अफसोस कि वे खबरें आना शुरू हो गई हैं…

23 मार्च को मैंने इसी कॉलम में सवाल उठाया था कि क्‍या इस बार हम परीक्षा के तनाव के चलते छात्र छात्राओं द्वारा की जाने वाली आत्‍महत्‍याओं को रोक पाएंगे?और 27 मार्च के दिन जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, उसी दिन राजधानी के अखबारों में खबर छपी है कि 10 वीं कक्षा की एक छात्रा ने भोपाल में रविवार को फांसी लगाकर जान दे दी। घटना के एक दिन बाद यानी सोमवार को इस छात्रा की परीक्षा का अंतिम पेपर था। यानी जिन खबरों से बचने की खैर मनाई जा रही थी,वे आनी शुरू हो गई हैं।

हम बस दुआ ही कर सकते हैं कि बच्‍चों में यह अवसाद महामारी के रूप में न फैले और घरों के चिराग इस तरह असमय न बुझें…

अपने कॉलम में मैंने यह भी जिक्र किया था कि मध्‍यप्रदेश विधानसभा में पिछले साल इसी मुद्दे पर गंभीर चर्चा के बाद अर्चना चिटनिस की अध्‍यक्षता में सदन की जो समिति बनाई गई थी, उसकी रिपोर्ट भी जल्‍द आनी चाहिए और उस पर चर्चा भी होनी चाहिए। चिटनिस कमेटी की वह रिपोर्ट भी बजट सत्र के अंतिम दिन, सारा कामकाज आपाधापी में निपटाए जाने के दौरान पटल पर रख दी गई। दुर्भाग्‍य है कि उस पर कोई चर्चा नहीं हो सकी।

‘’छात्रों द्वारा मानसिक तनाव के कारण आत्‍महत्‍या किए जाने संबंधी सामाजिक समस्‍या के समाधान’’ हेतु गठित इस समिति ने इस मामले पर बहुत सारे एंगल से विचार किया है। वैसे तो समिति ने 31 बिंदुओं में अपनी सिफारिशें दी हैं, लेकिन इनमें से कुछ सिफारिशों पर तो तत्‍काल अमल किया जाना चाहिए।

जैसे समिति ने कहा है कि ‘’शिक्षा संस्‍थाओं में तदर्थ/ संविदा/ अतिथि शिक्षकों की नियुक्तियां नहीं की जाएं। उनके स्‍थान पर नियमित रूप से नियुक्‍त शिक्षक हों।‘’दरअसल सरकारें लंबे समय से शिक्षा में तदर्थवाद चलाए हुए है। नियमित नियुक्तियां करने के बजाय इस तरह की कामचलाऊ व्‍यवस्‍था से न तो छात्रों का भला हो रहा है और न ही शिक्षा व्‍यवस्‍था की गुणवत्‍ता सुनिश्चित हो पा रही है।

शिक्षक और छात्र के बीच बहुत अलग तरह के संबंध होते हैं। तदर्थवाद के कारण दोनों के बीच वह बांडिंग बन ही नहीं पाती और इसीका परिणाम यह होता है कि दोनों एक दूसरे को ठीक से नहीं जान पाते। खासतौर से शिक्षक, छात्रों की मन:स्थिति को पढ़ने और उसमें पनप रही नकारात्‍मकता समझ पाने में असमर्थ होने के कारण उसे दूर करने के प्रभावी उपाय नहीं कर पाते।

इसी तरह समिति का यह सुझाव भी गौर करने लायक है कि ‘’निजी कोचिंग संस्‍थानों के संचालन के लिए अच्‍छी तरह से परिभाषित किए गए मार्गदर्शी नियम होने चाहिए और ऐसे संस्‍थान उन नियमों के तहत ही संचालित किए जाने चाहिए।‘’

मैंने अपने कॉलम में लिखा था कि बच्‍चों में अतिरेकपूर्ण प्रतिस्‍पर्धा की भावना पैदा करने के लिए कोचिंग संस्थान ज्यादा जिम्मेदार हैं। परीक्षा परिणाम आने के बाद कोचिंग संस्‍थानों द्वारा अपने छात्रों का महिमामंडन करते हुए बढ़ा चढ़ाकर दावा करने वाले विज्ञापनों पर पूरी तरह रोक लगनी चाहिए। ये विज्ञापन समाज में कोचिंग की लूट को तो बढ़ावा देते ही हैं, बच्चों में प्रतिस्पर्धात्मक या हीन भावना को और अधिक उग्र बनाते हैं।

इसी तरह समिति ने यह भी सिफारिश की है कि ‘’निजी संस्‍थानों द्वारा उच्‍च गुणवत्‍तापूर्ण शिक्षा और प्‍लेसमेंट को लेकर किए जाने वाले दावों का भी किसी उच्‍चस्‍तरीय समिति की ओर से परीक्षण किया जाना चाहिए। ताकि ऐसी संस्‍थाएं छद्म दावों के साथ विद्यार्थी को भ्रमित कर उसका शोषण न कर सकें।‘’

इस सिफारिश के जरिए समिति ने बहुत जरूरी मुद्दा उठाया है। यह कोई दबी छिपी बात नहीं रही है कि ऐसे अधिकांश दावे या तो फर्जी होते हैं या फिर बहुत अधिक बढ़ा चढ़ाकर प्रस्‍तुत किए जाते हैं। पिछले कुछ सालों से मीडिया में एक चलन चल पड़ा है। बड़ी बड़ी पत्रिकाएं शिक्षा संस्‍थानों में प्रवेश के मौसम में कथित श्रेष्‍ठ संस्‍थानों की सूची निकालती हैं।

परोक्ष रूप से ऐसी सूचियों के जरिए छात्रों को भ्रमित कर ललचाया जाता है कि वे उन्‍हीं संस्‍थानों में प्रवेश लें। छात्रों से भारी भरकम फीस वसूलने वाले ये संस्‍थान किस तरह सूची में शामिल किए जाते हैं वह भी कोई रहस्‍य नहीं रहा है। पैसे के लिए यह सारा खेल पैसे के ही दम पर मैनेज किया जाता है।

समिति की सभापति अर्चना चिटनिस के साथ उनकी पूरी टीम के प्रयासों की सराहना की जानी चाहिए कि उन्‍होंने इस गंभीर सामाजिक समस्‍या के हरसंभव बिंदु को छूने का प्रयास किया है। जिस प्रदेश में पिछले 15 सालों में (2001 से 2016 तक) 1147 छात्र छात्राएं आत्‍महत्‍या कर चुके हों, वहां इस मुद्दे पर और गंभीरता से बात भी होनी चाहिए और समाधान के प्रयास भी।

समिति को पुलिस विभाग की ओर से जो जानकारी दी गई है, उसमें चिंताजनक बात यह है कि इन 1147 बच्‍चों में भी ज्‍यादातर बच्‍चे 10 से 18 वर्ष के हैं। यानी कच्‍ची उम्र के बच्‍चे जिन्‍हें देश का भविष्‍य कहा जाता है, परिस्थितियों से लड़ने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं।

मध्‍यप्रदेश ने आनंद विभाग की स्‍थापना कर, समाज में खुशहाली का सपना पाला है, उसी प्रदेश में बच्‍चों का इस तरह अवसाद से ग्रस्‍त होना हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता भी है और सबसे बड़ी चुनौती भी…

 

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