संदीप खमेसरा
केरल हाईकोर्ट ने वैवाहिक संबंधों में ‘यूज एंड थ्रो’ उपभोक्ता संस्कृति पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि आनंद से जीने की चाह के कारण, नई पीढ़ी विवाह को बुराई के रूप में देखने लगी है। विवाह से बच कर वह ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने को प्राथमिकता देने लगी है, जो समाज के लिए चिंता का विषय है।
यह दौर यूरोप, अमेरिका से होते हुए भारत में भी दस्तक दे चुका है। इसे रोका नहीं जा सकेगा। कोई भी सोच यूं ही विकसित नहीं होती। न कोई एक ही कारण इसके लिए जिम्मेदार होता है। केवल ‘आनंद’ या ‘भोगवादी’ सोच को ही इसके कारण के रूप में देखना शायद जायज नहीं होगा। निश्चित रूप से आज की युवा पीढ़ी स्वतंत्रता चाहती है। बंधन उसे स्वीकार नहीं। पारिवारिक जिम्मेदारी उठाने को वह बंधन का कारण मानती है।
शादी के बाद, जिस आसानी से रिश्तों को टूटते हुए वह देखती है, उससे मन ही मन डरती है। आजकल तलाक के निर्णय तो फटाफट ले लिए जाते हैं। तलाक पर लड़के वालों से लाखों करोड़ों की राशि मुआवजे के रूप में मांगी जाती है, यह भी भयभीत करने वाला होता है।
मेरा अपना जीवन है और मैं अपने हिसाब से जीना चाहता/चाहती हूं। इसमें अधिक हस्तक्षेप मुझे बर्दाश्त नहीं, इस मनोवृत्ति के चलते भी युवा (लड़का लड़की दोनों) शादी नहीं करना चाहते। ससुराल में रह कर नए तरीके के जीवन को आत्मसात कर लेने के लिए लड़कियां मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। मैं क्यों बदलूं? यह प्रश्न कहीं न कहीं उनके अंतर्मन में रहता है।
लड़के को विश्वास नहीं है कि जो लड़की ब्याह कर वह अपने परिवार में लायेगा, वह माता पिता या अन्य सदस्यों की अपेक्षाऐं पूरी कर पाएंगी। हो सकता है जिस तरह की स्वतंत्रता वह स्वयं के लिए चाहता है, उसी तरह की स्वतंत्रता वह लड़की को भी देना चाहता हो। जिसके चलते, वह उसे किसी बंधन में नहीं धकेलना चाहता।
पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए अपने माता-पिता को जिस तरह जीते हुए वह देखता है, उस जीवनशैली से कहीं न कहीं वह असहमत होता है। त्याग एवम् स्वयं की खुशियों और चाहत को अपनी प्राथमिकता की फेहरिस्त में (उसके माता-पिता द्वारा) बहुत नीचे स्थान देना, उसे सुहाता नहीं है। इस बात का चाहे उसके माता-पिता के मन में लेशमात्र भी गम न हो, लेकिन वह इसे उनकी मजबूरी मानने लगता है। उनका स्वयं के लिए नहीं जी पाना उसे सर्वथा अन्यायपूर्ण लगता है। वैसी भूमिका में स्वयं को झोंकने के लिए वह कदापि तैयार नहीं है।
आजकल, एक या दो तो कुल बच्चे होते हैं। लड़का और लड़की अपने अभिभावकों के साथ भावनात्मक रूप से अधिक जुड़े रहते हैं। लड़का ऐसी स्थिति से बचना भी चाहता है, जिसमें पत्नी की वजह से उसे अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में अकेला छोड़ने का विकल्प चुनना पड़े। लड़की भी वृद्धावस्था में अपने माता-पिता के साथ रहना चाहती है। कई मामलों में लड़की की यह शर्त भी हो सकती है कि शादी के बाद वह लड़के के माता-पिता के साथ नहीं रहेगी। जिस परिवार में लड़की का कोई भाई नहीं है, वहां लड़के पर ससुराल में रहने का मानसिक दबाव भी भविष्य में बन जाए, ऐसी संभावना से भी वह बचना चाहता है।
आज के जमाने के लड़के और लड़की का परस्पर संवाद और एक दूसरे के व्यवहार की समझ बहुत बढ़ी है। एक दूसरे की सोच और मनोविज्ञान से वे भलीभांति परिचित हो जाते हैं। कहीं न कहीं विश्वास के संकट से भी वे ग्रस्त हो सकते हैं। जीवन को पूर्णता से एक्सप्लोर करने की चाह में वे शादी को एक बंधन के रूप में देखते हैं। आनंद और भोग से जीने के अलावा, ये कुछ अन्य मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं, जो कई युवाओं के दिमाग में चल रहे हो सकते हैं।
आज का युवा जिम्मेदारी उठाने में पीछे रहने वाला तो नहीं दिखता। चाहे नौकरी हो, स्वयं का व्यवसाय, घर परिवार या माता-पिता का ख्याल रखने या सेवा करने की बात, वह जिम्मेदारी से भागता तो नहीं है। इसलिए, जिम्मेदारी नहीं उठाने की सोच को भी इसका एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता।
शादी नहीं करना या ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहना सामाजिक बुराई हो सकती है। लेकिन, इस मानसिकता का जिस तरह विस्तार हो रहा है, उसके कारणों का समग्र रूप से चिंतन करके समाधान खोजने चाहिए। नई पीढ़ी को केवल दोष देते रहने से इसका समाधान होने वाला नहीं। दबाव से उनसे अब अपनी मर्जी का करा लेना भी दूर की कौड़ी है।
व्यावहारिकता, प्रेम और समर्पण के भावों के बीज बोए बिना यह संभव नहीं होगा। एक दंपती के रूप में दोनों में यह भाव विद्यमान होंगे तो ही बात बनेगी। नहीं, तो शादी और तलाक के किस्से समानांतर चलने वाली सामान्य घटनाएं मात्र रह जायेंगी। पढ़ाई, प्रोफेशन, पैसा, पर्सोना और प्रतिष्ठा के हाई प्रोफाइल ड्रामों और नावों में सवार आज का जीवन, क्या इन भावों को निर्मित करने का उचित माहौल और वातावरण देने में सक्षम है? गंभीरता से सोचने का विषय है यह…
(सोशल मीडिया से साभार)
(मध्यमत)
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