राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से संबद्ध, प्रचार-प्रसार उपक्रम ‘विश्व संवाद केंद्र’ की ओर से हाल ही में भोपाल में एक स्मारिका का प्रकाशन किया गया है। ‘अनथक कलम योद्धा’ शीर्षक से प्रकाशित इस स्मारिका में मध्यप्रदेश के उन चुनिंदा पत्रकारों के बारे में जानकारी संग्रहित है जिनका योगदान अप्रतिम है, लेकिन राज्य के ही लोग उनके बारे में बहुत कम जानते हैं। मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के अनछुए पन्नों को उजागर करने के इस प्रयास की सराहना की जानी चाहिए।
गुरुवार को इसी स्मारिका के विमोचन समारोह के दौरान ‘वर्तमान समय में कलम और विचार का द्वंद्व’ विषय पर संवाद भी रखा गया था। मैं भी उसमें एक वक्ता के रूप में शामिल था। कार्यक्रम में जो विचार रखे गए वे अपनी जगह हैं लेकिन मेरे मत में ‘कलम और विचार के द्वंद्व’ का यह विषय वर्तमान परिदृश्य में बहुत ज्यादा चिंतन और मनन की मांग करता है।
हमारे यहां बहुत प्रचलित मुहावरा है- ‘सोच विचार करना’। यानी विचार से पहले जरूरी है सोच। सही सोच का विकसित होना ही सही विचार को जन्म देता है और सही सोच ही सही विचार को समझने का सामर्थ्य भी विकसित करता है। पर यदि मीडिया के संसार की बात करें तो आज सोचता कोई नहीं, बस अपने आपको ‘व्यक्त’ कर देता है।
‘व्यक्त’ करना कहके मैंने बहुत सभ्य भाषा का इस्तेमाल किया है। वस्तुत: जो हो रहा है, वह है बिना सोचे विचारे कुछ भी बक देना या कुछ भी लिख डालना। कथित ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ के नाम पर जो तांडव चल रहा है, उसमें विचार की बात करना ही बेमानी है। और देखा जाए तो इस ‘अभिव्यक्ति’ में विचार का तो लगातार लोप ही हो रहा है। आज ‘विचार’ नहीं तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का दौर है,जिसे विचार नाम के अदृश्य लबादे में ढंक कर प्रस्तुत किया जा रहा है। वास्तविकता वैसी ही नंगी है जैसे कोई वस्त्रहीन…
दरअसल विचार की अभिव्यक्ति से अधिक जरूरी है विचार का आत्मसात किया जाना। आपने यदि विचार को आत्मसात कर लिया है तो फिर उसकी अभिव्यक्ति में आपको न कोई दुविधा होगी और न ही आपको किसी दुराव का सहारा लेना पड़ेगा। विचार शब्द में ही सकारात्मकता कस्तूरी की तरह छिपी हुई है। लेकिन इसके प्रतिकूल आज चारों तरफ विचार की नकारात्मकता बिखरी पड़ी है।
विचार वही है जिसमें मूल रूप से लोक कल्याण की भावना निहित हो। समदृष्टि और समभाव निहित हो। जैसे स्वामी विवेकानंद ने अपने शिकागो भाषण में कहा था कि पंथ चाहे अलग अलग हों, लेकिन उनका लक्ष्य एक ही है। जिस तरह नदी कहीं से भी निकलती हो, कहीं भी बहती हो, लेकिन अंतत: वह सागर में जाकर समाहित होती है, उसी तरह विचार की परिणति भी प्राणिमात्र के कल्याण में ही निहित होनी चाहिए। प्रकृति का संरक्षण ही उसका ध्येय होना चाहिए…
जैसे प्रकृति का सौंदर्य उसके नाना रूपों में निहित है। उसी तरह बौद्धिक समाज का सौंदर्य भी विभिन्न विचारों में निहित है। जैसे हम कई प्रकार के और अलग अलग गंध वाले फूल देखते हैं लेकिन उन फूलों में आपस में कोई द्वंद्व नहीं है। उसी तरह समाज में विचारों का स्थान होना चाहिए। वे कई रूपों में, कई रंगों में हो सकते हैं, लेकिन उनमें आपस में वैमनस्य या एक दूसरे का गला काट देने का भाव नहीं होना चाहिए। मूल भाव कल्याण का हो, शांति का हो, सद्गति का हो…
जब हम विचार और कलम के द्वंद्व की बात करते हैं तो यह एक तरह से ‘ड्राइवर का गाड़ी के साथ द्वंद्व’ जैसी बात है। ड्राइवर को गाड़ी चलाना है और गाड़ी को ड्राइवर के हाथों चलना है। इसमें यदि द्वंद्व होगा तो दोनों अपनी अपनी भूमिका का सही निर्वाह नहीं कर पाएंगे। आज इसी तरह कलम और विचार के द्वंद्व में कई लोग फंसे हैं।
हिन्दी के मशहूर लेखक मोहन राकेश ने लिखा है कि जो सोचता है वही उलझता है। जो सोचता नहीं, केवल आदेश की पूर्ति करता है वह उलझता भी नहीं है। लेकिन क्या हमें सिर्फ आदेश की पूर्ति करने वाला समाज चाहिए? क्या हमें सोचने विचारने वाला समाज नहीं चाहिए? निश्चित रूप से सोचने विचारने वाला समाज भेड़ों की तरह नहीं चल सकता, लेकिन जो समाज भेड़ों की तरह नहीं चलता, वही प्रगति करता है और उसी का कर्म इतिहास में दर्ज होता है।
आज लोग वाट्सएप, फेसबुक या ट्विटर पर कुछ भी लिखकर डाल देते हैं और उसे विचार का नाम दे दिया जाता है, लेकिन विचार यह नहीं है। ये प्रतिक्रिया की क्षणिकाएं हैं, विचार तो बुद्धि और विवेक का ऐसा महाकाव्य है जो व्यक्ति के अध्ययन, मनन और चिंतन के साथ समाज हित में किए गए उसके आचरण की शुद्धता की स्याही से लिखा जाता है। ऐसा लेखन जिसमें समग्र रूप से सिर्फ और सिर्फ लोककल्याण का भाव निहित हो।
आज की पत्रकारिता में या तो विचारों का लोप है या फिर विचारों के नाम पर एक दूसरे को खत्म कर डालने की हद तक जा पहुंचा वैमनस्य। विचार मूलत: समरसता का पर्याय है, स्वयं की तानाशाही का नहीं। लेकिन कथित विचार या वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर आज चारों तरफ तानाशाही ही बिखरी पड़ी है। जगह जगह समाज को नष्ट करने वाली ‘वैचारिक मिसाइलों’ की तैनाती हो रही है।
विचारों के इस युद्ध में, व्यक्ति पहले या विचार, विचार प्रमुख या राष्ट्र, विचार के लिए राष्ट्र या राष्ट्र के लिए विचार, विचार की सत्ता या व्यक्ति की सत्ता जैसे सवाल बेमानी हो गए हैं। कंज्यूमरिज्म के इस दौर में हमने विचार को भी वस्तु बना दिया है और उसका कारोबार करने लगे हैं। और याद रखें, जब भी किसी चीज का कारोबार होगा, उसका बहीखाता मुख्य रूप से लाभ और हानि अथवा प्रॉफिट और लॉस के कॉलम में ही तैयार किया जाएगा। दुर्भाग्य से हम विचार को भी प्रॉफिट और लॉस की तराजू पर तौलने लगे हैं और यही हमारे समय का सबसे बड़ा द्वंद्व है।