अजय बोकिल
अच्छा हुआ कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर देश में ‘फेक न्यूज’ को लेकर केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने आदेश जारी किया था, उसे चंद घंटों बाद वापस ले लिया गया। शायद सरकार को इस के ‘खतरे’ समझ आ गए थे और पत्रकार बिरादरी की ओर से भी इसका विरोध शुरू हो गया था।
ध्यान देने की बात यह है कि इस आदेश के तीन दिन पहले ही कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने एक जैन मुनि की किसी मुस्लिम व्यक्ति द्वारा कथित पिटाई के मामले में एक पत्रकार के खिलाफ ‘फेक न्यूज’ का मामला दर्ज किया था। तब इस पत्रकार के समर्थन में भाजपा नेता उतर आए थे। वहीं दूसरी तरफ भाजपा की एक बड़ी नेत्री और केन्द्रीय मंत्री ‘फेक न्यूज’ को लेकर पत्रकारों को ‘सबक’ सिखाने का फैसला कर चुकी थीं।
सोमवार को केन्द्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय द्वारा जारी आदेश में कहा गया था कि अगर कोई पत्रकार फ़ेक यानी फ़र्जी न्यूज़ लिखता या उसका प्रचार-प्रसार करता है, तो उसे ब्लैकलिस्ट किया जा सकता है। आदेश में यह भी कहा गया था कि पहली बार फेक न्यूज के प्रकाशन अथवा प्रसारण की पुष्टि होने पर पत्रकार की अधिमान्यता छह माह के लिए और दूसरी बार ऐसा होने पर यह एक साल के लिए निलंबित होगी। तीसरी बार भी ऐसी ही गलती पर मान्यता हमेशा के लिए रद्द कर दी जाएगी।
इस आदेश पर बवाल मचना ही था। कई पत्रकारों ने उस पर सवाल उठाए। वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त ने लिखा- ‘ट्रंपनुमा माहौल फिजाओं में है। ये फेक न्यूज की लड़ाई है, जहां मीडिया दुश्मन है।‘ वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने ट्वीट किया ‘सरकार का फ़ैसला मुख्यधारा मीडिया पर हमला है। ये राजीव गांधी के एंटी-मानहानि बिल लाने जैसी ही स्थिति है। पूरे मीडिया को अपने मतभेदों को भूलकर इसका विरोध करना चाहिए।‘
एक और वरिष्ठ पत्रकार स्वाति चतुर्वेदी ने तो फेक न्यूज मामले में सीधा प्रधानमंत्री कार्यालय को ही कठघरे में खड़ा किया। उन्होंने लिखा-‘प्रिय प्रधानमंत्री कार्यालय आपकी सरकार औद्योगिक स्तर पर फ़ेक न्यूज़ बेचती है। स्मृति ईरानी के आज़ादी पर हमला करने वाले कदम पर रोक लगाइए।‘
सरकार के आदेश की तीखी प्रतिक्रिया राजनीतिक हल्कों में भी हुई। कर्नाटक में पत्रकार पर फेक न्यूज का मामला दर्ज करवाने वाली सत्तारूढ़ कांग्रेस ने दिल्ली में केन्द्र सरकार के इस आदेश को ‘प्रेस की आजादी पर हमला’ बताया। पार्टी के नेता तहसीन पूनावाला ने ट्वीट किया- ‘फ़ेक न्यूज़ बताकर पत्रकारों की मान्यता रद्द करने का फैसला परेशान करने वाला है। ये प्रेस की आज़ादी पर बड़ा हमला है।‘ कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने लिखा- ‘इंटरनेट पर अपने कई झूठों की वजह से पकड़ी गई मोदी सरकार अब आजाद आवाजों पर भ्रामक नियम लाना चाहती है।‘
प्रधानमंत्री ने इस आदेश की दोहरी धार को भांपा और मंत्री स्मृति ईरानी को तुरंत आदेश वापस लेने का निर्देश दिए। इसके बाद सूचना प्रसारण मंत्रालय के सुर बदले। कहा गया कि फेक न्यूज के मामले भारतीय प्रेस परिषद में ही उठाए जाने चाहिए। उधर स्मृति ने भी लीपापोती के अंदाज में ट्वीट किया-‘फ़ेक न्य़ूज़ को लेकर बहस पैदा हो गई है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को खुशी होगी अगर फेक न्यूज़ को लेकर हम साथ आ सकें। इच्छुक पत्रकार मुझसे मिल सकते हैं।‘
अब सवाल यह है कि फेक न्यूज के खिलाफ यह आदेश जारी क्यों हुआ और क्यों इसे कुछ घंटो बाद वापस लेना पड़ गया? यह सही है कि सोशल मीडिया के बढ़ते असर और व्यापकता के साथ फेक या फर्जी न्यूज का गोरखधंधा भी फलफूल रहा है। मनमाने तथ्य पेश करने, तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, अर्थ का अनर्थ करने, बेसिर पैर के झूठ को पूरी ताकत से लोगों तक पहुंचाने और लक्षित व्यक्ति या संस्थान को बदनाम करने का अभियान ही फेक न्यूज का उद्देश्य है। चूंकि लोग ऐसी सूचनाओं की गहराई में जाए बगैर उन्हें बेधड़क फारवर्ड करते हैं तो फेक न्यूज का असली उद्देश्य बड़ी आसानी से पूरा होता है।
यूं भी फेक न्यूज पत्रकारिता के मान्य एथिक्स में नहीं आती। लेकिन चूंकि सोशल मीडिया सूचनाओं का एक अराजक मंच है, इसलिए इसका उपयोग या दुरुपयोग इच्छित राजनीतिक लक्ष्यों के लिए भी धड़ल्ले से किया जा रहा है। इस काम में कोई भी राजनीतिक दल अथवा सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन पीछे नहीं है। इस दृष्टि से फेक न्यूज पर अंकुश लगाना सही है।
लेकिन जो आदेश जारी हुआ, क्या उसकी अप्रकट मंशा भी यही थी? क्या वह फेक न्यूज पर अंकुश था या न्यूज को भी फेक बता सकने का कानूनी आवरण था? शक की सुई उसकी नीयत को लेकर है। कई लोग इसे फेक न्यूज की आड़ में रियल न्यूज को दबाने की कोशिश के रूप में देख रहे थे। क्योंकि फेक न्यूज के अपराध के लिए जो जो सजा मुकर्रर की गई थी, उसका सीधा मंतव्य पत्रकार के अधिकार को ही खत्म करना था। क्योंकि किसी भी मान्य पत्रकार से उसकी अधिमान्यता छीनना गब्बर सिंह द्वारा ठाकुर के दोनों हाथ ले लेने जैसा है।
और फिर कोई न्यूज सचमुच फेक है, इसका निर्धारण सरकार कैसे कर सकती है? क्योंकि वह खुद भी कई बार यह काम पत्रकारों के मार्फत छुपे ढंके कराती रहती है। अर्थात ‘फेक न्यूज’ के धंधे में सब बराबर के शरीक हैं। ऐसे में पत्रकारों के सिर पर ही टंगी तलवार क्यों? अगर फेक न्यूज देना इतना ही गंभीर अपराध है तो उन नेताओं को भला क्यों बख्शा जाना चाहिए जो रात दिन फेक वादे करके जनता को मूर्ख बनाते रहते हैं। उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती।
यहां उद्देश्य ‘फेक’ और ‘फेकू’ के बीच कोई अनुप्रास खोजना नहीं है, लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र की अमिट सच्चाई है। ‘फेक न्यूज’ मिटाने के लिए सामाजिक राजनीतिक पटल से भी फेकू पना खत्म करना जरूरी है। बिना इसके केवल पत्रकारों की गर्दन दबाना संदेह ही पैदा करता है। प्रधानमंत्री कार्यालय को फेक न्यूज का यह रियल एंगल समझ आ गया है तो शुभ ही है।
(सुबह सवेरे से साभार)