अजय बोकिल
मध्यप्रदेश में सत्ता की छीना झपटी, बेशर्म हॉर्स ट्रेडिंग और नैतिकता की होली के बीच कुछ नेताओं ने अपने जज्बात, तंज और नसीहतें कविता की शक्ल में भी प्रकट की। यह बात अलग है कि यह ऐसी राजनीतिक लाग-डांट थी, जिसमें आत्मा की पवित्रता गायब दिखी। इसमें सत्ता के शीर्ष पुरुष विपक्ष को और विपक्ष के कर्णधार सत्ता पक्ष को नैतिकता की घुट्टी पिलाते दिखे। हालांकि दोनों कर वही रहे थे, जिससे बचना चाहिए था। इस पूरे प्रसंग से हैरत में वो आम वोटर है, जिसने अपना वोट देकर सत्ता की जिम्मेदारी बांट दी थी।
मध्यप्रदेश में इन दिनों जो जबर्दस्त राजनीतिक उठा पटक चल रही है, वो इस राज्य की सियासी तासीर से बहुत मेल नहीं खाती। कारण कि मध्यप्रदेश की जनता ने राज्य की सत्ता किसे सौंपी जाए, इसको लेकर अक्सर साफ जनादेश ही दिया है। केवल 1967 में ऐसी स्थिति जरूर बनी थी, जब कांग्रेस नेता गोविंद नारायण सिंह ने विपक्ष से मिलकर मोर्चा बना लिया था और डीपी मिश्रा की सरकार गिराकर खुद मुख्यमंत्री बन गए थे। उसके बाद यह पहला मौका है, जब मप्र के मतदाता ने लंगड़ा जनादेश दिया और कांग्रेस दूसरी पार्टियो एवं निर्दलियों की बैसाखी से सत्ता में आई। कमलनाथ मुख्यमंत्री बने।
कमलनाथ अनुभवी मंत्री, प्रशासक और उद्योगपति हैं। वे आर्थिक और अधोसंरचना विकास के दम पर ही नए मप्र की तस्वीर गढ़ना चाहते हैं। लेकिन एक प्रगल्भ राजनेता के तौर पर उनकी कार्य शैली पर सवाल उठते रहे हैं। क्योंकि उनकी प्रशासनिक सक्रियता के साथ हर स्तर पर संवाद कायमी में अपेक्षित तालमेल दिखाई नहीं देता। लगता है कि इंजन बाकी रेलगाड़ी से अलग चल रहा है। मप्र में उभरे कर्नाटक शैली के राजनीतिक संकट के पीछे यह गफलत भी है। फिलहाल दिग्विजयसिंह जैसे कांग्रेस के अनुभवी प्रबंधकों की वजह से कमलनाथ सरकार पर आया संकट टल गया है, लेकिन पूरी तरह खत्म हो गया है, यह कहना भी जल्दबाजी होगी। क्योंकि विपक्षी भाजपा के चतुर बहेलियों ने विधायकों को फांसने का जो जाल बिछाया है, वह अभी तार-तार नहीं हुआ है। पूरा खेल अब दूसरे चरण में है, जिसकी छाया राज्यसभा चुनाव में दिखाई पड़ सकती है।
बहरहाल सत्ता के इस निष्ठुर घमासान के बीच भी होली के पहले जो कविताई वार-प्रतिवार हुए, उससे निर्मम सत्ता संघर्ष को कुछ जज्बाती नमी मिली। मुख्यमंत्री कमलनाथ के साहित्य प्रेम के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन एक निर्वाचित सरकार को गिराने के भाजपाई खेल को अनैतिकता से जोड़ते हुए उन्होंने अपने ब्लॉग में हिंदी के मूर्धन्य कवि हरिवंशराय की कविता ‘अग्निपथ’ उद्धृत की। भाजपा को आड़े हाथों लेते हुए कमलनाथ ने लिखा-‘‘मैं यह कभी कल्पना भी नहीं कर सकता था कि सत्तालोलुपता भाजपा नेताओं को इस कदर नैतिक पतन की ओर ले जाएगी कि वे प्रदेश के नागरिकों के प्रजातंत्रीय निर्णय की ही सौदेबाजी करने लगेंगे।‘’ इसीके साथ कमलनाथ ने बच्चनजी की कविता ट्वीट की- ‘वृक्ष हों भले खड़े, हों घने हों बड़े, एक पत्र छाँह भी, माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु श्वेत रक्त से, लथपथ लथपथ लथपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।
बच्चनजी की इस कविता का सारांश है कि जीवन संघर्ष का ही नाम है। इस संघर्ष से घबराकर कभी रुकना नहीं चाहिए बल्कि कर्मठतापूर्वक आगे बढ़ते रहना चाहिए। हमें अपने जीवन में संघर्षों का सामना खुद ही करना चाहिए। चाहे जितनी कठिनाइयाँ आएं, किसी से मदद नहीं मांगनी चाहिए। हम किसी से मदद लेंगे, तो हम कमजोर पड़ जाएंगे और जीवन रूपी संघर्ष को जीत नहीं पाएंगे। कमलनाथ के इस संघर्ष संकल्प पर दिग्विजयसिंह ने उन्हें ट्वीट कर बधाई दी और हौसला अफजाई की।
इस अग्निपथी कविता का काव्यात्मक राजनीतिक जवाब नेता प्रतिपक्ष व भाजपा नेता भोपाल भार्गव ने सियासी एकाकीपन के तंज से दिया। अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा- ‘’कदम कदम पर बहारों ने साथ छोड़ा, जरूरत पड़ने पर यारों ने साथ छोड़ा। वादा किया सितारों ने साथ निभाने का, सुबह होने पर सितारों ने साथ छोड़ा।‘’ हालांकि इन काव्य पंक्तियों के वर्तमान सत्ता संग्राम के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध के हिसाब से अलग-अलग अर्थ निकाले जा सकते हैं। एक तरफ यह मुख्यमंत्री की राजनीतिक सतर्कता पर कटाक्ष भी है तो दूसरी तरफ इस पूरे कांड की (भाजपाई कोशिशों की) असफलता की परोक्ष स्वीकृति भी है।
फिलहाल राज्य में सत्ता पक्ष इस अचानक हुए ‘कोरोना अटैक’ के बाद डेमेज कंट्रोल में जुटा है। इसके लिए हर तरह के मास्क लगाए जा रहे हैं। दो बागी विधायकों को छोड़कर बाकी सब घरौंदो में लौट आए हैं। इससे सत्ता पक्ष में राहत की सांस है तो प्रतिपक्ष में अभी और धमाके होने की मंद-मंद मुस्कान है। उधर पॉवर और पैसे के लोभ में जो विधायक पाला बदलने पर उतारू थे, वो अब सफाइयों और नसीहतों भरे बयान दे रहे हैं। लेकिन इस पूरे प्रहसन में जो बेनकाब हुई है वो है मूल्यनिष्ठा और नैतिकता।
बागी विधायको ने तो साफ-साफ जता दिया कि वे केवल सत्ता के लालची हैं, फिर चाहे किसी भी तरह से और किसी भी कीमत पर मिले। उनके लिए कांग्रेस और भाजपा में कोई फर्क नहीं है। विचारधाराओं का इनके लिए कोई अर्थ नहीं है। कुर्सी और पैसा ही भगवान है, फिर चाहे जिस तरह मिले। यानी राजनीति में उन्होंने जो ‘इन्वेस्ट’ किया है, उसकी ब्याज समेत वसूली हो। संयम और शुचिता के सबक उनके लिए बेमतलब हैं। राजनीति की दुनिया में आए हैं तो कुछ ‘लेके’ ही जाएंगे। बाकी दुनिया की निगाह में यह हॉर्स ट्रेडिंग थी। यह हो भी इसलिए रही है क्योंकि खुद घोड़े बिकने को तैयार बैठे हैं, जो ज्यादा की बोली लगा दे। एक तरफ खुद के बिकाऊ नहीं होने का दंभ तो दूसरी तरफ चढ़ती बोली पर टिकी नजर।
विडंबना यह है कि मूल्यहीनता के इस अनैतिक कारोबार में भी ‘अग्निपथ’ की दुहाई दी जा रही है। सच कहें तो राजनीति में यह ‘अग्निपथ’ वास्तव में उन नैतिक मूल्यों, संवेदनशीलता और सतत संवाद की रक्षा का अग्निपथ है, जिस पर चलना आज न सिर्फ टेढ़ी खीर है बल्कि लोग तो इस ‘अग्निपथ’ को बायपास कर ‘लक्ष्मी पथ’ से आगे बढ़ना चाहते हैं। सबसे बड़ा मजाक तो यह है कि आज हर राजनीतिक दल ‘सिद्धांतों की राजनीति’ करने का दावा करता है और सबसे पहले उन्हीं सिद्धांतों का खून करने में नहीं हिचकता।
वो भी एक समय था, जब अटलबिहारी वाजपेयी जैसे नेता अपनी बात कविता के माध्यम से पूरी ताकत से कहते थे। लेकिन दलों की सियासी कटुता में उतनी रसिकता भी खत्म-सी हो गई है। प्रदेश में जारी राजनीतिक कुटिलताओं और घात-प्रतिघात के बीच भी अगर नेताओं को कविताएं याद आईं तो इसे कविता की ताकत और अपरिहार्यता ही माना जाना चाहिए, उस कविता की, आज खुद जिसकी ‘नागरिकता’ भी खतरे में है।