वाकणकरजी ने बताया था -आर्य और द्रविड़ संस्कृति एक है

मनोज जोशी

पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर की 4 मई को जयंती थी। इसके साथ ही उनके जन्म शताब्दी वर्ष का समापन भी। हममें से ज्यादातर लोग यह तो जानने लगे हैं कि डॉ. वाकणकर ने भीम बैठका की खोज की। निश्चित रूप से यह एक अकेला इतना बङा काम है कि जो डॉक्‍टर वाकणकर को वैश्विक पहचान दिलाता है।

और मैं तो व्यक्तिगत रूप से इस एक काम से इतना प्रभावित हूँ कि अक्सर भीम बैठका जाता हूँ। पिछले साल दिसम्बर में बेटे के जन्मदिन पर परिवार के साथ भीम बैठका पहुंच गया था। लेकिन डॉक्‍टर वाकणकर ने एक और बङा काम किया। और वह है यह साबित करना कि आर्य और द्रविड़ संस्कृति अलग-अलग नहीं है। द्रविड़ स्थानवाचक शब्द है, जातिवाचक नहीं।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं डॉक्‍टर वाकणकर का एक किस्सा आपको बताता हूँ-

ब्रिटिश पुरातत्वविद रोबर्ट एरिक मोर्टिमर व्हीलर ने Ancient India में प्रकाशित अपने एक लेख में मोहन जोदड़ो में मिले 37 कंकालों को पुरातात्विक साक्ष्य बताते हुए दावा किया कि एक जगह इतने कंकाल आक्रमण में मारे गए लोगों के हैं। इन सब का आर्यों द्वारा कत्लेआम हुआ। उन्होंने हङप्पा सभ्यता को द्रविड़ सभ्यता बता कर उसके विनाश के लिए आर्यों को दोषी बताया है।

व्हीलर काले रंग के लोगों को ‘द्रविड़’ और गोरे रंग के लोगों को ‘आर्य’ मानते थे। एक बार वाकणकर ने व्हीलर से पूछा- ‘अच्छा बताइए, मुझे आप द्रविड़ मानते हैं या आर्य?’ व्हीलर ने पूरे दावे से कहा- ‘आप तो निश्चित ही आर्य हैं।’ इस पर वाकणकर ने जवाब दिया- ‘आपने जो उत्तर मुझे दिया है, उसी से मैं जान गया हूं कि आपके आर्य-वंश सिद्धांत तथा आर्य द्रविड़ द्वैत में जरा भी दम नहीं है। मेरे पास मेरी 23 पीढ़ियों का इतिहास है। बिल्कुल प्रारंभ से हम लोग द्रविड़ माने जाते हैं। आपका ‘आर्य वंश सिद्धांत’ पूर्णतः निराधार है।’ व्हीलर निरुत्तर हो गए।

लेकिन बात सिर्फ इस किस्से तक ही सीमित नहीं है। वाकणकर ने केवल अपनी वंशावली के आधार पर नहीं बल्कि अपनी शोध के आधार पर यह साबित किया है कि आर्य- द्रविड़ संस्कृति एक है। उन्होंने विलुप्त होती सरस्वती नदी की खोज की। यह खोज केवल नदी की धारा की खोज तक सीमित नहीं थी। यह एक सभ्यता की खोज थी।

डॉक्‍टर वाकणकर 1966 से सिंधु घाटी की सभ्यता का अध्ययन कर रहे थे। उन्होने अपने शोध में साबित किया कि हडप्पा सभ्यता आर्य सभ्यता का ही अंग है। सरस्वती नदी अन्य नदियों की अपेक्षा बहुत चौडी नदी थी। उनकी शोध बताती है कि सिंधु घाटी की सभ्यता में अब तक खोजी गई लगभग 1400 बस्तियों में से केवल 80 बस्तियां ही सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में पाई गई हैं।

लगभग 1100 बस्तियां सिंधु और गंगा के बीच के मैदान में स्थित हैं, जहाँ कभी सरस्वती नदी बहती थी। यदि इस क्षेत्र में खुदाई की जाए तो साहित्य में जिस सरस्वती नदी का जिक्र है उसके तट पर आर्यों की बस्तियां होने की बात साबित हो सकती है। वाकणकर तो यह मानते थे कि सिंधु घाटी की सभ्यता को सरस्वती सभ्यता का नाम दिया जाना चाहिए। उनके काम को आगे बढ़ा रहे लोगों का समूह आज भी यह मांग उठा रहा है।

डॉ. वाकणकर का जन्म शताब्दी वर्ष समाप्त हो गया है। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और संस्कार भारती के संस्थापक महामंत्री थे। मप्र के नीमच जिले में जन्म लेने वाले इस महान विभूति की याद में ही सही हम मप्र के लोगों को सरस्वती नदी के बहाव क्षेत्र में खुदाई की मांग करना चाहिए ताकि आर्य-द्रविड़ संघर्ष का जो सिद्धांत प्रचारित किया जाता है, उसे गलत साबित कर सही बात विश्व पटल पर लाई जा सके।

(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)

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