गिरीश उपाध्‍याय 

यह दस साल पुरानी बात है। मैं अमर उजाला, चंडीगढ़ से राजस्‍थान पत्रिका, जयपुर पहुंचा था। उस समय वहां मुख्‍य संपादकीय कामकाज अखबार के मुख्‍यालय केसरगढ़ से ही संचालित होता था। मुझे कुछ ही दिन हुए थे और मैं अखबार का कामकाज समझने और उससे भी ज्‍यादा संपादकीय साथियों के मिजाज को बूझने की कोशिश कर रहा था।

वहां एक आदमी मुझे पहले दिन से ही समझ में नहीं आया। समझ में न आने का मतलब वो मुझे कुछ गड़बड़ लगता था। बहुत ही सूनी और संदिग्‍ध सी आंखों के साथ चीजों को देखना। अखबार के दफ्तर की घोर सक्रियता और गहमा गहमी के बीच बस एक चुप सी लगी है जैसी खामोशी ओढ़े रखना। कभी बुलाकर कोई काम करने को कहो तो ‘हां’, ना के अलावा आगे बढ़ना ही नहीं। मुझे शक होता था, यह आदमी नशा वशा तो करके नहीं आता। कोई ऐसा नशा जो आमतौर पर सूंघ कर पहचाने जाने वाले नशे से अलग होता हो….

धीरे धीरे मैंने उस आदमी की गिरह खोलने की कोशिश की। आदत कहें या स्‍वभाव, दोनों के मु‍ताबिक उसने प्रतिरोध किया। ऐसा लगा उसने अपने आसपास कोई फायर वॉल लगा रखी है। एक दिन बुलाकर पूछा- ‘तुम्‍हारे साथ कोई प्रॉब्‍लम है?’  ‘नहीं सर, ऐसा तो कुछ नहीं।‘ यह मेरे साथ उसका पहला सबसे लंबा संवाद था। उसके बाद फिर वही चुप्‍पी।

मैंने उसके साथ काम करने वालों से पूछा- ‘’ये आदमी चीज क्‍या है? और यदि यह ऐसा ही है तो ये अखबार में क्‍या कर रहा है, इसे तो किसी श्‍मशान साधना में बैठा होना चाहिए।‘’ आसपास वाले कहते सर वो ऐसा ही है। बोलता ही नहीं। अपने काम से काम रखता है। मैंने कहा- ‘’अखबार के दफ्तर में सिर्फ अपने काम से ही काम रखने वाला आदमी कैसे चल सकता है।‘’ लेकिन वो चल रहा था… चलता रहा… कभी कभी मुझे लगता उसके चेहरे पर एक घोर विद्रोह सा ठहरा हुआ है। वैसा विद्रोह जैसा आप किसी नक्‍सली के चेहरे पर देख सकते हैं। उसके चेहरे का तनाव और उससे भी ज्‍यादा उसकी आंखों का वह भयावह सूनापन कभी कभी डराता था। उससे काम करवाने में लोगों को थोड़ी हिचक होती थी। पता नहीं कैसे रिएक्‍ट करेगा।

थोड़े दिनों बाद वह आदमी मुझे एक चुनौती लगने लगा। कई जगह काम करने के बाद आदमी में एक अलग तरह के आत्‍मविश्‍वास का घमंड आ जाता है, दूसरों के कवच को तोड़ने की क्षमता का घमंड। लंबे समय तक मेरे इसी आत्‍मविश्‍वास और उसके विद्रोही तेवरों के बीच शीत द्वंद्व चलता रहा। मैंने हार नहीं मानी… मैं उसे तोड़ने पर तुला था और वह न टूटने पर डटा हुआ था।

एक दिन मैंने किसी खबर पर बात करने के बहाने उसे अपने कमरे में बुलाया, वह अपने उसी शाश्‍वत शून्‍य भाव से सामने आकर खड़ा हो गया। थोड़ी देर मैं एकटक आंखों में आंखें डालकर उसके चेहरे को देखता रहा और वो बिना पलक झपकाए मेरे चेहरे की ओर। अचानक मैं मुस्‍कुरा दिया… लगा जैसे बिजली सी कौंधी… उसके चेहरे पर भी बहुत ही हल्‍की सी मुस्‍कुराहट आई। हड्डियों के डॉक्‍टर की भाषा में कहें तो हेयरलाइन स्‍माइल’…

जिस तरह वह मुस्‍कुराया था, उससे साफ लगा कि उसने अपनी मुस्‍कुराहट को रोकने में पूरी ताकत लगा दी थी, लेकिन सारे बंध तोड़कर वह होठों पर तैर ही गई। अब इसे अपराध बोध कहें, या झेंपना या फिर कुछ और… मैंने उसे जिस काम के लिए बुलाया था, उसे सुने बगैर वह उस मुस्‍कुराहट को मेरे चेहरे पर चस्‍पा कर उलटे पांव लौट गया। खबर की बात धरी की धरी रह गई… लेकिन उसका मुस्‍कुराना मेरे लिए उस दिन की हेडलाइन या बैनर से कम नहीं था।

मुस्‍कुराहट दोनों तरफ थी, इसलिए न किसी की हार हुई न किसी की जीत… उसके बाद तो ग्‍लेशियर ऐसे पिघले कि लगा, कहीं निचले इलाकों में बाढ़ न आ जाए। संवाद का जो सिलसिला शुरू होने का नाम ही नहीं ले रहा था, उसने ऐसा रंग जमाया कि, बगैर तर्क या तीखी टीका टिप्‍पणी के, किसी की न सुनने वाला वह आदमी, मेरे कहे को चुपचाप सुनने और मुझे ताज्‍जुब में डालते हुए, मानने भी लगा था। और वह भी यकीनन… अपने स्‍वभाव के विपरीत बिना किसी विरोध, विमत, तर्क या कुतर्क के…

फिर मैं जितने दिन उस दफ्तर में रहा… हमारे बीच मुस्‍कुराहट ही अभिवादन का जरिया बनी रही…

पता नहीं राजस्‍थान पत्रिका में मैं याद हूं या नहीं, लेकिन वहां बिताए अपने दिन और उन दिनों से ज्‍यादा वे लोग मुझे याद आते हैं, जिनके साथ मैंने जिंदगी के बहुत सारे खुशनुमा पल बिताए। उन लोगों में ‘बाबा’ भी एक था। वही ‘बाबा’ जिसके बारे में मैंने ऊपर जाने क्‍या क्‍या लिख डाला। क्‍या कहा…? आप बाबा को नहीं जानते?? अरे वही अपना पुराना साथी मुकेश पांडे… जिसके बारे में खबर आई है कि वो अब इस दुनिया में नहीं रहा…

कह नहीं सकता कि, इस समय वो कम्‍बख्‍त वहां भी चेहरे पर वही विद्रोही तेवर लिए ऊपर वाले से जिरह कर रहा होगा या उसके चेहरे पर मुस्‍कुराहट होगी… अलबत्‍ता यहां उसने आंखों को नम जरूर कर दिया है…

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