राममंदिर के साइड इफेक्ट्स और एकेडेमिक्स का रुदाली रुदन

डॉ. अजय खेमरिया

भारत की संसदीय राजनीति में हिंदुत्व का अधिष्ठान छद्म सेक्युलरिज्म के भाड़ेदारों को भयादोहित करने लगा है। क्या मानसिक रूप से यह तबका इतना कृपण हो चला है कि उसके सन्तुलन पर भी सवाल उठने लगे? 5 अगस्त की तारीख असल में चुनावी राजनीति के व्याकरण को बदल रही है। 365 दिन के अंतराल में इस तारीख ने 360 डिग्री से संसदीय सियासत को भी बदला है। कश्मीर से 370 का खात्मा फिर राममंदिर का कार्यारंभ।

इस तारीख के साइड इफेक्ट्स भी सामने आ रहे है। पुण्यप्रसून वाजपेयी ने एक ट्वीट किया है, जिसमें मोदी सरकार की लोकप्रियता को कटघरे में खड़ा करने के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया की उस रिपोर्ट को आधार बनाया गया है जिसमें राममन्दिर कार्यारंभ समारोह को 16 करोड़ लोगों द्वारा टेलीविजन पर देखने का जिक्र है। यह आंकड़ा दूरदर्शन के अधिकृत मैकेनिज्म से जारी किया गया है। पुण्यप्रसून ने इस डेटा को 2019 में बीजेपी को मिले 23 करोड़ वोटरों के साथ चिपका कर यह साबित करने का प्रयास किया कि मोदी कितने अलोकप्रिय हो रहे हैं।

हालांकि पुण्यप्रसून यह ट्वीट कर बुरी तरह फंस गए 5 हजार से ज्यादा लोगों ने जवाब देकर उनकी समझ पर सवाल उठाया। क्योंकि यह 16 करोड़ टीव्ही सेट का आंकड़ा केवल दूरदर्शन ने जारी किया था और आजकल लोग यू ट्यूब,फेसबुक पर भी टीवी देखते हैं। दूरदर्शन से इस समारोह  के लिये 200 निजी चैनल्स ने फीड लिया था। एक टीवी को घर में औसत 3 लोग ही देखें तो यह आंकड़ा क्या होगा, साथ ही सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के दर्शक भी जोड़ दिए जाएं तो तस्वीर आसानी से समझी जा सकती है। पुण्यप्रसून की मोदी औऱ बीजेपी से जाती दुश्मनी को लोगों ने जमकर एक्सपोज किया है।

इसी श्रेणी के दूसरे पत्रकार हैं राजदीप सरदेसाई। 5 अगस्त इन्हें भी भूत की तरह परेशान कर रहा है। वे ट्वीट करते हैं कि देश में दो ही पति हैं “सीतापति औऱ नीतापति”। यानी वे मुकेश अंबानी की पत्नी नीता औऱ माँ सीता की तुलना कर रहे थे। मन में निशाने पर मोदी और राममंदिर ही थे। यह अलग बात है कि सरदेसाई के चैनल ‘आज तक’ पर जो ‘मूड ऑफ नेशन’ सर्वे जारी हुआ उसने मोदी और योगी की बादशाहत को लोकप्रियता औऱ शासन के मामले में शिखर पर रखा है।

सरदेसाई की पत्नी सागारिका घोष की परेशानी भी समझी जा सकती है वह 5 अगस्त को 370 औऱ मन्दिर निर्माण को एक आत्मचिंतन का आह्वान कर रही है। राणा अयूब, आरफा खानम, रामचन्द्र गुहा, प्रशांत भूषण, मुनव्वर राणा, विनोद दुआ, रवीश कुमार, संदीप चौधरी सहित तमाम भाड़े के सेक्यूलर बुद्धिजीवी इस रुदाली रुदन में लगे है मानो भरी जवानी में वैधव्य का दंश इन्हें आन पड़ा हो।

ओबैसी के बयानों को छोड़ दिया जाए तो हमारे तथाकथित इंटलेक्चुअल औऱ एकेडेमिक्स एक एक करके बेनकाब हो रहे है। इन्टॉलरेंस, मॉब लिंचिंग, हिन्दू राष्ट्र, लिब्रलजिम, फ़ण्डामेंटलिज्म औऱ ऐसे ही तमाम भारी भरकम शब्दों को सुगठित तरीके से मीडिया में विमर्श का केंद्र बनाकर 2014 से ही एक ऐसा नकली माहौल मुल्क में बनाया जाता रहा है जो वैश्विक रूप से भारत की छवि को खराब करे।राजदीप, वाजपेयी, आरफा, करण थापर, सागारिका, राजदान, बरखा, प्रंजात, अनुराधा प्रसाद जैसे तमाम पत्रकारों से लेकर मोदी सरकार के दौर में लुटियन्स से खदेड़े गए ब्यूरोक्रेट्स, एकेडेमिक्स, एक्टिविस्ट की एक पूरी फ़ौज मोदी सरकार पर मनमानी करने, संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करने के आरोप लगाते रहते है। भारत के माहौल को इतना खराब बताते है कि यहां आमिर खान, नसीरुद्दीन शाह, हामिद अंसारी जैसे लोग सुनियोजित ढंग से यह कहते है कि भारत में रहने से उन्हें डर लगने लगा है।

दूसरी तरफ यही तबका दो बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर आये एक पीएम को स्वीकार करने के लिए राजी नही है। भारत की न्यायपालिका को केवल इसलिए लांछित किया जा रहा है क्योंकि उसने एक पारदर्शी न्यायिक प्रक्रिया को अपनाकर राममंदिर विवाद का समाधान कर दिया। समस्या शायद तब कतई नहीं होती अगर मन्दिर विवाद का निर्णय तथाकथित बाबरी ढांचे के पक्ष में आया होता। इस बड़े सुविधाभोगी गिरोह को सुप्रीम कोर्ट और रंजन गोगोई तब प्रिय लग रहे थे जब वे जस्टिस दीपक मिश्रा के विरुद्ध शेखर गुप्ता औऱ डी. राजा के साथ बैठकर प्रेस वार्ता कर रहे थे। या आधी रात को अफजल की फांसी पर कोर्ट खोलकर बैठे थे।

असल में संविधान को संकट में बताने वाले इन बड़े गिरोहों ने ही देश के ताने बाने को सर्वाधिक दूषित किया है। 70 साल से जमी इनकी सेक्युलरिज्म की नकली दुकान पर तालाबन्दी की हालत मोदी ने नहीं देश की जनता ने खुद की है। देश के मिजाज को बताने वाले इंडिया टुडे-आजतक के सर्वे में अगर बारीकी से देखें तो समझ आता है कि भारत की संसदीय सियासत 360 डिग्री से घूम रही है। अब अल्पसंख्यकवाद नहीं बहुसंख्यकवाद की स्थापना का दौर आ रहा है।

मोदी और योगी को लोकप्रियता के चरम पर बताने वाले सर्वे में 82 फीसदी हिन्दू शामिल थे। मन्दिर ट्रस्ट में जातिगत विभेद खड़ा करने वाले इन संगठित गिरोहों को यह समझना होगा कि सर्वे में मोदी को पसंद करने वाले 44 फीसदी ओबीसी, 25 फीसदी दलित-आदिवासी औऱ 30 फीसदी ऊंची जातियों के लोग हैं। जाहिर है टीवी औऱ सोशल मीडिया पर जिन तबकों की बात की जाती है वे मजबूती के साथ खुद को मोदी औऱ बहुसंख्यकवाद की थ्योरी से जोड़ रहे हैं।

सवाल यह भी है कि क्या बहुसंख्यकवाद भारत के संसदीय मॉडल को हिन्दू राष्ट्र की ओर ले जाएगा? जैसा की डर खड़ा करते रहे हैं लिबरल्स और सेक्युलरिस्ट। प्रधानमंत्री मोदी के 5 अगस्त के भाषण में इसका सटीक और तार्किक जवाब निहित है। उन्होंने राम को भारत की संस्कृति के साथ जोड़ा है और संस्कृति हमारे अंदर का तत्व है, जिसका घालमेल अक्सर सभ्यता के बाहरी आवरण से कर दिया जाता रहा है। क्या इंडोनेशिया, मलेशिया, नेपाल, श्रीलंका, मारीशस जैसे देशों में राम की व्याप्ति ने उनकी सभ्यता को अतिक्रमित किया है?

राम भारत में एक आदि पहचान हैं, उनसे जुड़ी संस्कृति गर्व का विषय है। इसीलिए सैकड़ों सालों की मुगलई औऱ औपनिवेशिक गुलामी के बावजूद राम का अस्तित्व बरकरार रहा है। राम हिंदुत्व की आत्मा है और इससे किसी का कोई टकराव संभव ही नहीं है। सवाल बस इतनी उदारता का है कि क्या भारत के कथित अल्पसंख्यक अपनी मौलिक संस्कृति के अस्तित्व को स्वीकार करने की जहमत उठाते हैं या इन सेक्युलरिस्ट गिरोहों के बहकावे में ही भटकते रहते हैं। जैसा कि संभल के सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क कहते हैं कि मोदी ने अपनी ताकत के बल पर मन्दिर का निर्णय कराया है। सीताराम येचुरी इसे संविधान के विरुद्ध ही बता चुके हैं। आल इंडिया इमाम एशोसिएशन के अध्यक्ष साजिद रशीद बाबरी मस्जिद के लिए मन्दिर को फिर तोड़ने की इच्छा रखते हैं तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अयोध्या निर्णय को अभी भी बहुसंख्यक तुष्टीकरण, दमनात्मक और अन्यायी बता रहा है।

ये सभी तत्व असल में भारत की आत्मा से वाकिफ ही नहीं हैं। इनके रिमोट कंट्रोल भारत से बाहर स्थित हैं। ठीक वैसे ही जैसा हमने जम्मू कश्मीर के मामले में देखा है। वहां भी कुछ सुविधभोगी सियासी चेहरों को यही गुमान था कि 370 हटी तो आग लग जायेगी..! लेकिन एक साल बाद कश्मीर की वादियों में फिजा बदली है, भारत की ताकत कश्मीरी योगदान से बढ़ने के संकेत मिल रहे हैं। कमोबेश राममंदिर पर बार-बार तारीख पूछने वाले सेक्युलरिस्ट तारीख मिलने के बाद पगलाए हुए हैं। उनकी लुट चुकी बौद्धिक दुकान का कर्कश रुदन सोशल मीडिया पर ही सिमट गया है।

नया भारत समवेत होकर अपने गौरव पर आल्हादित नजर आता है। वह अपने स्वत्व को छिपा नहीं रहा है बल्कि उसके सांस्कृतिक मानबिन्दुओं को अपमानित करने वाले इन पत्रकारों, इंटेलेक्चुअलस,एकेडेमिक्स को मुँहतोड़ जवाब देना भी सीख गया है। अयोध्या विवाद के पक्षकार इकबाल अंसारी से इन तथाकथित बुद्धिजीवियों को भारत की संस्कृति समझने के लिए जाना चाहिये, जिन्होंने सबसे पहले निर्णय का न केवल स्वागत किया बल्कि मन्दिर कार्यारंभ में शान से शिरकत भी की। लेकिन इकबाल विमर्श से गायब हैं, क्योंकि वह आम मुसलमान की भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह भारत के संविधान में भरोसेमंद शख्स हैं। वह राम के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला सच्चा मुसलमान है। इस सच  को स्वीकारने के साथ ही सेक्युलरिज्म के शोरूम बन्द होने का खतरा है इसलिए शफीकुर्रहमान, साजिद रशीद, राजदीप उनकी पत्नी और पुण्यप्रसून इन्हें विमर्श में जिंदा बनाए रखेंगे।

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