आम आदमी का मसीहा बनने निकले अरविंद केजरीवाल ने गुप्ताओं की बावड़ी में कूद कर अपनी राजनीतिक-जान दे दी। मूर्खता का चरम इसे ही कहते हैं। उनकी छाया उनसे बहुत बड़ी है, यह तो मैं शुरू से जानता था, लेकिन वे दरअसल इतने बौने हैं, ऐसा भी मैं नहीं मानता था। बाबा भारती ने तो भेष बदल कर उनका घोड़ा ले भागने वाले डाकू खड़गसिंह को यह किस्सा अपने तक रखने की सलाह इसलिए दे दी थी कि असहायों की मदद से लोगों का भरोसा न उठ जाए, मगर जन-आंदोलनों से जन्मे रहनुमाओं के प्रति अपना मासूम विश्वास रखने वाला यह मुल्क किससे क्या कहे?
साढ़े तीन साल से अण्णा हजारे जन-लोकपाल समेत हर तरह की चिंता से मुक्त जाने कहां पड़े हैं। काले धन से लड़ाई का व्रत लेने वाले रामदेव अपने आर्थिक साम्राज्य को अगले पांच बरस में एक लाख करोड़ रुपए के शिखर पर पहुंचाने के लिए दिन-रात लगे हैं। किरण बेदी की साधना महज 562 वर्ग किलोमीटर के पुदुचेरी की उपराज्यपाल बन कर सार्थक हो गई है।
अब तो आप को याद भी नहीं होगा कि कभी मीरा सान्याल, अंजलि दमनिया, मेघा पाटकर, गुल पनाग, दिलकिस बानो, शाज़िया इल्मी और सोनी सोरी पिछले लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की टोपी लगा कर घूम रही थीं। प्रशात भूषण, योगेंद्र यादव, संतोष हेगड़े, मयंक गांधी और आनंद कुमार हताहत पड़े बाहर बिलबिला रहे हैं। भीतर कुमार विश्वास, आशुतोष, राघव चड्ढा और आशीश खेतान अपने ज़ख़्म सहला रहे हैं। ढाई लोगों के सल्तनत-दौर में आम आदमी पार्टी के तीन लोग मस्ताए घूम रहे हैं–अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह। बाकी सब ड्योढ़ी के बाहर हैं।
कुमार विश्वास को केजरीवाल ने राज्यसभा में नहीं भेजा, अच्छा किया। विश्वास का भी साहित्य-संसार में वैसा ही अधि-मूल्यांकन हो गया है, जैसा केजरीवाल का राजनीति की दुनिया में हो गया था। सो, प्रेमचंद के देश की संसद में गुलशन नंदा के प्रवेश को बाधित करने में केजरीवाल से कोई पाप नहीं हुआ है। आशुतोष भी पत्रकारिता-संसार के कोई पराड़कर, गणेश शंकर, कुलदीप नायर या राजेंद्र माथुर नहीं थे कि राज्यसभा उनसे सुशोभित होती। इसलिए केजरीवाल इस मामले में भी दोष-मुक्त हैं।
अपने एक हां-मिलाऊ पट्ठे को दिल्ली की सल्तनत का सर्वेसर्वा बना देने के बाद दूसरे पट्ठे को राज्यसभा में अपनी पार्टी का नेता बनाने का कलियुगी करतब भी कोई गै़र-पारंपरिक काम नहीं है। बावजूद इसके, सुशील गुप्ता और नारायण दास गुप्ता की गोद चले जाने का सियासी-पाप करने के बाद राजनीति की वैतरिणी केजरीवाल आगे किस पुण्य के सहारे पार करेंगे, वे ही जानें।
जन-आंदोलन से जन्मे एक राजनीतिक दल का यह हाल कैसे हो गया कि क़ायदे का कोई चेहरा उसकी तरफ़ से देश के उच्च-सदन में जाकर बैठने को तैयार नहीं है? रघुराम राजन, एन. आर. नारायणमूर्ति, मीरा सान्याल, अरुण शौरी और यशवंत सिन्हा जैसी हस्तियों को किसी और राजनीतिक दल ने राज्यसभा में भेजने की पेशकश की होती तो क्या वे अपनी संसदीय भूमिका निभाने से परहेज़ करते? तो फिर वैकल्पिक राजनीति का झंडा उठाए खड़ी पार्टी का नुमाइंदा बनना उनमें से किसी ने भी क्यों स्वीकार नहीं किया? इसलिए कि केजरीवाल ने वैकल्पिक राजनीति के झंडे को एक ऐसे चीथड़े में तब्दील कर दिया है, जिसकी रफूगिरी अब स्वयं परमात्मा भी नहीं कर सकते हैं।
आज़ाद भारत में संविद-सरकारों से शुरू हो कर जनता-सरकारों से गुज़रता हुआ वैकल्पिक राजनीति का मौजूदा प्रयोग भी उसी हश्र पर जा पहुंचा है। मुझे नहीं लगता कि केजरीवाल के दूध से जला भारतीय जनतंत्र अब फूंक-फूंक कर भी कभी छाछ पीने का साहस जुटा पाएगा। ऐसे समुद्र को मथने से तो न मथना ही बेहतर है, जिससे निकला अमृत कुपात्रों की नाभि में जा समाए।
हम किस बात को लेकर नरेंद्र मोदी और अमित शाह को कोसें? इस बात को लेकर कि वे मनमानी करते हैं? इस बात को लेकर कि वे गोआ से ले कर मणिपुर तक लोकतंत्र का चीर हरते हैं? इस बात को लेकर कि वे अपने बुजु़र्गों को दूर हकालते हैं? इस बात को लेकर कि वे अपने ना-लायक चहेतों को गले लगाते हैं? अच्छा हुआ, केजरीवाल आख़िरकार गोद चले गए। वरना न जाने कब तक उनके झक्कू पर भी बहुत-से लोग वैसे ही भरोसा किए बैठे रहते, जैसे नरेंद्र भाई की बाज़ीगरी पर किए बैठे रहे।
साढ़े तीन साल में दोनों का मुलम्मा उतर गया। एक को हमारे भोलेपन ने तीन दशक बाद देश में स्पष्ट बहुमत दे दिया और दूसरे को हमारी झौंक ने दिल्ली में तीन छोड़ कर बाकी सारी सीटें दे दीं। इन भरभराए जनादेशों के मुह पर जैसा झापड़ दोनों ने मारा है, उससे सन्नाए गाल सहला रहे लोग अब अपना दूसरा गाल इस जीवन में तो आगे करने से रहे।
पारंपरिक राजनीति के दबदबे की दुनिया में समानांतर राजनीति को मारने के लिए वैसे ही कौन-से कम हथकंडे अपनाए जाते हैं? ऐसे में खुदकुशी पर उतारू गमने मिल जाएं तो फिर बात ही क्या है! पहाड़ काटने को घर से निकले लोग ज़मीन पर ही ठीक से नहीं चल पाएं तो आंगन का क्या दोष? कहते हैं कि सामाजिक जीवन में जब अपने सम्मान और सार्थकता का लोप हो जाए तो प्राण त्याग देने चाहिए।
केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी अपना सम्मान खुद ही खो चुकी है। दोनों की सार्थकता जब रही होगी, रही होगी; अब वे इतिहास के कूड़ेदान में जा रहे हैं। मुझे तो लगता है कि ऐसे में अपने राजनीतिक प्राण त्यागने के लिए केजरीवाल ने गुप्ताओं की गुफा में संथारा लेकर हम सब पर उपकार ही किया है।
राजनीति को गिल्ली-डंडे का खेल समझने वालों की वज़ह से ही आज जनतंत्र इस खाई-किनारे खड़ा है। लेकिन केजरीवालों के किसी कुएं में कूद पडने से क्या जनतंत्र को भी हम खाई में छलांग लगा लेने दें? हम यह सोच कर बैठे नहीं रह सकते कि अब किस बात को लेकर मोदी-शाह को कोसें? जिन बातों को लेकर हम उन्हें धिक्कारते हैं, उन्हीं बातों को लेकर दुगनी आवाज़ में केजरीवाल को ललकारने का यह वक़्त है। इस वक़्त की अनदेखी करना और भी भारी पड़ेगा।
सनकियों के चंगुल से सियासत की रिहाई के यज्ञ में अपनी-अपनी हवन सामग्री लेकर पहुंचने मे देरी का पाप अगर हमने किया तो हम भी कौन-से स्वर्ग जाने वाले हैं? जो लोग अपने को मौजूदा दौर में वैकल्पिक राजनीति का वाहक समझते थे, वे सब हमारे सामने नंगे खड़े हैं। इन्हें फिर कपड़े पहनाने में वक़्त बर्बाद मत करिए। भावी सियासत की भलाई इनकी नंगई और उज़ागर करने में है।
जिन्हें आपने उजालों की खेती सौंपी थी, अगर वे आपके आंगन में अंधेरा परोस रहे हैं तो आप कब तक उन्हें नहीं लतियाएंगे? उनसे तो निज़ात पानी ही होगी। फिर चाहे वे सामाजिक बंटवारे के भजन गाने वाले हों या हमें वैकल्पिक राजनीति के क़ौमी तराने सुनाने वाले। जनतंत्र के बरामदे में विचर रहे इन अलग-अलग मुखौटों पर मुग्ध होने का नहीं, यह समय ये मुखौटे नोंच फेंकने का है। क्या आपको लगता है कि अब भी गूंगेपन से काम चल जाएगा?
(न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी पंकज शर्मा का यह लेख नया इंडिया से साभार)