राकेश दीवान
आखिर विकास के नाम पर जारी तमाशे को कथित हाशिए के भी परे बसे लोगों ने चुनौती दे ही डाली। अंग्रेजी में एक कहावत है– ‘टू वोट विथ योर फीट’ यानि अपने पांवों के जरिए वोट देना। इसका मोटा-मोटा मतलब है, किसी संगठन या विचार को खारिज करना। इससे मिलती-जुलती एक और कहावत है- ‘फुट वोटिंग’ यानि अपनी प्राथमिकताओं को अपने काम के जरिए उजागर करना।
इन दिनों भारत को इक्कीसवीं सदी में सरपट पहुंचाने की खातिर रची गई सडकें देशभर के उन मजदूरों का बोझा ढोती दिखाई दे रही हैं जिनने मौजूदा विकास की गफलत को सिरे से नकार दिया है। वे, नब्बे के दशक में दिखाए गए चमकते भूमंडल के सपने को ठेंगे पर मारते हुए, अपने-अपने गांव-देहातों की ओर पांव-पांव कूच कर रहे हैं। आखिर वे ऐसा क्यों न करें?
जिस विकास में लदे-फंदे मौजूदा पूंजीवाद को दुनिया भर में खारिज किया जा रहा हो, उसे हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कोने-कुचारे से भी हकाले जा रहे मजदूर आखिर क्यों पसंद करें? खासकर तब जब यही पूंजीवाद उनके खिलाफ लगातार हिंसक युद्ध ही करता जा रहा हो?
हर साल जनवरी में स्विटजरलैंड के दावोस शहर में होने वाले ‘वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम’ ने एक जर्मन ऑन-लाइन पोर्टल ‘स्टेटिस्टा’ के दस ऊंचे दर्जे के देशों के अध्ययन की मार्फत बताया है कि उन्हें मौजूदा तर्ज के पूंजीवाद पर कतई भरोसा नहीं रहा है। ‘मौजूदा पूंजीवाद फायदे की बजाए नुकसान-दायक अधिक’ मानने वाले देशों में 74 फीसदी वोटों के साथ अपना भारत सबसे ऊपर है।
इसी तरह आज के पूंजीवाद को नकारा मानने वालों में फ्रांस (69 फीसदी), चीन (63 फीसदी), ब्राजील (57 फीसदी), जर्मनी (55 फीसदी), इंग्लेंड (53 फीसदी), कनाडा (47 फीसदी) और अमेरिका (47 फीसदी) जैसे पूंजी के शिखर पर विराजे देश शामिल हैं। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
मौजूदा पूंजीवाद को इस तरह गरियाना एक वैश्विक स्वयंसेवी संगठन ‘ऑक्सफेम इंटरनेशनल’ की दावोस में ही ‘वर्ल्ड इकॉनोमिक फोरम’ के एन पहले जारी की गई रिपोर्ट के बाद शुरू हुआ है। इसमें बताया गया था कि दुनिया भर के 2153 अरबपतियों ने दुनिया की 60 फीसदी आबादी के हिस्से की सम्पत्ति पर कब्जा कर रखा है।
अपने भारत में भी ‘ऊपर’ के एक प्रतिशत अमीरों ने ‘नीचे’ के 70 फीसदी लोगों की कुल सम्पत्ति का चार गुना, यानि देश के ताजा बजट से अधिक सम्पत्ति दबा रखी है। कमाल यह है कि ये ही पूंजीपति ‘कोविड-19’ के ताजा संकट में हुए घाटे से उबरने के लिए दुनियाभर की सरकारों से ‘बेल-आउट’ पैकेज की मांग भी कर रहे हैं।
अमीरों को दिए जाने वाले ये ‘बेल-आउट’ पैकेज दुनियाभर में धारणा बनाते हैं कि मौजूदा अर्थव्यवस्था ‘अमीरों के लिए समाजवाद और गरीबों के लिए पूंजीवाद’ का समर्थन करती है। जाहिर है, लगातार बढती बेहद अश्लील गैर-बराबरी ने वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था ही सवाल खड़े कर दिए हैं।
भारत समेत दुनियाभर की हर रंगों, झंडों और विचारों वाली सरकारों ने तीस साल पहले खुले बाजारों वाली अर्थनीति के कसीदे पढ़े थे। कहा गया था कि बाजार और पूंजी मिलकर खुद को चलाए रखने के लिए एक ऐसी सत्ता खडी कर देंगे जिसे कभी, किसी की जरूरत नहीं पडेगी, लेकिन आज यही सर्व-शक्तिमान सत्ता सरकारों से ‘बेल-आउट’ पैकेज के लिए रिरिया रही है।
उद्योगपतियों के एक संघ ने तो भारत सरकार से 14.88 लाख करोड़ रुपयों के ‘बेल-आउट’ पैकेज की मांग भी कर दी है। जाहिर है, ये ‘बेल-आउट’ पैकेज आम लोगों से वसूले गए उन करों की मार्फत ही दिए जाएंगे जो उनके विकास पर खर्च होना थे। नतीजे में विकास-दर अप्रत्याशित रूप से घटेगी। दुनियाभर की ‘रेटिंग एजेंसियों’ ने भारत की विकास-दर डेढ़ से दो फीसदी तक होने की भविष्यवाणी की है। अंतरराष्ट्रीय ‘रेटिंग’ एजेंसी ‘मूडीज’ ने इसे 0.2 प्रतिशत माना है।
जाहिर है, ऐसे में बेरोजगारी और गैर-बराबरी बढेगी। ‘सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकॉनॉमी’ के मुताबिक ‘कोविड-19’ के दौर में 27.11 प्रतिशत बेरोजगारी बढ़ी है और करीब 11.40 करोड़ रोजगार के अवसर समाप्त हुए हैं। अमेरिका में भी छह करोड़ से ज्यादा लोगों ने बेरोजगारी भत्ते के लिए आवेदन लगाया है। आर्थिक बदहाली के अलावा भूमंडलीकरण के तीस सालों ने आम लोगों के पर्यावरण का भी भट्टा बिठा दिया है।
इस सबको छेंकने और अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाने के लिए दो दिन पहले प्रधानमंत्री ने ‘आत्मनिर्भरता,’ ‘अवसर,’ ‘लैंड, लेबर, लॉ और लिक्विडिटी’ जैसे ‘सिग्नेचर शब्दों’ समेत कम्प्यूटर के ‘वाई-2के’ वायरस तक का जिक्र करते हुए 20 लाख करोड़ रुपयों के पैकेज की घोषणा की है।
अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि तीन ट्रिलियन यानि करीब 210 लाख करोड़ रुपयों के ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) वाली इकॉनॉमी का दस प्रतिशत अनुदान कुल मिलाकर चार-साढ़े चार लाख करोड़ रुपयों पर जाकर टिकेगा। इसमें घोषित बाकी रकम पहले से जारी योजनाओं, राशियों में समाहित हो जाएगी।
42-43 डिग्री गरमी में पैदल घिसटते-घिसटाते अपने घर की तरफ कूच करने वाले प्रवासी मजदूरों के लिए ‘त्याग’ और ‘तप’ जैसे बेशर्म और फर्जी उद्गारों के अलावा प्रधानमंत्री ने जिन्हें ‘उबारने’ के लिए यह भारी-भरकम राशि घोषित की है, वे भी इसके झांसे में नहीं आ पा रहे हैं। कहा जा रहा है कि ‘कोविड-19’ के इस संकट को प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ‘अवसर’ में तब्दील किया जा रहा है।
कैसे? पूछने पर पता चल सकता है कि ‘कोविड-19’ और डोनॉल्ड ट्रम्प की घातक नीतियों के कारण चीन से पलायन कर रहे उद्योग भारत में धंधा जमाने के लिए बेताब हैं। और गहराई में जाएं तो पता चल सकता है कि अव्वल तो चीन में रोजगार-धंधे का पुराना माहौल वापस आ गया है और दूसरे, बाहर निकली 54 फैक्ट्रियों में से केवल छह फीसदी भारत में धंघा जमाने का सोच रही हैं।
ऐसे में लघु और मध्यम उद्योगों से उम्मीद लगाई जा सकती है, लेकिन उन्हें देने के लिए प्रधानमंत्री के पास कुछ खास नहीं है। लोकतंत्र में सरकारें करों की वसूली करके विकास और अपना कामकाज चलाती हैं, लेकिन आधी रात की आजादी का प्रहसन करके लागू किए गए ‘जीएसटी’ (गुड्स एण्ड सर्विसेस टैक्स) का कोई ठिकाना नहीं है। हर महीने की पहली तारीख को घोषित किए जाने वाले ‘जीएसटी’ के तहत मार्च में करीब आठ हजार करोड़ रुपयों की कमी दर्ज की गई थी और अप्रैल की जानकारी अब भी अपेक्षित है।
जाहिर है, तरह-तरह के इन गोरखधंधों से विकास के फटे में थेगड़ा लगाने की बजाए एक बार उनसे और उनके सगे-संबंधियों से भी पूछ लेना चाहिए जो पांव-पांव चलकर ‘पैरों से अपना वोट दे चुके हैं।’ यदि वे विकास के नाम पर जारी मौजूदा विनाश को खारिज कर रहे हैं तो वे यह भी जानते ही होंगे कि नया संसार कैसे रचाया, बसाया जाए।
दया के जरिए उन्हें दयनीय बनाने में लगे लोगों को याद रखना चाहिए कि आखिर मौजूदा विकास को परवान चढ़ाने, दुनिया-जहान का पेट भरने और शहर-गांवों को बसाने का काम तो उन्हीं ने अपनी हाड़तोड़ मेहनत के बूते किया है। अलबत्ता, यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए कि भावी विकास की धुरी न्याय और समता पर आधारित ग्रामीण जीवन और कृषि होगी। सरकार और समाज उसमें निवेश कर सकें तो बेहतर।
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टीम मध्यमत