20 दिसंबर को मैंने लिखा था कि नागरिकता संशोधन कानून से पैदा होने वाले विरोध और उस पर आने वाली प्रतिक्रिया का सही ढंग से पूर्वानुमान न लगा पाने और किसी भी स्थिति से निपट लेने के ‘ओवर कान्फिडेंस’ ने सरकार को और ज्यादा मुश्किल में डाला है। 19 दिसंबर को दिल्ली, लखनऊ, अहमदाबाद, बनासकांठा, मेंगलुरू, कोलकता सहित देश के कई हिस्सों में हुई तोड़फोड़ और हिंसा के बाद 20 दिसंबर को भी देश में इस कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन जारी रहे।
इस मामले में सरकार की गफलत और स्थिति से निपट पाने में उसकी असफलता अपनी जगह है। लेकिन पूरे घटनाक्रम का एकमात्र यही एंगल नहीं है। जब मैं कहता हूं कि सरकार के पूर्वानुमान में गफलत हुई और वह ‘अति आत्मविश्वास’ का शिकार हो गई तो उसी के समानांतर दूसरी बात भी दिमाग में कौंधने लगती है।
और यह दूसरी बात पहली वाली बात से ज्यादा गंभीर और खतरनाक है। इसका सिरा आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान से पकडि़ये जो उन्होंने 15 दिसंबर को झारखंड के दुमका में हुई चुनावी रैली में दिया था। मोदी ने नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों को आड़े हाथों लेते हुए कहा था कि ‘’कांग्रेस और उसके साथी तूफान खड़ा कर रहे हैं। उनकी बात चलती नहीं है तो आगजनी फैला रहे हैं। ये जो आग लगा रहे हैं, ये कौन हैं, उनके कपड़ों से ही पता चल जाता है।‘’
और उसी रात दिल्ली के जामिया मिलिया में हिंसा हुई और पुलिस ने छात्रावास और लाइब्रेरी तक में घुसकर छात्रों को पीटा। उसके बाद इस मामले की आग, सचमुच आग बनकर ही फैली और 19 व 20 दिसंबर को पूरे देश ने इस आग से जलते हुए शहरों को देखा। आप मुंबई के अगस्त क्रांति मैदान में हुए जमावड़े को छोड़ दें तो ज्यादातर जगहों के फुटेज हिंसा और आगजनी पर उतारू भीड़ को दिखा रहे थे। कैमरों में कैद हुए वे दृश्य बार बार टीवी चैनलों के स्क्रीन पर चमक रहे थे जिनमें भीड़ पुलिस वालों को घेरकर पीटने और उनकी जान तक लेने पर उतारू नजर आ रही थी।
और करीब करीब इन सारे ही दृश्यों में खास बात क्या थी? वह खास बात यह थी कि आप हिंसा करने वालों को उनके पहनावे से पहचान सकते थे। उधर टीवी चैनल बार-बार वे दृश्य चला रहे थे और इधर उतनी ही बार, ठीक प्रधानमंत्री के बयान के मुताबिक, हिंसा करने वालों की पहचान उनके पहनावे से स्थापित हो रही थी। पूरा देश इन दृश्यों को देख रहा था। देखने वालों में वे भी थे जो नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे हैं, वे भी थे जो इसके समर्थन में हैं और वे भी जिनका वैसे इस कानून से जुड़ी बहस से कोई लेना देना नहीं था।
इन्हीं दृश्यों को देखते हुए मैंने एक बात नोटिस की और अचानक दिमाग में एक विचार बिजली की तरह कौंध गया कि यह विरोध तो राजनीति का काम बहुत आसान कर दे रहा है। जो लोग विरोध और प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे थे या जिन्होंने लोगों को सड़कों पर उतरने के लिए उकसाया होगा वे यह मान रहे होंगे कि लोगों के इस गुस्से से सरकार पर दबाव बनेगा। लेकिन क्या उन्होंने यह सोचा कि इससे जो प्रतिक्रिया होगी वह कितनी खतरनाक हो सकती है।
दरअसल विरोध प्रदर्शन करने वालों की निगाह या सोच उतनी आगे तक गई ही नहीं और उन्होंने तात्कालिकता में ही अपना फायदा देखने की गलती कर डाली। उन्होंने यह अंदाज ही नहीं लगाया कि यदि संसद द्वारा पारित कानून के विरोध के नाम पर हिंसा और आगजनी करने वाले इस तरह कैमरों में दर्ज होकर, अपने पहनावे से खुलकर पहचाने जाएंगे तो देश में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया कितनी तेजी से होगी।
इस बात को गंभीरता से लीजिये कि जो हो रहा है, यदि उसे नियंत्रित नहीं किया गया और हिंसा को नहीं रोका गया तो फिर जो मुस्लिम समुदाय नागरिकता संशोधन कानून को अपने हितों पर कुठाराघात बता रहा है उसके बारे में हिंदू समुदाय में यही बात फैलेगी या फैलाई जाएगी कि देखो ये लोग देश की संसद द्वारा बनाए गए कानून पर जब इतने हिंसक हो सकते हैं तो इनसे ‘देशभक्ति’ की क्या उम्मीद की जाए?
यकीन मानिए यदि विरोध में हिंसा जारी रही तो बहुसंख्यक समुदाय में यही धारणा स्थापित होगी कि जो लोग देश में रहकर इस देश के नहीं हो रहे वे किस मुंह से दूसरे देश से आने वाले अपने लोगों को भी स्वीकार करने की बात पर जोर डाल सकते हैं। यह धारणा जिस स्तर पर ध्रुवीकरण करेगी उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। सही मायनों में यह हिंसा तो राजनीति का रास्ता और आसान बना रही है।
इससे ज्यादा दुख की बात यह है कि विपक्ष में बैठे लोगों की ओर से या विरोध करने वाले लोगों की अगुवाई करने वालों की ओर से ऐसा कोई ठोस प्रयास नहीं किया जा रहा कि वे इस हिंसा को रोकें। शायद वे मानकर चल रहे हैं कि यह हिंसा सरकार को दबाव में ला देगी। नहीं, ऐसा कतई नहीं होगा। यह हिंसा उलटे सरकार को एक रक्षा कवच प्रदान करेगी। दूसरी तरफ सामाजिक स्तर पर अल्पसंख्यकों को और ज्यादा अलग थलग और बहुसंख्यकों को और अधिक एकजुट कर देगी।
20 दिसंबर को दिल्ली की जामा मस्जिद के जो दृश्य दिन भर लोगों ने देखे वे सांस रोककर देखे। लोग इस आशंका में थे कि इतनी बड़ी संख्या में जुटे लोग यदि हिंसा पर उतारू हो गए तो शायद देश के सबसे बड़े हिंसक प्रदर्शनों में इस घटना का शुमार हो जाए। यदि वहां भगदड़ ही मच जाती तो आप सोचिए कि कितने लोगों की जान जाती।
यह ठीक है कि लोकतंत्र में हर व्यक्ति को अपनी बात रखने का अधिकार है। लेकिन यह मसला ऐसा नहीं है जो यूं ही भीड़ के हाथ में खुला छोड़ दिया जाए। विडंबना यह है कि इस भीड़ का न तो कोई नेता है और न ही इसकी कोई दिशा है। जो राजनीतिक दल सड़कों पर उतरे लोगों की पीठ पर हाथ रख रहे हैं उनके सबके अपने स्वार्थ हैं। उन्हें अल्पसंख्यकों का हित नहीं बल्कि अपना वोट बैंक दिख रहा है।
और यदि यह वोट बैंक की ही पॉलिटिक्स है तो यह भी लिखकर रखिये कि यह खेल जिस स्तर पर और जिस दिमाग से खेला जा रहा है उसमें आप घाटे में ही रहेंगे। इसलिए बेहतर होगा कि इससे पहले कि इस विरोध की आग आपके राजनीतिक हितों को भी जला डाले, आप इस पर पानी डालिये और ठंडे दिमाग से सोचिये की राजनीति ही करनी है तो उसका तरीका क्या हो।