उपचुनावों में ज्योतिरादित्य और कमलनाथ की प्रतिष्ठा दांव पर

अरुण पटेल

कोरोना संकट की स्थिति जैसे ही सामान्य होगी वैसे ही मध्यप्रदेश में 24 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव होंगे! इनमें असली प्रतिष्ठा ज्योतिरादित्य सिंधिया एवं पूर्व मुख्यमंत्री तथा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ की दांव पर लगी है। उपचुनाव नतीजों से ही यह साफ हो सकेगा कि प्रदेश के राजनीतिक फलक पर दोनों में से किसका वर्चस्व रहेगा। 24 में से 22 विधानसभा उपचुनाव, सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए विधायकों के त्यागपत्र से रिक्त हुए स्थानों की पूर्ति के लिए होना हैं।

बाकी दो उपचुनाव दो विधायकों के निधन के कारण होंगे। इनमें से एक कांग्रेस और एक भाजपा का विधायक था। ये उपचुनाव अधिकांशत: उन इलाकों में हो रहे हैं जहां सिंधिया राज परिवार का दबदबा रहा है। कमलनाथ की प्रतिष्ठा इसलिए दांव पर लगी है क्योंकि उनकी सरकार दलबदल के कारण गिर गयी थी। नाथ को भरोसा है कि उपचुनाव के बाद फिर से कांग्रेस की सरकार बनेगी।

ऐसा दावा प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने सरकार गिरते ही व्यक्त किया था कि इसी वर्ष 15 अगस्त को कमलनाथ फिर राष्ट्रीय ध्वज फहरायेंगे। कांग्रेस के इस भरोसे पर कोरोना महामारी ने पानी फेर दिया है। उल्लेखनीय है कि 15 अगस्त को प्रदेश की राजधानी में मुख्यमंत्री ध्वजारोहण करते हैं। जहां तक दावा करने का सवाल है तो ज्योतिरादित्य और कमलनाथ दोनों को अपने-अपने चमत्कार पर भरोसा है और इन उपचुनावों में असली किरदार में ये दोनों ही नेता रहने वाले हैं। इसलिए राजनीतिक भविष्य दोनों का ही दांव पर लगा है। राजनीति के मैदान में चमत्कारों की हमेशा गुंजाइश बनी रहती है। बस देखना यह है कि दोनों में से कौन चमत्कार कर पाता है?

दलबदल करने वाले विधायकों को जिता कर फिर से विधानसभा में पहुंचाने का नैतिक एवं मानसिक दबाव ज्योतिरादित्य पर होगा, क्योंकि उनके भरोसे ही इन लोगों ने अपना राजनीतिक भविष्य दांव पर लगाया है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव और पूर्व केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया पिछले लम्बे समय से अपने आपको कांग्रेस में उपेक्षित महसूस कर रहे थे और अंतत: उन्होंने भाजपा में प्रवेश कर लिया। इसके साथ ही उनकी राज्यसभा की सीट और आगे चलकर केंद्रीय मंत्री का पद एक प्रकार से आरक्षित हो गया है।

लेकिन भाजपा की राजनीति में उनका कद और महत्व भविष्य में कितना रहेगा, यह इस बात पर ही निर्भर करेगा कि वे अपने साथ गये विधायकों में से किन-किन की विधायकी बचा पाते हैं और किस किस को मंत्री पद दिलवा पाते हैं। कमलनाथ अक्सर कहते रहते हैं कि दलबदल के साथ-साथ किस-किस को क्या-क्या वायदे किए गए थे वह धीरे-धीरे साफ हो जायेगा। सिंधिया द्वारा दलबदल करने का एक तर्क यह दिया जा रहा है कि पार्टी उन्हें प्रदेश अध्यक्ष, उपमुख्यमंत्री तो बना सकती थी लेकिन केन्द्र में मंत्री नहीं बना सकती थी।

उपमुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष के लिए भले ही ज्योतिरादित्य का दावा उनके समर्थक जोरशोर से करते रहे हों, लेकिन कांग्रेस का कहना है कि जब उपमुख्यमंत्री पद पार्टी देने को तैयार थी, उस समय वे चाहते थे कि तुलसी सिलावट को यह पद दिया जाए और प्रदेश अध्यक्ष भी वे उन्हें ही बनाना चाहते थे। जहां तक उपमुख्यमंत्री पद का सवाल है वह तो सिलावट को भाजपा सरकार में भी नहीं मिल पाया, यह बात अवश्य हुई कि उन्हें जल संसाधन जैसा भारी-भरकम मलाईदार विभाग मिल गया है।

जिस प्रकार कांग्रेस में लगातार ज्योतिरादित्य को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की बात जोरशोर से उनके समर्थक मंत्री उठाया करते थे वैसी ही मांग अब भाजपा में सिंधिया को केंद्र में मंत्री बनाने को लेकर भी उठाने लगे हैं। सबसे पहले शिवराज सरकार में सिंधिया कोटे मंत्री गोविंद सिंह राजपूत ने मांग की, कि सिंधिया को केन्द्र में मंत्री बनाया जाए। इसके बाद इमरती देवी ने तो यहां तक कहा कि यदि कोरोना संकट की स्थिति नहीं आती तो वे केन्द्र में मंत्री बन गये होते, जब स्थिति सामान्य होगी तब बनेंगे।

हर नेता के कुछ अंधभक्त होते हैं और वे इस बात की परवाह नहीं करते कि उनके बोलने से नेता को राजनीतिक फायदा होगा या नुकसान। जहां तक ज्योतिरादित्य का सवाल है, तो उन्हें कांग्रेस में न कोई पद पाने के लिए लॉबिंग की जरूरत थी और न भाजपा में है। जैसे ही राजपूत ने सिंधिया को केन्द्र में मंत्री बनाने की बात कही, तुरंत ही केंद्रीय राज्यमंत्री प्रहलाद पटेल ने भाजपा की परंपरा याद दिलाते हुए कहा कि भाजपा में ऐसी लॉबिंग नहीं होती।

ज्योतिरादित्य की मदद के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर, स्वास्थ्य एवं गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा और प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा तो होंगे ही, वहीं मालवा अंचल में क्रिकेट की राजनीति में उनके हमेशा प्रतिद्वंद्वी रहे भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय की भी भूमिका होगी। दूसरी ओर कमलनाथ के फिर मुख्यमंत्री बनने के सपने को फलीभूत करने का सारा दारोमदार पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, पूर्व मंत्री डॉ. गोविंद सिंह, फूलसिंह बरैया, अपेक्स बैंक के पूर्व प्रशासक अशोक सिंह के साथ ही पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश पचौरी, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव और युवा के रुप में पूर्व मंत्री तथा कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी तथा ग्वालियर-चम्बल संभाग में कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष रामनिवास रावत पर भी होगा।

भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपनी-अपनी रणनीति बनाना प्रारंभ कर दिया है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा और संगठन महामंत्री सुहास भगत ने 22 सीटों पर एक प्रकार से ऐलान कर दिया है कि जिन-जिन विधायकों ने त्यागपत्र दिए हैं वे ही उम्मीदवार होंगे और उन्हें जिताने के लिए सभी प्राणप्रण से जुट जायें। वीडियो कान्‍फ्रेंसिंग के जरिए दोनों नेताओं ने इन क्षेत्रों के पार्टी के स्थानीय नेताओं से चर्चा करते हुए साफ कर दिया कि उम्मीदवार त्यागपत्र देने वाले ही रहेंगे।

2018 के विधानसभा चुनाव में हारे भाजपा प्रत्याशियों से भी दोनों नेताओं ने दोटूक शब्दों में कहा कि विधायक या मंत्री पद छोड़ना सहज नहीं होता, यह बलिदान है और यदि ये भाजपा में नहीं आते तो सरकार कैसे बनती। व्यक्तिगत बातों को दरकिनार कर भाजपा सरकार के चलते रहने के लिए यह जरुरी है, बाकी विषयों पर बाद में चर्चा होगी। भाजपा में असंतोष के स्वर उभर रहे हैं जिनको लेकर कांग्रेस बहुत अधिक उत्साहित है, लेकिन उसे अधिक उत्साहित होने का कोई कारण नजर नहीं आ रहा है। हां, यह कुछ नेताओं द्वारा अपने भविष्य की सुरक्षा की गारंटी पा लेना जरूर हो सकता है।

दूसरे, भाजपा में नेताओं का कम, संगठन का अधिक महत्व होता है, क्योंकि पूरा चुनाव संगठन और संघ के समर्पित कार्यकर्ताओं द्वारा लड़ा जाता है। इन उपचुनावों में भाजपा की रणनीति यह होगी कि वह अपने कार्यकर्ताओं को यह समझाये कि यह सरकार उनके बदौलत ही बनी है और उनके त्याग को बढ़ा-चढ़ा कर चित्रित करे। कांग्रेस की रणनीति इन्हें दलबदलू व जनता के साथ विश्वासघात करने वाला बताने की होगी।

इनमें से कौन जनता के गले अपनी बात ज्यादा उतार पाता है उस पर ही चुनाव परिणाम निर्भर होंगे। जिन क्षेत्रों में उपचुनाव होना हैं उनमें जौरा और आगर में उपचुनाव विधायकों के निधन के कारण और बाकी ग्वालियर, डबरा, बमोरी, सुरखी, सांची, सांवेर, सुमावली, मुरैना, दिमनी, अम्बाह, मेहगांव, गोहद, ग्वालियर-पूर्व, भांडेर, करेरा, पोहरी, अशोकनगर, मुंगावली, अनूपपुर, हाट पिपल्या, बदनावर और सुवासरा शामिल हैं, जहां पूर्व में कांग्रेस टिकट पर चुने गए विधायकों ने इस्‍तीफा दे दिया है।

और यह भी

ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ की इन उपचुनावों में रणनीति यह होगी कि दोनों अधिक से अधिक सीटों पर अपने उम्मीदवारों को विजयश्री का वरण करायें, क्योंकि भविष्य की राजनीति का खाका भी इस पर ही निर्भर करता है। यदि यह अवसर कांग्रेस के हाथ से चला गया तो फिर, फिलहाल उसके बाद हाथ मलने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचेगा। कांग्रेस की रणनीति तीन नेताओं की तगड़ी घेराबंदी कर उन्हें किसी भी सूरत में विधानसभा में ना पहुंचने देने की होगी। इनमें शिवराज सरकार में दो मंत्री बने तुलसी सिलावट और गोविंद सिंह राजपूत के साथ ही कमलनाथ सरकार में मंत्री रहे प्रद्युम्न सिंह तोमर शामिल हैं।

इसके साथ ही विंध्य अंचल में बिसाहूलाल सिंह, सुवासरा में हरदीप सिंह डंग और मुरैना में ऐंदल सिंह कंसाना की राह में भी अधिक से अधिक कांटे बिछाये जायेंगे। शिवराज मंत्रिमंडल का 17 मई के बाद किसी भी दिन विस्तार हो सकता है, इसमें सिंधिया के साथ गए पूर्व विधायकों में से उन सबको पद मिलेगा जिनसे भाजपा आलाकमान ने वायदा किया था। देखने वाली बात बस यही होगी कि बसपा, सपा, निर्दलीय के हाथ कुछ लग पाता है या नहीं और भाजपा में किस-किस का नम्बर लगता है।

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