वास्तविक खबर तो 21 अगस्त की सुबह आई, लेकिन मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के दिग्गज नेता बाबूलाल गौर को सोशल मीडिया तो कभी का मार चुका था। कई दिनों से ये बातें सोशल मीडिया पर तैर रही थीं कि गौर साहब का देहांत हो चुका है, बस उसका ऐलान नहीं किया जा रहा। उधर गौर साहब वेंटिलेटर पर थे और इधर मीडिया में 14 अगस्त से ही बातें चल रही थीं कि वे इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। 15 अगस्त के समारोह में व्यवधान न हो इसलिए उनके निधन की खबर को दबा कर रखा गया है। ठीक वैसे ही जैसे भाजपा के युगपुरुष अटलबिहारी वाजपेयी के समय कहा गया था। मेरे पास वाट्सएप पर ऐसी श्रद्धांजलियां अभी भी सुरक्षित रखी हैं जो गौर साहब के जिंदा रहते ही, इस आग्रह के साथ भेजी गई थीं कि मैं अगले दिन के अंक में उस श्रद्धांजलि को भी शामिल कर लूं।
लेकिन अपनी राजनीतिक चतुराई और समझ से जीवन भर लोगों को चौंकाते और छकाते रहे गौर साहब जाते जाते भी मीडिया को सबक सिखाना नहीं भूले। उन्होंने 14 अगस्त से उड़ रही अपने दिवंगत होने की अफवाह के बाद भी सात दिन निकाले और बता दिया कि वे यूं ही वह फिकरा नहीं कसा करते थे कि- ‘’हर फिक्र को धुंए में उड़ाता चला गया…’’
बुधवार को सुबह से लेकर दोपहर बाद तक हजारों हजार चाहने वालों की गहमागहमी खत्म होने के बाद, सुभाष नगर विश्राम घाट पर, जब सारे लोग जा चुके थे, गौर साहब धीरे धीरे धुंआ बनकर उस अनंत में विलीन हो रहे थे जो हरेक प्राणी की अंतिम मंजिल है। शायद वे उस अनंत यात्रा में भी दार्शनिक अंदाज में वही बात कह रहे होंगे जो उन्होंने कई बार मीडिया के मित्रों से कही थी- ‘’आपका वर्तमान ही आपका भविष्य है।‘’
यूं देखें तो गौर साहब उम्र के उस पड़ाव पर थे, जिसे हमारे यहां भरपूर जीवन जी लेने का उदाहरण माना जाता है। मुझे याद है किसी घटना में कुछ लोगों के दिवंगत होने पर गृह मंत्री के नाते गौर साहब ने बहुत फलसफाना अंदाज में प्रतिक्रिया दी थी- ‘’जो आया है वो तो जाएगा ही भैया…’’ और अपने बिंदास अंदाज के चलते वे खुद के बारे में भी यह बात अच्छी तरह सोचते समझते रहे होंगे… यह तो हम लोग हैं जो हर जाने वाले के बारे में परंपरागत रूप से कह देते हैं- ईश्वर ने उन्हें जल्दी उठा लिया…
पर मुझे लगता है, असली सवाल यह है कि बाबूलाल गौर के जाने के मायने क्या समझे जाएं? क्या हम इसे सिर्फ एक लंबा और सफल राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन गुजार चुके व्यक्ति के अवसान के रूप में देखें या फिर इसे कुछ और दृष्टिकोण से भी देखना चाहिए। मेरे हिसाब से गौर साहब का जाना सिर्फ एक राजनेता का चले जाना नहीं है, बल्कि पूरी राजनीति में धीरे-धीरे रिसती जा रही उस पीढ़ी का खत्म होना है जिसके लिए राजनीति सिर्फ ‘राज-नीति’ नहीं थी। वह तमाम संघर्षों का सामना करते हुए, समाज के बीच से उठकर, राजसत्ता के गलियारों तक पहुंचने का ऐसा उपक्रम था जिसमें आज की राजनीति के विपरीत विरोधियों के गले पर सिर्फ छुरा रखने का पाठ नहीं पढ़ाया जाता था। वहां विरोधियों को गले लगाने का संस्कार भी सिखाया जाता था।
हाल ही में हमने राजनीति के क्षेत्र में ऐसे तीन नेता देखें हैं जिनके जाने के बाद, दलों और विचारधाराओं की सीमा से परे जाकर लोगों ने उन्हें बहुत श्रद्धा और आदर के साथ विदाई दी। इस कड़ी में शीला दीक्षित और सुषमा स्वराज के बाद अब बाबूलाल गौर का नाम भी शामिल हो गया है। जिस तरह बाबूलाल गौर के निधन की खबर आने के बाद से, उनके अंतिम संस्कार तक, उनके चाहने वालों का सैलाब उमड़ा, उसने बता दिया कि वह आदमी यूं ही राजनीति में इतने लंबे समय तक नहीं टिका रहा। उस टिके रहने के पीछे चुनावी राजनीति से परे या राजनीति के साथ साथ, समानांतर रूप से उनके भीतर बह रही सद्भाव, सौहार्द और सामंजस्य की अंतरधारा भी थी।
अब यह पीढ़ी लुप्त होती जा रही है। अब विरोधी होने का मतलब अलग राजनीतिक दल का या अलग राजनीतिक विचारधारा का होना नहीं बल्कि दुश्मन होना है। अब राजनीति में दुश्मनियां पाली जाती हैं, रिश्ते नहीं। इसलिए गौर साहब के जाने को, दलों की सीमाओं से परे जाकर, लोगों ने इसलिए याद किया क्योंकि वे उन्हें ‘राजनीतिक दुश्मन’ नहीं ‘राजनीतिक रिश्तेदार’ मानते थे। और यह रिश्तेदारी गौर साहब ने पूरी जिंदगी बखूबी निभाई।
अब वह पीढ़ी भी लुप्त होती जा रही है जिसके बारे में कहा जा सके कि उसने किसी किसान के रूप में, किसी मजदूर के रूप में, किसी झोपड़ी या फुटपाथ से उठकर, अपनी संघर्षशीलता और पुरुषार्थ से इतना बड़ा मुकाम पाया। अब कौडि़यों की भी मोहताज रहकर, जनता के दुखदर्द को महसूस करके ऊपर आने वाली नहीं, बल्कि करोड़ों में पल बढ़कर, करोड़ों के खेल करने वाली पीढ़ी ऊपर आ रही है। निश्चित रूप से देश और समाज ने तरक्की की है, आर्थिक क्षमताओं में भी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इस समृद्धि की चार पहियों वाली फर्राटा चकाचौंध ने उस साइकिल को आंखों से ओझल कर दिया है, जो अपने साथ गरीब गुरबों का दुख दर्द भी लेकर चला करती थी।
गौर साहब की एक और काबिलियत का मैं मुरीद हूं। वह थी उनकी समकालीन घटनाओं पर नजर और इतिहासबोध। इतिहासबोध को यहां आप किसी अकादमिक संदर्भ में मत लीजिएगा। मेरा मानना है कि आज के अधिकांश राजनेता अपने आसपास हो रहे घटनाक्रमों पर सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से उतनी बारीक नजर नहीं रखते जितनी गौर साहब रखते थे। शायद वे मानते थे कि उनके आसपास जो घट रहा है वह किसी दिन इतिहास का हिस्सा बनेगा इसलिए इसे दर्ज करना और सुरक्षित रखना जरूरी है।
उनकी इसी सोच का प्रमाण है उनकी वह डायरी जो वे वर्षों से नियमित रूप से लिखते आ रहे थे। कई लोगों ने उनसे वह डायरी मांगी लेकिन उन्होंने अपनी वह पूंजी किसी को नहीं दी। अब उनके जाने के बाद, वह डायरी यदि खुली तो इतिहास के ऐसे कई पन्नों को खोलेगी जिनमें न जाने ऐसे कितने किस्से और घटनाएं दर्ज होंगी, जो हो सकता है मध्यप्रदेश और जनसंघ व भाजपा की पिछली आधी सदी की कई ‘छवियों’ को बदल दे।