अंश है।
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… मेरा अनुभव था कि डिप्टी एडिटर, एडिटर, स्टेट एडिटर, ग्रुप एडिटर, ग्लोबल एडिटर और प्रबंधन की अलग-अलग पायदानों के ऊंचे क्रम के अलावा भी आपस में बराबर की परतों में इतने लोचे थे कि मेरा तो मोहभंग ही था। कोई कितना भी बड़ा एडिटर हो, मेरी नजर में वह एक सिर्फ एक नेमप्लेट भर थी। एक विजिटिंग कार्ड या अखबार के पीछे सबसे नीचे छपने वाली एक प्रिंट लाइन में बेहद छोटे आकार में लिखे चंद शब्द। बस!
मेरी कोई आस्था इसमें बची नहीं थी। नेताओं और अफसरों में अपने पद की धाक जमाने में यह पोजीशन भले ही मददगार थी मगर अंदर की बात यह है कि यह पहले से तय फार्मेट में न्यूज प्रेजेंटेशन और मैनेजिंग टाइप का काम था, जिसमें आपको दूसरों के किए बेहतरीन काम को अपने खाते में कैश करने की लूट के हुनर में माहिर होना जरूरी था। यह मेरी फितरत में ही नहीं था। मैं अपने परिश्रम का पाऊं और मेरे साथी अपनी मेहनत का मीठा फल चखें।
सुपात्रों के हक हड़पने की चतुराई मैंने कभी सीखी नहीं थी। इसलिए मैंने खुद को ही इसके काबिल नहीं माना। मैं क्या खाक नहीं मानता कल्पेशजी ने ही नहीं माना। आकाशीय संदेश से ही ज्ञात हुआ कि इंदौर के लिए मेरे नाम पर उन्हें सख्त आपत्ति थी। थोड़े दिन में जोधपुर से मुकेश माथुर पदासीन हुए। संस्कार वैली की बैठकों में मुकेशजी के प्रदर्शन बहुत प्रभावी हुआ करते थे। यह सिर्फ कल्पेशजी की मेहरबानी भर नहीं थी। मुकेशजी की मेहनत से इंकार नहीं है। अपने लिए मैंने हमेशा वेदों की इस बात पर भरोसा किया कि भाग्यम् फलति सर्वदा!
मार्च 2018 में भोपाल एडिशन में आए मुझे तीन साल पूरे हो चुके थे। मई के पहले हफ्ते में अवनीश जैन ने प्रसन्न मन से एक दिन इत्तला दी कि कल्पेशजी से बात कर लेना। हवाओं में किसी संभावित बदलाव की महक पहले से थी। उनकी सूचना का मतलब था कि मेरे बारे में कोई फैसला सुनने की घड़ी आ गई है। मैं हमेशा ही ऐसी किसी भी परिस्थिति के लिए दिमागी तौर पर तैयार रहता हूं, इसलिए ऐसे किसी मौके पर एक संतुलित स्थिति बनी रहती है। हादसे में किसी की मौत या ऐसी कोई भी खबर मुझे हर रोज दुनिया की नश्वरता का गहरा अहसास करा देती है। तब मैं बहुत तटस्थ हो जाता हूं। कोई मोह नहीं बांध पाता। जोर का झटका धीरे से लगता है।
मैंने बेफिक्र होकर उसी रात उनसे फोन पर बात की। जैसा अंदेशा था वही सुना। मुझे अब भोपाल से विदा होना था। लेकिन मैंने इत्मीनान से उनसे कहा कि इस बारे में आपसे मिलकर बात करना चाहूंगा, फोन पर नहीं। अगले दिन शनिवार था। सोमवार मेरे अवकाश का दिन होता था। मैंने मंगलवार को इंदौर ऑफिस में आकर मिलने की गुजारिश की। वे राजी हो गए।
उनके साथ पांच साल काम के दौरान दो साल मैं भी इंदौर एनआईएन में रहा था। आठ मई की शाम पांच बजे मैं तय समय पर इंदौर के कैम्पस में दाखिल हुआ। वे सीढ़ियों के नीचे बाहर ही किसी से फोन पर बात करते हुए खड़े मिल गए। मुझे देखकर मुस्कुराए। ऊंट पहाड़ के नीचे आ रहा था। उन्होंने फोन दूरकर मुझे इशारा किया कि मैं ऊपर इंतजार करूं।
एक अरसे बाद मैं उनके ऑफिस की सीढि़यां चढ़ रहा था। बाईं तरफ दीवार पर संडे जैकेट, दीवाली और नए साल के वे फ्रेम टंगे थे, जिनमें मैंने काम किया था। सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मैं उन्हें गौर से देखता हुआ गया और पुराना दौर ताजा हुआ। ऑफिस में वे आते तब तक अपने चंद पुराने और ज्यादातर नए साथियों से मिलता रहा।
मुझे यहां से गए तीन साल से ज्यादा हो गए थे। इस बीच काफी कुछ बदल गया था। पहली ही नजर में मुझे नेशनल आइडिएशन न्यूजरूम एक उजाड़ सी जगह लगी। अगर पुलिस के हेडक्वार्टर से तुलना करूं तो जहां एक डीजीपी बैठे हों और बाकी सब कांस्टेबल। जबकि मेरा मानना था कि जहां कल्पेश याग्निक जैसे ग्रुप एडिटर बैठे हों वहां हुनरमंद संपादकों, तेजतर्रार रिपोर्टरों, कॉपी के जानकार, अनुभवी फोटो एडिटर, नामचीन कार्टूनिस्ट और दक्ष डिजायनरों की एक जबर्दस्त टीम होनी ही चाहिए थी।
देश के सबसे बड़े अखबार के सबसे बड़े संपादक के दफ्तर में उनके साथ काम करने वाले देश के सबसे शानदार पत्रकारों की एक रौनकदार गैलेक्सी। मगर यह मेरी कल्पना ही थी। मेरे बाद आए कई जूनियर भी दो-एक साल में यहां से जा चुके थे। जैसे सोनिया तोमर, आदित्य पूजन, उपमिता वाजपेयी, नेहा दूसा और जोधपुर से आई एक और रिपोर्टर जिसका नाम भूल गया हूं। कोई यहां लंबे समय नहीं टिका था। धीमी गति की भगदड़ मची ही रहती थी।
मैंने देखा कि कल्पेशजी के आसपास तमाम नौसिखिए और सिर्फ हां में हां मिलाने वाले लोग ही अपना समय काट रहे थे। सबको सब पता है, यह मानकर किसी के नाम नहीं लूंगा। ज्यादातर इंदौर के थे। कुछ बाहर के थे। कुछ सजायाफ्ता की तरह यहां भेज दिए गए थे, कुछ एडिशन से जबरन लाए गए थे या किसी एडिशन के बंद होने के बाद यहां पनाह पाकर नए माहौल में अपनी खाल बचाए हुए थे। इनके लिए बॉस को हर हाल में खुश रखना एक मजहबी कायदा था।
कुछ ही पुराने साथी थे, जिन्हें अपने विषयों की बेहतर समझ थी और अहम जिम्मेदारियां उनके पास थीं मगर वे कभी बॉस के इनर सर्कल में नहीं थे। उनकी सबसे बड़ी कमी यह थी कि वे जी-हजूरी नहीं कर सकते थे। उन्हें सिर्फ अपने काम से मतलब था। वे गलत बात को सही कहने और दिन को रात बताने पर तारे नजर आने के दावे नहीं कर सकते थे। उनका यहां होना किसी बड़े अखबार में होने के गर्व का विषय कम और दूसरे विकल्प न होने की मजबूरी ज्यादा थी। वे बुझे मन से यहां विराजे हुए थे। दरबार हॉल में टंगी बुझी हुई लालटेनें।
इस शक्ल में नेशनल आइडिएशन न्यूजरूम में कल्पेशजी की मौजूदगी बहादुरशाह जफर के हिंदुस्तान सी थी। कहने को वे मुगल बादशाह थे, मगर सल्तनत दिल्ली के लाल किले के दायरे में सिमट चुकी थी, जहां चंद चिलम भरने वाले लोग ही थे। ऐसे कायरों की सोहबत ही थी कि मुगल बादशाह एक दिन यहां तक कमजोर हो गया कि हुमायूं के मकबरे के अंधेरे तहखानों में छिपा हुआ पाया गया।
मैंने शरद गुप्ता के समय के पुराने दिनों की टीम के बारे में कल्पना करते हुए कल्पेशजी का इंतजार किया और वक्त की नजाकत को समझने के लिए जो चंद सीनियर साथी थे, उनके साथ बातचीत करता रहा। आधा पौन घंटा बाद वे प्रकट हुए। उनके आते ही उनके सबसे सजग सहायक शक्तिबोध भटनागर दो कागज हाथ में लिए नजर आए और उनकी मेज तक जाकर लौटे। टेबल से उनके हिलते ही मैं अदब से अपना फैसला सुनने की दिमागी तैयारी के साथ कल्पेशजी के सामने हाजिर हुआ। जैसे पीछे से हाथ बंधा कोई बेकसूर गिलोटिन पर अपनी गर्दन खुद ले जाए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चार साल पर हुए सालाना सर्वे के कवरेज के लिए कॉन्फ्रेंस रूम में एक छोटी सी मीटिंग के अंतराल के बाद उन्होंने मुझे वहीं बुलाया।
मुझे कुर्सी पर बिठाया। हिसाब बराबर करने की मुद्रा में वो खुद खड़े रहे। मामले की सुनवाई शुरू हुई। अबकी बार मेरा गला सूखा हुआ नहीं था। नश्वर जगत के हर तरह के भय से मुक्त मैं अपने सबसे बड़े एडिटर की आंखों में आंखें डालकर उन्हें पढ़ने की कोशिश कर रहा था। अपने चिरपरिचित अंदाज में खबर के असरदार इंट्रो की तरह एक छोटी सी भूमिका गढ़ने के बाद मुझसे संबोधित हुए-
‘‘अब आपको अपने मूल कार्य में लौटना चाहिए। आप एनआईएन में वापस आइए और देश भर से खबरों के काम में लगिए। भोपाल एडिशन में आपकी जगह सुनील शुक्ला का नाम तय हो गया है। एक जगह दो सीनियर मुश्किल होंगे। इसलिए तुरंत निर्णय लेना होगा। अब आपके सामने दो विकल्प हैं-पहला तो यह कि आप चाहें तो दिल्ली में नेशनल रिपोर्टिंग टीम ज्वाइन करें और दूसरा एनआईएन में इंदौर आ जाएं। दिल्ली चाहते हैं तो एक हफ्ते में बताएं और इंदौर का विकल्प तो खुला हुआ ही है।‘’
मुझसे बातचीत में उनका भाव सच में कुछ ऐसा ही था जैसे मोगली को घेरघार कर अपनी मांद के सामने लाकर शेर खान अपने दांत और पंजे चमका रहा हो! मैंने उन्हें ध्यान से सुना। कोई सफाई नहीं दी। अपनी कोई पसंद-नापसंद जाहिर करने का तो सवाल ही नहीं था। सिर्फ इतना कहा कि अगले महीने बेटे का यूनिवर्सिटी में एडमिशन होना है, इसलिए किसी सूरत में जुलाई के पहले कहीं भी जाना संभव नहीं होगा। जैसे आखिरी ख्वाहिश पर रहम खाते हुए उन्होंने कहा-‘‘कोई बात नहीं है। परिवार को पूरा समय दीजिए। बेटे की जिम्मेदारी पूरी करके आइए।‘’
उनके बेहद दुखद अंत से ठीक दो महीने पहले यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। असल बात यह थी कि मैं उनकी टीम में लौटना नहीं चाहता था। इसके पीछे की लंबी कहानी मैंने ऊपर तफसील से कही। हालांकि दूसरी बार एनआईएन ज्वाइन करने के अवसर के लिए मैंने दिली खुशी जाहिर की और जुलाई तक की मोहलत ली थी और जून के आखिर में बीस जुलाई तक की छुट्टी और ले ली थी। मैं उनके फैसले को तो नहीं बदल सकता था मगर जितना संभव हो बचने की कोशिश जरूर कर रहा था।
मन के किसी कोने में यह आशंका फन फैलाए थी कि मेरे यहां आते ही वे मेरी पूर्णाहुति का महाअनुष्ठान किस तरह शुरू करेंगे। मुझ जैसे कई तीस मार खां निपटाए गए थे। शरदजी का उदाहरण सामने था। वे करीब एक साल दिल्ली में रहे थे और बाद में इस्तीफा दे दिया था। वह एक साल किस तरह की हरकतों का था। यह वे ही जानते हैं। मेरे लिए पता नहीं क्यों खतरे की घंटी सुनाई दे रही थी।
बीते बीस सालों में दिल्ली में जमने के कई मौके थे मगर कभी मन नहीं हुआ। एक तो मौसम ने डराया और दूसरा भयावह भीड़ ने धमकाया। इस बार मैंने तीन दिन के लिए दिल्ली में डेरा डाला और अपने लिए दूसरे विकल्पों की तलाश भी शुरू की। इनमें अखबार, टीवी और डिजिटल तीनों ही विकल्प शामिल थे। तीन दिन में बहुत सारे मित्र-परिचितों से मिला। इंडिया टुडे की कैंटीन में कमलेशजी और धीरेंद्र राय के साथ लंबी बैठक में शरद गुप्ता सूत्रधार थे।
हमने कल्पेश सर की हर अदा और अंदाज को याद किया था। सब मानते थे कि उनकी जोड़ का कोई दूसरा नहीं है। वे अनूठे हैं। अलग हैं। अदभुत हैं। मोगली और शेर खान वाला रूपक कमलेशजी को खूब पसंद आया। उन्होंने हिम्मत बंधाते हुए कहा था कि विजय आप मोगली नहीं हैं। शेर खान की तरह शेर खान का सामना कीजिए। मुझे लगा कि वे कह रहे हैं चढ़ जा बेटा सूली पर। तेरा राम भला करे!
तीसरे दिन दिल्ली प्रेस क्लब में शरदजी के साथ विदाई बैठक हुई। शरदजी के कई मित्र वहां मिल गए। तरल पदारथ हैं जग माहीं, करमहीन नर पावत नाहीं। दिल्ली प्रेस क्लब की गहमागहमी से भरी उस शाम को एक नई ऊर्जा भीतर उतारकर मैं वहीं से हजरत निजामुद्दीन रवाना हुआ। भोपाल एक्सप्रेस में था। रात बारह के पहले मोबाइल पर कुछ मिस्ड कॉल देखे। एक ऑफिस से था।
मैंने कॉल बैक किया तो पता चला कि कल्पेशजी इंदौर ऑफिस से सीढ़ियां उतरते वक्त गिर गए हैं। उन्हें बांबे हास्पिटल में ले जाया गया है। इंदौर से पता चला कि हालत गंभीर है। देर रात करीब दो बजे उनके देहावसान की सूचना मिली। सुबह भोपाल उतरकर फौरन इंदौर निकला। उस दिन भोपाल में दो दिन की नियमित लर्निंग-शेयरिंग मीटिंग के लिए देश भर से करीब डेढ़ सौ संपादक भोपाल आ चुके थे या आ रहे थे। यह मीटिंग रद्द हो गई। हर एडिशन की टीम इंदौर कूच कर रही थी।
मुझे तो 23 जुलाई को उनकी शरण में अपनी आमद देनी थी। उनके असमय महाप्रयाण के साथ ही मैं एक ऐसे लिफाफे की तरह हो गया, जो अपने गंतव्य पर चल पड़ा था और अचानक बारिश में जिसका पता साफ हो गया था। एक ऐसे नेता की तरह जो कुरता-पाजामा पहनकर शपथ के लिए राजभवन निकला ही हो और टर्निंग पर सरकार गिरने की खबर आ जाए।
और अब आखिर में विषकन्या प्रसंग…