भारतीय पुलिस सेवा को खंडहर बताने वाले टीवी पत्रकार रवीश कुमार के पत्र की पुलिस अधिकारियों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है। हमने 12 जून को ऐसे ही एक आईपीएस अधिकारी धर्मेंद्रसिंह यादव का पत्र प्रकाशित किया था। उसी कड़ी में रवीश को करारा जवाब देते हुए उत्तप्रदेश के एक और पुलिस अधिकारी ने पत्र लिखा है। वह पत्र भी हम अपने पाठकों से साझा कर रहे हैं-
प्रिय रवीश जी,
मैं ना तो आपकी तरह बेहतरीन लेखन कर सकता हूँ और ना ही आपके द्वारा लिखे गए भावो का खण्डन करना चाहता हूँ। पर कुछ ज्यादा ही निराश हो चुके आपके विचारों को थोडा सा संतुलन देना चाहता हूँ। साहब, ये सही है कि भारतीय पुलिस सेवा में कमियां हैं जिसमे मुकुल द्विवेदी की शहादत पर हम चुप होकर, इसे सर्वोच्च बलिदान नाम देकर भूल रहे है। लेकिन ये सर्वोच्च बलिदान ही हमें इस सड़ी हुई व्यवस्था में आशा की किरण दिखाता है।
रवीश जी, आप यकीन मानिए, लोकतंत्र या आप उसे भीड़तंत्र कहें या कुछ और नाम दें, इस कदर सड़ और गल चुका है कि अब मुकुल द्विवेदी के अलावा और कोई उसे बचा भी नहीं सकता। मथुरा के जिलाधिकारी और एसएसपी साहब तो बहुत छोटे है, खुद व्यवस्था भी कोशिश करे तो भी मथुरा कांड को बचा नहीं सकती। राज्यपाल और कमेटी सदस्यों के लिए भारतीय पुलिस सेवा नहीं बनी। ये बनी है, जर्जर होते कार्यपालिका रूपी रथ को सँभालने के लिए।
आप देखिये, आज किसकी तरफ आम जनता आशा भरी नजरों से देख रही है? क्या सिंचाई और कृषि अधिकारियों की तरफ या फिर पटवारी और राजनेताओं के साथ उनके भ्रष्टाचार में कदम कदम पर साथ देने बाले प्रशासनिक अमले की तरफ? जिले में कौन बचा है जो बोलता है।
‘’ये नहीं चलेगा’’ भ्रष्ट तंत्र सबको निगल चुका है रवीश जी, आशा की एक किरण अगर कहीं बची है तो, वो भारतीय पुलिस सेवा के रूप में ही है।
इस देश के मजबूत कंधों वाले नौजवान वर्दी पहनने का ख्वाव कभी नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि यही वो अशोक स्तम्भ लगा हुआ कन्धा है, जिसमें दबावों को, खुद पर होने बाले आक्रमणों को सहने की, फिर देश के किसी और कोने में एक दो महीने में मुकुल द्विवेदी बनने की ताकत है। मुकुल के साथ, भारतीय पुलिस सेवा के साथ, ये व्यवहार क्यों? ये सिस्टम तय करे, क्योकि हमें तो ये भी नहीं पता कि हम नक्सल से लड़कर क्यों जान दे रहे हैं, जबकि देश का बुद्धिजीवी नक्सल को समर्थन देने के लिए रोज टीवी पर तर्क करता दिखता है। हमें तो ये भी नहीं पता कि भ्रष्ट मंत्री की जान को हम अपनी जान देकर क्यों बचाना चाहते है। सिर्फ इसलिए रवीश जी, क्योंकि हैदराबाद की अकादमी के सीमेंट से बने उस ग्राउंड पर हमसे संविधान का पालन करने की शपथ ले ली जाती है।
मुकुल कैसे शहादत से इंकार करे, कैसे कहे कि, ओ विद्वानों, ओ बुद्धिजीवियो अब मुझे इस कागज के पन्नों की शपथ मत दिलाओ। क्योंकि इसका मान अब मेरे अलावा और किसी में रखने की ना तो इच्छा रही है और ना ही आवश्यकता है। रवीश जी, चिंता ना करें भारतीय पुलिस सेवा खंडहर नहीं होंगी बल्कि ये last hope of the country रहेगी।
वरिष्ठ और कनिष्ठ की शहादत पर हम चुप नहीं होते, हम ये भी नहीं कहते कि हम क्या कर सकते है, बल्कि हम ये निर्धारण करते है कि इसी तरह हाथी की चाल में चलना है। हमारी वर्दी पसीने से भी भीगती है और दोस्त के गम के आँसुओ से भी। कर्तव्य निष्ठा के पाठ, और इससे बने ख्वाव, सिर्फ आदर्शवाद कहकर नहीं ठुकराये जा सकते। और ना ही इसके लड्डू खाने के लिए भारतीय पुलिस सेवा में हैं। अगर आप पूरा भारत देखेंगे तो हर दो तीन जिलों में आपको कंधे पर अशोक स्तम्भ लगा नौजवान दिख जायेगा, जो इस सिस्टम से अकेला लड़ रहा होगा, बिना बुद्धिजीवियों और बिना किसी सोशल मिडीया के समर्थन के। वो भी तब जब कोर्ट उसे महाभ्रष्ट मानता होगा, क्योंकि वो पुलिस है।
मानवाधिकार के समर्थक उसे दानव मानते होंगे क्योंकि वो पुलिस है। मिडिया उसे झूठा और ढोंगी मानती होंगी, क्योंकि वो पुलिस है। राजनेता उसे तबादलों और पदोन्नति का भूखा मानते होंगे क्योंकि वो पुलिस है।
फिर भी मुकुल हर तीसरे जिले में अपनी शहादत के लिए तैयार बैठा मिलेगा।
रवीश जी आप खोजिए तो सही !
मनोज कुमार शर्मा
(पुलिस अधिकारी मनोज कुमार शर्मा का यह पोस्ट हमने रवीश के ब्लॉग कस्बा से लिया है)