सरयूसुत मिश्रा

नए साल के जश्न में डूबे मध्यप्रदेश के लोगों को शराब पीने के लिए अब घर से बाहर होटलों में जाना जरूरी नहीं है। सरकार ने ऐसा प्रावधान बना दिया है कि एक दिन की पार्टी के लिए ऑनलाइन लाइसेंस लिया जा सकता है। अभी तक घर या दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर पार्टियां करते थे तो डर बना रहता था। 

शहरों में शराब का ‘कारो-बार’ आसानी से देखा और महसूस किया जा सकता है। जब देसी और विदेशी शराब की कंपोजिट दुकानें खोली गई थी, तब भी सरकार को आलोचना का शिकार होना पड़ा था। अब तो ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार घर-घर में बार बनाने का मौका दे रही है। विपक्षी पार्टियां तो सरकार पर मध्यप्रदेश को ‘मद्यप्रदेश’ बनाने का आरोप लगा रही हैं।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकार के कारण लोग पी रहे हैं? शराब अगर उपलब्ध नहीं होगी तो क्या लोग पीना छोड़ देंगे? किसी भी चीज की उपलब्धता या अनुपलब्धता क्या उसके उपयोग को नियंत्रित करती है? मांग पर पूर्ति का सिद्धांत है या पूर्ति पर मांग क्रिएट होती है?

राजनीति और सरकारों के लिए शराब फायदे का विषय है, तो इससे सिरदर्द भी कम नहीं मिलता। शराब से मिलने वाला राजस्व सरकारों के लिए जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही राजनीति के लिए शराब और नशा जनाक्रोश का विषय बनता है। कोई भी सरकार खुलेआम तो यह कहने का साहस नहीं करती कि शराब की दुकानें हर गली मोहल्ले में खोली जाएंगी। इसके बाद भी हर गली मोहल्लों में शराब सहजता से उपलब्ध हो जाती है। हर राज्य में शराबबंदी के लिए राजनीतिक आंदोलन आम बात है। जिन राज्यों में शराबबंदी कर दी है उन राज्यों में शराब की उपलब्धता नहीं है ऐसा नहीं कहा जा सकता।

गुजरात और बिहार में शराबबंदी है। इन दोनों राज्यों में शराब आसानी से मिल रही है। शराबबंदी से एक और व्यवसाय आकार ले लेता है, जहां शराब की सप्लाई का माफिया काम करने लगता है जो लोग माफिया से शराब लेना अफोर्ड नहीं कर सकते वह शराब का निर्माण या घटिया शराब के उपभोग के चक्र में फंस जाते हैं। बिहार में हाल ही में जहरीली शराब के कारण सैकड़ों लोगों की जान गई है। मध्यप्रदेश में भी कई बार जहरीली शराब से लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।

शराब की सप्लाई और शराबबंदी की मांग सरकारों को कोसने का बड़ा बहाना बन गई हैं, जैसे पीने के लिए बहाने की जरूरत होती है, वैसे सरकार को कठघरे में खड़ा करने के लिए शराब का बहाना अपना राजनीतिक काम करता रहता है। कई राजनेता तो शराबबंदी को ही अपनी राजनीति का माध्यम बना लेते हैं।

जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार यह कहते हैं कि जन जागरूकता से नशाबंदी उनका लक्ष्य है। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती शराबबंदी के लिए समय-समय पर आवाज उठाती रहती हैं। कई बार तो उन्होंने शराब दुकानों पर जाकर पत्थर तक मारे हैं पर उनकी किसी भी आवाज का अभी तक कोई सकारात्मक असर दिखाई नहीं पड़ा है।

शहर में कहीं भी दवा की दुकानें उपलब्ध हैं तो क्या उसके कारण बीमारी बढ़ जाएगी? बीमारी तो अपने कारणों से आयेगी, जब बीमारी आएगी तभी कोई व्यक्ति दवा के लिए दुकान पर जाएगा। ऐसी स्थिति शराब के बारे में भी माननी चाहिए। पीने की प्रवृत्ति दुकान के कारण नहीं है, पीने के कारण दुकान और उपलब्धता बढ़ रही है।

सरकारों द्वारा राज्य में शराब उपलब्ध कराने की व्यवस्था को लेकर समाज भी विभाजित दिखाई पड़ता है। समाज का बहुत बड़ा हिस्सा शराब की उपलब्धता को नशाखोरी का बड़ा कारण बनता है। इसके कारण घरों में विशेषकर महिलाओं को परेशानी का सामना करना पड़ता है। सियासत में शराब का उपयोग आम बात है। कोई चुनाव हो और शराब का उपयोग ना हो, ऐसा कम ही होता है। 

इंसान की सबसे बड़ी समस्या पाखंड है। कोई भी वैसा नहीं दिखना चाहता जैसा वह वास्तव में है। इस बारे में एक प्रचलित कहानी है। एक फोटो की दुकान पर फोटो खिंचवाने के लिए रेट लिस्ट लगी हुई थी। उसमें लिखा हुआ था, आप जैसे हैं वैसी ही फोटो खिंचवाना है तो ₹10 और अगर आप ऐसा फोटो खिंचवाना चाहते हैं जैसा आप दिखना चाहते हैं तो उसकी दर ₹20 रुपए।

एक सामान्य व्यक्ति फोटो खिंचाने दुकान पर गया। जब उसने रेट लिस्ट देखी तो उसे आश्चर्य हुआ कि यह कैसी रेट लिस्ट है? उसने फोटोग्राफर से पूछा कि भाई यह कैसी रेट लिस्ट है? जो जैसा है वैसे ही तो फोटो खींचा जाएगा। दुकान मालिक ने कहा, यहां ऐसा कोई भी नहीं आता जो जैसा है वैसे फोटो खिंचवाना चाहता हो। अधिकांश लोग जैसा दिखना चाहते हैं वैसा फोटो खिंचवाना चाहते हैं।

जीवन का यही पाखंड है कि जो जैसा है वैसा नहीं दिखना चाहता। उसकी कोशिश है कि उसका चेहरा लोगों की नजर में अच्छा रहे, भले ही अंदर से उसका सोच-विचार और चिंतन उल्टा हो। शराब के साथ भी ऐसा ही पाखंड जुड़ा हुआ है।

पीने वाले छुप कर पीना चाहते हैं। अधिकांश पीने वाले दुकान पर जाकर शराब खरीदने से भी बचना चाहते हैं। शराब अगर सस्ती मिल जाए तो इससे अच्छी बात नहीं होगी लेकिन अगर शराब के विरुद्ध सार्वजनिक वक्तव्य देने की बात है तो पीने वाला जितना बेहतर उसके दुष्प्रभाव के बारे में विचार रख सकता है उतना नहीं पीने वाला शायद नहीं रख पाएगा।

शराब पर राजनीति जहां सरकारों के राजस्व को प्रभावित करती है, वहीं जहरीली और घटिया शराब की उपलब्धता को अवसर देती है। माफिया भी इन कारणों से पैदा होते हैं। शराब पर एक राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए। निजी खानपान के विषय कानून से कैसे नियंत्रित हो सकते हैं? सरकारों को जागरूकता के जरूर विशेष रूप से प्रयास करना चाहिए। 

नशाखोरी जहां स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है वहीं समाज के लिए भी हानिकारक है। समाज के लिए तो शराब के अलावा भी कई चीजें हानिकारक हैं। एक के लिए हानिकारक दूसरे के लिए लाभदायक, यही समाज का और राजनीति का पैमाना बना हुआ है। इसी आधार पर जनमत को प्रभावित किया जाता है। कई बार अगर बड़ा समूह हानिकारक तथ्यों को ही स्वीकार कर रहा है तो फिर उसको प्रभावित करने के लिए हानिकारक फैसले ही अमल में लाए जाते हैं। 

यह विवाद का विषय है कि शराब की उपलब्धता किस स्तर पर होना चाहिए? सरकार उसमें किस तरह से भूमिका का निर्वहन करे? शराब पर शेरो शायरी और कविताओं का अगर अवलोकन किया जाएगा तो ऐसा समझ आएगा कि शराब से भी बड़े-बड़े नशे में लोग झूम रहे हैं और विक्षिप्त अवस्था में जीवन ऊर्जा को बर्बाद कर रहे हैं।
(लेखक की सोशल मीडिया पोस्‍ट से साभार)
(मध्‍यमत)

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