अजय बोकिल
हर दूसरे दिन एक नया बैंक घोटाला सुनने के आदी हो चुके कानों के लिए महाराष्ट्र का ‘मूषक घोटाला’ फौरी राहत और भ्रष्टाचार के नए आयामों से रूबरू होने के लिए काफी है। मामला महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई स्थित राज्य मंत्रालय में चूहे मारने के ठेके में फर्जीवाड़े से सम्बन्धित है। लगता है वहां मंत्रालय में बाकी और कुछ होता हो या न हो, चूहे पनपने के लिए भरपूर अनुकूल वातावरण रहा है। ये चूहे भी इतने ढीठ हो गए कि मस्ती में मंत्रालय की फाइलें कुतरने लगे। पहले ही बिना लिए दिए फाइलें आगे न बढ़ने से परेशान लोग अब फाइलें कुतर दिए जाने से त्रस्त थे।
चूहों की बेलगाम वृद्धि को देखते हुए सरकार ने चूहा सफाई अभियान शुरू किया। इसके लिए टेंडर निकला। पहले सर्वे कराया गया, जिसमें पाया गया कि मंत्रालय में कुल 3 लाख 19 हजार 400 चूहे हैं (इस सरकारी चूहा गणना की एक्युरेसी की भी दाद दी जानी चाहिए)। एक कंपनी को छह माह में इतने चूहे मारने का ठेका दिया गया। यानी प्रति दिन औसतन 1700 चूहे मारने का कठिन टास्क। लेकिन यह चूहा मार कंपनी गजब की एफिशिएंट निकली। उसने 7 दिनों में ही पूरा काम निपटा दिया।
जिस मंत्रालय में अमूमन फाइल एक दिन में एक इंच भी न खिसकती हो, उसी मंत्रालय में तमाम चूहे एक हफ्ते में साफ कर दिए गए। इस ‘असाधारण उपलब्धि’ को प्रदेश की फडनवीस सरकार अपनी कामयाबी बता पाती, इसके पहले ही राज्य के एक पूर्व मंत्री व वरिष्ठ भाजपा नेता एकनाथ खडसे ने विधानसभा में इस चूहा घोटाले का बिल्ली की चतुराई से भंडाफोड़ कर दिया। विधानसभा में सरकार की बजट मांगों पर चर्चा के दौरान खड़से ने यक्ष प्रश्न किया कि कंपनी ने छह माह का काम महज सात दिन में कैसे पूरा कर दिया? उन्होंने कहा कि यह भयंकर चूहा घोटाला है और इसकी जांच होनी चाहिए। कटाक्ष के लहजे में खडसे ने कहा कि सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं, उसके मुताबिक कंपनी ने एक दिन में 45,628.57 चूहे मारे।
यकीनन उसमें 0.57 नवजात रहे होंगे। यानी कि कंपनी ने हर मिनट 31.68 चूहे मारे। इस हिसाब से हर दिन मारे गए चूहों का वजन करीब 9,125.71 किलो ग्राम होगा और मृत चूहों को मंत्रालय से ले जाने के लिए रोजाना एक ट्रक की जरूरत पड़ी होगी। लेकिन इतने चूहों को कंपनी ने कहां और किसकी जानकारी में ठिकाने लगाया?
खडसे ने सरकार को सुझाव भी दिया कि इतने चूहों को मारने के लिए कंपनी को ठेका देने के बजाए 10 बिल्लियां ही लगा देती। यूं मुंबई महानगर पालिका भी शहर में चूहों को मारने का काम करती है, लेकिन उसे भी 6 लाख चूहे मारने में दो साल साल लग गए थे। यह कंपनी तो रोबोट को भी पीछे छोड़ रही है।
खडसे ने इस ‘ऑपरेशन चूहा मार’ पर खर्च पैसे को लेकर भी सवाल उठाए। साथ ही मुख्यमंत्री फडनवीस पर भी निशाना साधते हुए कहा कि जिन विभागों ने चूहा मारने के टेंडर जारी किए, वे सब मुख्यमंत्री के अधीन हैं। खडसे ने यह तंज भी किया कि हाल में आत्महत्या करने वाले धूलिया के किसान धर्मा पाटिल ने जिस जहर को खाकर जान दी, वह भी इसी चूहा मार अभियान में इस्तेमाल किया गया था। ये जहर इस्तेमाल करने की इजाजत कंपनी को किसने दी?
खडसे के हमले के बाद राज्य की फडनवीस सरकार की हालत सांप-छछूंदर जैसी है। उसे सूझ नहीं रहा कि क्या जवाब दें। दूसरे मामलों में कछुआ चाल चलने वाली फडनवीस सरकार मंत्रालय के चूहा मार अभियान में चौकड़ी कैसे भरने लगी, यह किसी के पल्ले नहीं पड़ रहा।
ध्यान रहे कि चूहे इस देश में भ्रष्टाचार के बाद दूसरी सबसे बड़ी समस्या हैं। फर्क इतना है कि पहले मामले में दो पैर वालों की जरूरत होती है तो दूसरे में चार पैर और पूंछ वालों की। दोनों ही व्यवस्था को अपनी क्षमता और निर्दयता से कुतरने में माहिर होते हैं। महाराष्ट्र ही क्यों, पूरा सरकारी तंत्र ही चूहों से भरा पड़ा है। रेलवे भी हर साल चूहा मारने के ठेका देता है। हाल में उसने चूहा ढूंढने और मारने की 29 करोड़ी की मशीन खरीदी है।
मध्यप्रदेश में इंदौर का सरकारी एमवाय अस्पताल अपने इलाज से ज्यादा ‘चूहा मार अभियान’ के लिए ख्यात रहा है। इसकी शुरुआत ऑपरेशन कायाकल्प के तहत तत्कालीन कलेक्टर एस. आर. मोहंती ने की थी। इसके लिए उन्हें पुरस्कार भी मिला था। उसके बाद तो चूहा मारे बिना इंदौर की कलेक्टरी पूरी नहीं होती। फिर भारत तो चूहों को पूजने वालों का देश है। गणेशजी का वाहन होने से उसे धार्मिक दृष्टि से वीआईपी दर्जा मिला हुआ है तो बिहार में एक जनजाति मुसहर ऐसी भी है, जो चूहों को बिल में से खोदकर मारकर खा जाती है।
लेकिन यहां मुद्दा लाखों चूहों को चुटकियों में मार देने के ‘चमत्कार’ का है। क्योंकि इतने चूहे साफ हो गए और कोई गवाह तक नहीं। मानो कोई अदृश्य शक्ति चूहों को मृत्यु का श्राप दे गई। भ्रष्टाचार के चूहे तो कभी कभार पकड़े जाने पर नजर आ भी जाते हैं, लेकिन मंत्रालय के चूहे इतनी सफाई से साफ हुए कि पत्ता तक न खड़का। जाहिर है कि ये चूहे वास्तव में कागजों में ही मरे। उन्हीं कागजों में, जिन्हें चूहों को फिर कुतर जाना है।
सरकारी चूहे इसी तरह मारे जाते हैं। वे मारे जा चुके हैं, यह खुद उन्हें भी पता नहीं होता और फुल पेमेंट भी हो जाता है। शायद इसी हवाई चूहा मार के लिए खडसे ने यह सवाल भी किया कि क्या सरकार अपने अफसरों को इस ‘उपलब्धि’ के लिए पुरस्कृत करेगी? क्योंकि भ्रष्टाचार के चूहे अमर होते हैं। वे मरकर भी नहीं मरते।
(सुबह सवेरे से साभार)