अजय बोकिल
जैसी कि उम्मीद थी कि बाबा रामदेव को कोरोनिल दवा बेचने की अनुमति केन्द्र सरकार ने दी है, इस हिदायत के साथ कि बाबा इसे कोरोना की दवा के नाम से न बेचें। बाबा पहले ही इसे ‘इम्युनिटी बूस्टर’ के नाम से लांच करते तो कोई बवाल होना ही नहीं था। क्योंकि सरकार ने उन्हें लायसेंस इसी का दिया था। बुधवार को अपनी पत्रकार वार्ता में बाबा यह दावा करने से साफ बचे कि उनका उत्पाद कोरोना की ‘दवा’ है। उन्होंने सरकार द्वारा पूर्व में लगाई रोक को कुछ लोगों की ‘आयुर्वेद के प्रति घृणा’ और ‘बहुराष्ट्रीय दवा माफिया’ से जोड़ने की कोशिश की।
लेकिन बाबा का सबसे दिलचस्प और विचारणीय सवाल यह था कि क्या कोई संन्यासी या धोती-लंगोटी पहनने वाला रिसर्च नहीं कर सकता? ऐसी सोच सामंतवादी और साम्राज्यवादी दृष्टिकोण का परिणाम है। बाबा ने यह भी कहा कि हमने देश में करोड़ो रुपए लगाकर रिसर्च सेंटर बनाए हैं। हम इस दवा पर आगे और काम करेंगे। बाबा के इस चुनौतीपूर्ण सवाल से अमूमन हर कोई सहमत होगा कि कोई भी संन्यासी या धोती-कुरताधारी बिल्कुल रिसर्च कर सकता है। क्योंकि रिसर्च दिमाग से होती है, कपड़ों से नहीं।
और भारत जैसे देश में जब एक लंगोटीधारी अंगरेजों को भगा सकता है तो दवा रिसर्च तो बहुत छोटी चीज है। मोदी सरकार के आयुष मंत्रालय ने भी बाबा से सिर्फ यह जानना चाहा था कि पतंजलि आयुर्वेद ने जिस कोरोनिल दवा बनाने का दावा किया, उसका ट्रायल कहां, किन लोगों पर और कब किया गया? ड्रेस कोड तो मंत्रालय ने भी नहीं पूछा था। इस बीच यह खबर भी आई कि भारत सरकार के औषधि महानियंत्रक ने कोरोना के ‘कोवैक्सीन’ नामक वैक्सीन के ह्यूमन ट्रायल को मंजूरी दे दी है।
इस वैक्सीन के प्री-क्लीनिकल ट्रायल कामयाब रहे थे। इस पहली ‘स्वदेशी’ कोरोना वैक्सीन को हैदराबाद की फार्मा कंपनी भारत बायोटेक ने भारत सरकार के इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी, पुणे के साथ मिलकर बनाया है। पांच और भारतीय कंपनियां निर्धारित मापदंडों के मुताबिक कोरोना वैक्सीन तैयार करने में लगी हैं।
यहां सवाल उठ सकता है कि क्या सरकार दवा कंपनियों के दबाव में बाबा की दवा को बाजार में नहीं आने देना चाहती थी? लेकिन हकीकत यह है कि बाबा की आयुर्वेदिक दवा से उनका कोई मुकाबला ही नहीं है, क्योंकि असल में वह दवा है ही नहीं। खुद आयुष मंत्रालय ने अपने मंजूरी पत्र में लिखा है कि पतंजलि ने कोरोना के खिलाफ ‘कोरोनिल’ के रूप में ‘एक अच्छी पहल’ की है। बाबा का दर्द यह है कि उनके ‘अच्छे काम’ के बाद भी उन्हें मीडिया में इस तरह ट्रोल किया गया मानों आयुर्वेद पर काम करना अपराध है। बाबा पर केस भी दर्ज हो गए।
बाबा ने सरकार की इस ‘सशर्त मंजूरी’ का भी स्वागत करते हुए कहा कि ‘कोरोनिल’ मनुष्य की श्वसन प्रणाली को ठीक करती है। उधर कोरोनिल निर्माता पतंजलि आयुर्वेद ने भी कहा है कि कोरोनिल ‘बीमारी को मैनेज करने वाला’ एक उत्पाद है। कंपनी के सीईओ आचार्य बालकृष्ण के अनुसार पतंजलि ने कभी नहीं कहा था कि कंपनी की कोरोनिल दवा से कोरोना वायरस का इलाज हो सकता है। ध्यान रहे कि बाबा रामदेव द्वारा एक हफ्ते पहले देश में कोरोना की दवा लांच किए जाने के बाद खासा बवाल मचा था और भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने ताबड़तोड़ इसकी बिक्री और प्रचार प्रसार पर रोक लगा दी थी।
आयुर्वेदिक दवाओं के कारोबार से परे अगर आयुर्वेदशास्त्र की महत्ता के बारे में बात करें तो शायद ही कोई इससे असहमत होगा कि आयुर्वेद एक मान्य चिकित्सा पद्धति है। लक्षणों के आधार पर इलाज करने का इसका अपना तरीका है और यह जड़ी-बूटियों से उपचार करने का हमारा पारंपरिक और अनुभवजन्य ज्ञान है। जरूरत केवल इस ज्ञान के सही दस्तावेजीकरण और आधुनिक विज्ञान के आलोक में उसकी प्रामाणिकता परखने की है। यह काम भी हो रहा है, लेकिन बहुत से मामलों में यह ‘वैदजी के निजी ज्ञान’ तक ही सिमटा हुआ है। जबकि चिकित्सा की हर पैथी सबके लिए खुली और सुलभ होनी चाहिए। क्योंकि यह समूची मानवता की स्वास्थ्य रक्षा का प्रश्न है।
बाबा का अहम सवाल है कि क्या धोती-लंगोटी वाले रिसर्च नहीं कर सकते? इसका जवाब बाबा के सवाल में ही छुपा है कि हमारे प्राचीन वैज्ञानिक-ऋषि कोई लैब कोट या पीपीई किट पहन कर अनुसंधान नहीं करते थे। जो भी वर्णन हमने पढ़े हैं, उसमें ऋषि साधारण धोती या पीताम्बर पहन कर ही अपना शोध कार्य इत्यादि किया करते थे। किसी भी शोध के लिए प्रज्ञा और गहन जिज्ञासा की जरूरत होती है न कि ड्रेस कोड की। न ऋषि चरक ने किसी तरह का कोट पहना और न ही सुश्रुत ने। अनुसंधानकर्ता भी अपने समय के फैशन आचार के अनुरूप ही वस्त्र पहनते हैं। सुश्रुत को विश्व का पहला शल्यचिकित्सक माना जाता है। चरक तो सम्राट कनिष्क के राज वैद्य थे।
यही बात अन्य चिकित्सा पद्धतियों के बारे में भी लागू होती है। आधुनिक प्रयोगात्मक विज्ञान की आधार शिला रखने वाले अनेक वैज्ञानिक पेशे से पादरी थे या कोई अन्य व्यवसाय करते थे। उनकी वेशभूषा भी कैथोलिक चर्च के नियमों के मुताबिक होती थी, लेकिन वो योगदान विज्ञान के विकास में और समाज को वैज्ञानिक दृष्टि देने का कर रहे थे। इस श्रेणी में कोपरनिकस, जॉर्ज मेंडेल, जोसे द कोस्टा, रोजर बेकन आदि के नाम प्रमुख हैं।
अगर बाबा का निशाना आधुनिक विज्ञान प्रयोगशालाओं में लैब कोट और सुरक्षा किट पहने वैज्ञानिकों पर है तो इसकी वजह बहुत साफ है। प्रयोगशालाओं में अनेक खतरनाक रसायनों, बैक्टीरिया और विषाणुओं पर शोध होता है। इसलिए शोधकर्ताओं को खुद को बचाने के लिए यह सब पहनना जरूरी है। चूंकि एलोपैथिक दवाएं विभिन्न प्रकारों के संश्लेषित रसायनों से बनती हैं, इसलिए उनसे खतरा ज्यादा होता है। वैज्ञानिकों को लैब कोट के साथ एप्रन, ग्लव्ज, मास्क तथा अन्य सुरक्षा उपकरण धारण करना जरूरी होते हैं।
जबकि आयुर्वेदिक दवाएं मुख्य रूप से जड़ी-बूटियों या वनस्पतियों से बनती हैं, इसलिए उनसे मानव शरीर को खतरा न्यूनतम होता है। लिहाजा वो शरीर पर न्यूनतम वस्त्र धारण कर बनाई जा सकती हैं, उन पर शोध किया जा सकता है। ताजा अध्ययन यह बताते हैं कि शोधकार्य के दौरान पहने गए वस्त्र लोगों के व्यक्तित्व और क्षमताओं को प्रभावित करते हैं।
इसका एक निष्कर्ष यह भी है कि अभद्र अथवा शरीर उघाड़ू वस्त्रों की तुलना में पारंपरिक वस्त्र आपको ज्यादा आत्म नियंत्रित और आत्मविश्वासी सिद्ध करते हैं। वैसे लैब कोट पहनना प्रयोगशाला में काम करने वाले वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय पहचान उसी तरह बन गई है, जैसे कि वकीलों का काला कोट।
लेकिन लगता है कि बाबा का टारगेट उस मानसिकता पर है, जो पश्चिमी सोच की गुलाम है और आयुर्वेद को हिकारत और अविश्वास के भाव से देखती है। लेकिन इस सोच का भी टाइ-सूट से कोई सीधा लेना-देना नहीं है। वो भी एक पहनावा भर है। निंदनीय वह सोच है, जो किसी एक पैथी, विचार अथवा तंत्र को ही अकाट्य मान लेती है। एलोपैथी के सबसे बड़े आलोचक भी एलोपैथिक डॉक्टर ही हैं। इसीलिए वहां नित नए शोध की गुंजाइश बनती है।
सबसे अहम बात ये कि बाबा योगाचार्य हैं, साथ में आयुर्वेदिक दवाओं के कारोबारी भी हैं। वो दवा सहित अन्य क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों को व्यावसायिक टक्कर दे रहे हैं, यह सराहनीय है। लेकिन दवा का ‘कारोबार’ भी भारतीय परंपरा नहीं है। पुराने ग्रंथों में शायद ही कहीं उल्लेख हो कि फलां ऋषि ने कोई दवा बनाकर कमाई के लिए लांच की। वो अनुसंधान कर दवाइयां बनाते थे तो लोक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए।
अगर व्यवसाय के लिए उन्होंने दवाएं अपने नाम पेटेंट करा ली होतीं तो आज प्राचीन ग्रंथों में उनके शोधकार्य को खोजना नहीं पड़ता। और फिर कोई दवा इसलिए मान्य नहीं हो जाती कि वह किसी बाबा ने बनाई है। अनुसंधान और प्रामाणिकता के मानदंड भी हमने अपने सुदीर्घ अनुभवों के आधार पर ही तैयार किए हैं। बाबा कोरोना रोग प्रतिरोधक गोली शौक से बेचें, लेकिन अगर आप इसे ‘दवा’ मानकर लें तो साथ में ‘दुआ’ भी करते चलें।
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टीम मध्यमत