प्रियदर्शन
यूपी में राम राज लाने का दावा कर रही योगी सरकार किसी और से नहीं तो अपने इष्टदेव भगवान राम से कुछ सीख लेती। सिर्फ़ एक धोबी के आरोप पर उन्होंने अपनी पत्नी को निर्वासित कर दिया था। ऐसा नहीं कि उन्हें पता नहीं था कि वे अन्याय कर रहे हैं, लेकिन संभवतः उनका मानना था कि राजा के चरित्र को सभी संदेहों से परे होना चाहिए। 2000 साल पहले रोम के सम्राट जूलियस सीज़र की पत्नी के बारे में कहा गया- सीज़र की पत्नी को हर संदेह से परे होना होगा।
नैतिकता के इन मानदंडों से निस्संदेह हमारी समकालीन राजनीति कोसों दूर है, लेकिन उत्तर प्रदेश के उन्नाव केस में जो हो रहा है, वह जैसे अनैतिकता के नए मानदंड बना रहा है। यहां सत्तारूढ़ पार्टी के एक विधायक पर संदेह नहीं, सीधे आरोप हैं। आरोप उस लड़की ने लगाए हैं जो पीड़ित है। इस आरोप की सज़ा उसके पिता ने भुगती है। उन्हें पकड़ा गया, गिरफ़्तार किया गया, पुलिस के सामने उनकी इस बुरी तरह पिटाई हुई कि मौत हो गई।
मरने से पहले उस घायल शख़्स ने कहा कि उसे विधायक के भाई ने पीटा। विधायक पर संगीन धाराओं में आरोप हैं- बलात्कार, अपहरण और पॉक्सो की उन धाराओं में, जिनमें सीधे गिरफ़्तारी का प्रावधान है। लेकिन राज्य की पुलिस विधायक को गिरफ़्तार करने को तैयार नहीं है। विधायक पुलिसवालों के पास जाते हैं, उन्हें समझा कर लौट जाते हैं, बताते हैं कि उन पर कोई आरोप नहीं है।
राम की कहानी को कुछ और आगे बढ़ाएं। रावण ने सीता का अपहरण किया। इस एक अपराध की सज़ा उसे अपने प्राण और अपना राज्य देकर भुगतनी पड़ी। क्या राम के लिए यह मामला बस इसलिए महत्वपूर्ण था कि रावण ने उनकी पत्नी का अपहरण किया? क्या राम कथा हमारे मानस में बस इसलिए बैठी हुई है कि हम इसमें रावण से राम का बदला देखते हैं?
दरअसल यह उस मर्यादाभंग की कहानी थी जिसने एक को राम और दूसरे को रावण बनाया। सीता का सम्मान उस युग में भी मर्यादा का प्रश्न था। उस सीता के साथ राम ने बाद में जो कुछ किया, उसका भी दंड उन्हें भुगतना पड़ा। राम के अश्वमेध को सीता के बलशाली पुत्रों ने रोका- रावण को हराने वाले नायकों को बंदी बना लिया।
रामकथा की सीख दो तरह की है। उसमें बहुत कुछ है, हम जिसका अनुसरण कर सकते हैं। लेकिन उसमें बहुत कुछ है जिसे नकार कर आगे बढ़ सकते हैं। प्रश्न अपने चुनाव का है, अपनी संवेदना और अपने विवेक के इस्तेमाल का है।
लेकिन जब संवेदना सूख जाए और विवेक मर जाए तो राम प्रेरणा के प्रतीक पुरुष नहीं रहते, राजनीति का हथियार बन जाते हैं, राम राज्य जनता के कल्याण का आदर्श नहीं, राजनीतिक महत्वाकांक्षा का इंजन बन जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार का रामराज्य और बीजेपी के राम- दोनों इसी की मिसाल बन गए हैं।
इसलिए अपनी ताकत के अहंकार में डूबा एक विधायक खुद अपने लिए न्यायाधीश बन जाता है और पूरी कानूनी प्रक्रिया को अंगूठा दिखाता है। जबकि राज्य का डीजीपी बताता है कि अब राज्य की पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करेगी, क्योंकि मामला सीबीआई के पास चला गया है।
यह हालत उस राज्य में है जहां न जाने कितने निरपराध बरसों से अपनी सुनवाई के इंतज़ार में जेल में हैं, जहां के मुख्यमंत्री पुलिस मुठभेड़ों को जायज़ ठहराते हैं और राज्य को अपराधमुक्त करने का दावा करते हैं। लेकिन उनका अपना विधायक जब संगीन आरोपों से घिरा है तो वे चुप हैं। जब उनकी पार्टी के नेता भी इसे सरकार के लिए शर्मनाक बता रहे हैं, तब भी उन पर जूं नहीं रेंग रही है। जाहिर है, उनके लिए कानून बस वह छड़ी है जिससे विरोधियों या कमज़ोरों को पीटा जाता है।
राम कहीं होंगे तो पहले से ही अपने भक्तों के कृत्य पर शर्मिंदा और शर्मसार हो गए होंगे। सीता होंगी तो डर गई होंगी- अच्छा हुआ, वे रावण की अशोक वाटिका में रहीं, उन्नाव के किसी इलाक़े में नहीं।
(दयाशंकर मिश्र की फेसबुक वॉल से साभार)