जयंती विशेष

डॉ. आशीष द्विवेदी

डॉक्‍टर हरीसिंह गौर एक ऐसा नाम जो दान के अमरत्व का प्रतीक बन गया। एक ऐसा नाम जो ज्ञान की किवदंती बन गया, एक ऐसा नाम जो संघर्ष की तपिश से झुलसा नहीं वरन कुंदन बन निखर गया। एक ऐसा नाम जो न सिर्फ बुंदेलखंड अंचल के लिए बल्कि देश के लाखों लोगों के लिए किसी जाग्रत देवता से कम नहीं। एक ऐसा नाम जिसने अपने पुरुषार्थ से विद्या के वरदान देने वाले अद्वितीय गुरुकुल की आधारशिला रखी। एक ऐसा नाम जिसने ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वार्गदपि गरीयसी ‘ की उक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ करके भी दिखाया।

परतंत्र भारत में जिसने घटाटोप अंधकार में भी शिक्षा का दीपक प्रज्ज्वलित किया और जाने कितने घरों को ज्योतिर्मय कर दिया। डॉ. गौर ऐसे विराट मानव जिन्होंने एक जीवन में इतने किरदारों में रंग भरे जिसे सुन कोई भी अचंभित हुए बिना न रहे। वो कानून, दर्शन, साहित्य, राजनीति शिक्षा, समाज सुधार,  पत्रकार सभी क्षेत्रों में प्रभावी दखल रखते थे। इन सबसे परे एक असाधारण इंसान तो थे ही। जिनके लिए ‘समय’  सोना था। जिन्होंने क्षण-क्षण और कण-कण का ऐसा सदुपयोग किया कि मिसाल बन गए।

अनुशासन, दृढ़ संकल्प, दूरदर्शिता तो उनकी रग-रग में समाई थी। हर तरह से समर्थ, सक्षम होते हुए भी किसी रास-रंग में डूबे नहीं, एकदम निर्लिप्त और निर्विकार जीवन शैली। एक संसाधन शून्य गुमशुदा सी सरकारी स्कूल में टाटपट्टी पर बैठ, लालटेन की रोशनी में पढ़कर उन्होंने कैम्ब्रिज तक का सफर तय किया। जो आज विलाप करते हैं कि हमें सही स्कूलिंग नहीं मिली इसलिए सफल नहीं हो पाए। उनके लिए गहरा सबक।

उनकी मेधा चमत्कृत करने वाली, बावजूद इसके मैट्रिक कि परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो  गए लिहाजा सरकारी वजीफा भी बंद हो गया। नौकरी के लिए दो साल दरबदर भटके। बमुश्किल एक मेस में नौकरी हासिल हुई वो भी क्लर्क की। उसे ठुकराया नहीं अपनाया। यद्यपि वो उनके स्तर की नहीं थी। दूसरी सीख उनके व्यक्तिव की जब समय प्रतिकूल हो तो कहीं न कहीं से शुरुआत कर दीजिए, अच्छा वक्त भी आएगा। जिंदगी का सफर चलने दें।

गौर साहब ने बड़ी साफगोई से स्वीकारा कि पत्नी पर पाश्चात्य प्रभाव हावी था, उसी तरह की जीवन शैली। आमोद-प्रमोद के साधनों में रत रहने वाली महिला। दुर्भाग्य से यह छाप बच्चों पर भी पड़ी लेकिन न गौर साहब झुंझलाए और न अवसाद में  डूबे। वो इन सबसे विरत अपने मस्तिष्क को ऊर्जावान करने में जुटे रहे। तीसरा सबक यह कि जो उत्तम प्रकृति के मनुष्य होते हैं कुसंग उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। 

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उन्होंने चार साल प्रिवी कौंसिल में वकालत की। इंपीरियल कौंसिल की सीट के लिए दो बार असफल रहने के बाद उन्होंने विधान परिषद के लिए चुनाव लड़ा और अपने प्रतिद्वंद्वी के नामांकन पत्र में गलती निकाल उसको खारिज करवाकर निर्वाचित हो गए। चौथा सबक यह कि बंद अंधेरे कमरे में रोशनदान कैसे बनाए जाते हैं। कैसे सूझबूझ और धैर्य से शत्रु को धराशायी किया जाता है।

दुनिया भर में यश, संपदा और ज्ञान अर्जित करने के बाद वे सागर लौटे।  विश्वविद्यालय खोलने का संकल्प लिया। यहां तमाम तरह की आपदा-विपदा, सियासी उठापटक के बाद भी रत्ती भर विचलित नहीं हुए। जीवन भर जो कमाया चाहे वो धन के रूप में, ज्ञान के रूप में या फिर प्रभाव और प्रतिष्ठा के रूप में वह सब मातृभूमि के लिए न्योछावर कर गए। स्वार्थ लोलुपता लेशमात्र नहीं न ही श्रेय लेने की कोई अभिलाषा। जैसे निष्काम कर्मयोगी। यह उनके जीवन से लिया जाने वाला पांचवा महत्वपूर्ण सबक है कि जहां तक संभव हो ऋणों से उऋण होइए। वटवृक्ष बनने के बाद भी जड़ों को कभी मत भूलिए।

दरअसल डॉ. गौर का संपूर्ण जीवन ही एक चलता-फिरता पुस्तकालय है जिसकी आप कोई भी किताब उठाएंगे तो विस्मय से भर जाएंगे। उनका सारा व्यक्तिव उन हताश, निराश, उदास युवाओं के लिए वरदान जैसा है जिन्होंने जीवन संग्राम में क्षणिक चुनौतियों के आगे ही आत्मसमर्पण कर दिया है। उन सबके लिए डॉ. गौर को न सिर्फ पढ़ने वरन आत्मसात करने की जरूरत है, तभी भारत के प्राण पुनः लहलहा उठेंगे।
(मध्यमत)
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