राजेश बादल
चंद रोज़ पहले भारत का लोक प्रसारण दिवस था। क्या किसी को इस दिन का महत्व याद आया? कम लोग ही ऐसे होंगे। पर, जबलपुर के प्रसारण प्रेमियों ने इस दिन को शिद्दत से याद किया। इस दिन महात्मा गांधी पहली और आख़िरी बार आकाशवाणी के स्टूडियो गए थे और देशवासियों को संबोधित किया था। 12 नवंबर, 1947 की तारीख़ को इसीलिए यह दिवस मनाया जाता है।
एक ज़माने में जबलपुर को भारत की संस्कार धानी कहा जाता थाI इस शहर के प्रसारण प्रेमियों ने इस संस्कार को अभी तक बचा कर रखा है। उस दिन जबलपुर के दुर्गावती सभागार प्रांगण में ऐसा ही आयोजन हुआ। यह अवसर इसलिए भी ख़ास बन गया, क्योंकि एक बेजोड़ प्रसारक, स्वभाव से फ़कीर और आकाशवाणी के आला अफसर रहे गरजन सिंह वरकड़े की दो अदभुत पुस्तकों के लोकार्पण का मुझे सौभाग्य मिला। इस कार्यक्रम में महात्मा गांधी के संबोधन की वह ऐतिहासिक रिकॉर्डिंग भी सुनवाई गई। उसे सुनना मेरी ज़िंदगी का अविस्मरणीय पल था। एक पुस्तक आवाज़ों की दुनिया और दूसरी, बातें मुलाकातें प्रसारण संसार का हिस्सा बन गईं।
बतौर मुख्य वक्ता मैंने अपनी बात रखते हुए कहा कि हिंदुस्तान में संप्रेषण के कितने ही नए अवतार आ जाएं, वे रेडियो के लिए कभी चुनौती नहीं बन सकते। चाहे वह समाचार पत्र हो अथवा टेलिविजन या फिर डिजिटल माध्यम का कोई नया रूप। हां, उतार चढ़ाव आते रहते हैं। लेकिन, ऐसा तो सभी विधाओं के साथ होता है। असल ज़िंदगी में भी होता है। यह आकाशवाणी के लिए मुश्किल दौर है। जिस महान संस्था ने मुल्क की रगों में लोकतंत्र को दौड़ाने का काम किया हो, जो जन-जन की सांसों में जम्हूरियत के धड़कने का सबब बन गई हो, अब उसी गंगा की मुख्यधारा को सुखाने का काम किया जा रहा है। भारत के बहुरंगी ताने बाने को आकाशवाणी ने कुछ इस तरह बुना है कि अब उसे टूटते देखना तकलीफदेह है।
एक तरफ आधुनिक तकनीक ने प्रसारण की शास्त्रीयता पर आक्रमण किया है, तो दूसरी ओर नई नस्लों को हम इस रेडियो आंदोलन से शायद उस तरह नही जोड़ पा रहे हैं, जिस तरह आज़ादी के बाद चार पांच दशकों तक यह होता रहा है। हमें इस चुनौती से निपटना होगा। इस संस्था ने भारत को देवकीनंदन पांडे जैसा सुपर स्टार उद्घोषक दिया है। कई पीढ़ियां उन्हें आवाज़ की दुनिया का ईश्वर मानती रहीं और उनके जैसा बनने का सपना देखती रही हैं। अब कितने लोगों को उनकी याद है। जो कौम अपने पुरखों के प्रति कृतज्ञ नहीं होती और उनके उपकारों को बिसराने की कृतघ्नता दिखाती है, इतिहास उसे भी याद नहीं रखता।
आयोजन में रेडियो की दुनिया के एक से बढ़कर धुरंधर मौजूद थे। आकाशवाणी के एडीजी रहे मित्र राजीव शुक्ल ने वरकड़े जी की साधना के संस्मरण सुनाए और आज के दौर में रेडियो का महत्त्व रेखांकित किया। राजीव जी को सुनना और उनसे बातें करना हर बार एक नया अनुभव होता है। जब वे आवाज़ की दुनिया में खो जाते हैं तो हमारे सामने एक संसार रचते हैं। रेडियो विधा में अब ऐसे विरले लोग ही शेष हैं। दोनों पुस्तकों के लेखक गरजन सिंह वरकड़े निर्दोष और प्रभावी आवाज़ के धनी तो हैं ही, लेकिन वे शब्दों के सितारे भी हैं- यह इन दोनों किताबों को पढ़कर पता चल जाता है। आवाज़ों की दुनिया में उन्होंने भारत के श्रेष्ठ प्रसारण विशेषज्ञों के आलेख शामिल किए हैं। कुछ उनके आलेख भी हैं। सारे आलेख एक से बढ़कर एक हैं। अदभुत और गहन जानकारियों से भरपूर हैं।
मैं उन आलेखों को पढ़ रहा था और मेरे सामने रेडियो के अपने दिनों की फ़िल्म चल रही थी। पत्रकारिता के छात्रों, शिक्षकों, रेडियो में काम करने वाले हर शख़्स और यहाँ तक कि टीवी और डिज़िटल माध्यम में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह बेजोड़ पुस्तक है। दूसरी किताब में वरकड़े जी ने रेडियो सेवा के दरम्यान लिए गए साक्षात्कारों को शामिल किया है। देश के कला-संस्कृति क्षेत्र के अनेक पुरोधाओं के साथ उनके सवाल जवाब हमारे लिए एक नया ख़ज़ाना खोलते हैं।
इस कार्यक्रम में शिक्षा शास्त्री और प्रसारक डॉक्टर अरुण कुमार, श्री अनिल श्रीवास्तव को सुनते हुए मैं रेडियो की उन यादों में चला गया, जो मुझे हमेशा इस माध्यम के प्रति सिर झुकाने के लिए बाध्य करती हैं। हमारे प्रेरणा पुरुष ज्ञान रंजन जी भी इस कार्यक्रम में पधारे और चार चांद लगा गए। मैं उनके दर्शनों की तो उम्मीद भी नहीं कर रहा था क्योंकि लंबे समय से वे नागपुर में रह रहे थे। ज्ञान जी हमारी पीढ़ी के लिए अंधेरे बंद कमरे में एक रोशनदान की तरह हैं।
अपनी आवाज़ के दम पर बीते पचास साल से हम लोगों के दिलों पर राज करने वाले कलाकार केके नायकर से इस मौक़े पर मिलना सुखद अनुभव था। वे मिमिक्री और हास्य के पहले सुपर स्टार हैं। पैंतालीस साल पहले हम उनकी कैसेटों को खोज-खोज कर सुना करते थे। नए मित्र परेश के शानदार संचालन ने वाकई दिल जीत लिया। चित्र इसी आयोजन के हैं।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्ट से साभार)