राकेश अचल
देश-दुनिया का तो पता नहीं है लेकिन हमारे ग्वालियर-चंबल अंचल में इन दिनों ‘फेरों’ की राजनीति चल रही है इसे आप सियासत के फेरे भी कह सकते हैं। ‘फेरा’ एक आंचलिक शब्द है। ‘फेरे’ का अर्थ होता है मृतक के घर शोक व्यक्त करने वाली यात्रा। पुराने जमाने में फेरा लोक-व्यवहार का अभिन्न अंग था। महिलाएं और पुरुष सब फेरा करने के लिए जाते थे। महिलायें तो बाकायदा शाल ओढ़कर, घूंघट डालकर फेरे के लिए आती थीं। नियम था कि फेरे के बाद कोई रुकेगा नहीं और न किसी दूसरे के घर जाएगा। फेरे में कौन आया, कौन नहीं आया? इसका भी बाकायदा हिसाब रखा जाता था।
वक्त के साथ फेरों का स्वरूप भी बदल गया है। अब फेरे लोक-व्यवहार से ज्यादा सियासत की जरूरत बन गए हैं। फेरों में अब वास्तविक शोक का प्रकटीकरण या संवेदनाएं नहीं होतीं। इनकी जगह औपचारिकता ने ले ली है। अब फेरा करने के लिए जाने वाला व्यक्ति और शोकग्रस्त परिवार इस मौके पर फोटोग्राफी आदि का पूरा ध्यान रखता है। कहीं-कहीं तो बाकायदा स्वल्पाहार की भी व्यवस्था होने लगी है। ग्वालियर-चंबल अंचल में जो नेता फेरा करने में कच्चा होता है उसे जनता अक्सर फेर (बदल) देती है। चुनाव के समय तो प्रत्याशियों को फेरे के साथ ही ‘खर्च’ यानी त्रयोदशा के भारी-भरकम भोज की व्यवस्था भी खुद करना पड़ती है। गनीमत है कि अब इस अंचल में कुछ समाजों ने खर्च पर रोक लगा दी है। अन्यथा प्रत्याशियों को पांच सौ से लेकर पांच हजार लोगों तक के मृत्युभोज का खर्च वहन करना पड़ता था।
बात फेरों की चल रही थी। आजकल केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और राज्य सभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच फेरा करने की प्रतिस्पर्द्धा चल रही है। दोनों नेता अपनी पार्टी के दिवंगत नेताओं, कार्यकार्ताओं या उनके परिजनों के घरों पर जाकर हाजरी लगा रहे हैं, ज्यादातर लोग कोरोना के शिकार हुए हैं इसलिए फेरों की संख्या अमूमन औसत से ज्यादा हो गयी है। मजे की बात ये है कि इन दोनों अति विशिष्ट नेताओं के दौरे हर कोरोना के शिकार के यहां नहीं हो रहे। जो कुछ ज्यादा उदार हैं वे दूसरे दलों के नेताओं, कार्यकर्ताओं के यहां भी फेरा करने जा रहे हैं। इस अजूबी फेरा प्रतिस्पर्द्धा का लाभ कुछ दिवंगत पत्रकारों को भी मिला है। प्रदेश के गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा भी फेरों के मामले में बेहद गंभीर हैं।
जानकार बताते हैं कि नेताओं के लिए फेरा करने जाने और किसी के यहां भोज पर जाने में कोई बहुत फर्क नजर नहीं आता। नेता सज-धज कर अपने फ़ौज फांटे के साथ सूची बनाकर फेरा कार्यक्रम के लिए निकलते हैं। नेताओं के फेरा कार्यक्रम की बाकायदा सूचना जारी होती है। कहीं-कहीं तो मंत्रियों के फेरा कार्यक्रम के चित्र उतरवाने के लिए सरकारी फोटोग्राफरों की सेवाएं भी उपलब्ध कराना पड़ती है। जिस दिवंगत को इन नेताओं के हाथों से पुष्पांजलि मिल जाती है उसका और उसके साथ उसके परिजनों का तरना तय माना जाता है। मुमकिन है कि मोक्ष के लिए भटकने वाली आत्माओं को नेताओं के फेरे सम्पन्न होने के बाद शांति का अनुभव होता हो!
फेरा करने से नेताओं को जो लाभ मिलता है सो मिलता है उनके समर्थक का समाज में नाम हो जाता है। इज्जत बढ़ जाती है, लोगों को लगने लगता है कि दिवंगत और उसके परिवार का सचमुच कुछ न कुछ तो राजनीतिक रसूख रहा होगा, जो नेता जी फेरा करने के लिए आये। कायदे से फेरे की अवधि मृत्यु के तेरह दिन तक मानी जाती है, लेकिन नेताओं को इसमें ख़ास रियायत है। नेता अपनी सुविधानुसार तेरह दिन के बाद महीने, दो महीने बाद भी फेरा करने जा सकते हैं। फेरे में क्षणिक शान्ति के बाद दिवंगत के बारे में संक्षिप्त चर्चा होती है, बाद में सब कुछ मामूल पर आ जाता है।
नेताओं के फेरा कार्यक्रम की वजह से स्थानीय निकाय का काम बढ़ जाता है। सफाई दरोगाओं को उन रास्तों पर विशेष सफाई करने के साथ ही दिशा सूचक और कीटनाशक खड़िया और रसायन डलवाने पड़ते हैं। कहीं-कहीं तो वार्ड अफसर को फूल मालाओं का प्रबंध भी करना पड़ता है। इस अंचल में फेरा प्रथा बहुत पुरानी है। मैंने तो जब से होश सम्हाला है यहां के सभी दलों के नेताओं को फेरा प्रथा का पालन करते देखा है। सिंधिया परिवार तो इस मामले में बेहद संवेदनशील रहा है। कांग्रेस में अपेक्षाकृत फेरा प्रथा को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं होता लेकिन जब प्रतिस्पर्द्धा की बात आ जाती है तब सब दलों के नेता सक्रिय हो जाते हैं।
कोरोनाकाल में जब अंतिम संस्कार तक में लोगों के एक तय सीमा से अधिक लोगों के शामिल होने की मनाही थी, तब भी फेरा जारी रहा। लोग उठावनी तक में कम ही शामिल हुए लेकिन जब नेता फेरे के लिए निकले तो उनके साथ काफिले ही चले। इससे दिवंगत की आत्मा के साथ उसके परिजनों को भी संतोष मिला। मजे की बात ये है कि इस अंचल के नेता चाहे चुनाव में वोट मांगने आपके घर न आये हों लेकिन यदि आपका रत्तीभर भी रसूख है और दुर्योग से आपके यहां कोई शोक प्रसंग हो गया है तो नेता आपके यहां अवश्य पहुंचेंगे। नेता आपके यहां खुशी में शामिल हो या न हो लेकिन गम में जरूर शामिल होता है, क्यों होता है ये समाज विज्ञानी जाने!
आजकल शोक और ख़ुशी के दौरे साथ-साथ चल रहे हैं। सिंधिया का हाल का भोपाल दौरा खूब चर्चित रहा। इससे पहले सत्तारूढ़ भाजपा के तीन बड़े नेता प्रह्लाद पटेल, कैलाश विजयवर्गीय और उमा भारती की सक्रियता ने भी सियासत को गर्मी दी। ये सब नेता भी फेरा प्रथा के साथ जुड़े नजर आये।(मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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