राजस्थान का रण है या तमाशा

राकेश अचल

कुर्सी के लिए कहाँ, क्या नहीं हो सकता? राजस्थान में आजकल जो हो रहा है वो किस्सा कुर्सी का ही है। अचानक पूर्व हो गए उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की हड़बड़ी उनके लिए घातक साबित हुई, वे ‘घर के रहे न घाट के’। सचिन पायलट मध्यप्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया कि तरह मौजूदा सरकार का तख्ता पलट कर बाग़ी बनना चाहते थे, लेकिन उनकी किस्मत अच्छी नहीं थी सो कांग्रेस ने उन्हें बीते डेढ़ साल में जितना मान-सम्मान दिया था वो सब एक झटके में छीन लिया। अब सचिन सड़कों पर हैं।

आपको बता दें कि सचिन और सिंधिया में यदि बहुत कुछ समानताएं हैं तो बहुत असमानताएं भी हैं। दोनों को राजनीति विरासत में मिली है और बिना संघर्ष किये ये दोनों संसद में पहुंचे थे। सचिन के पिता का एक जातीय आधार था और सिंधिया के पिता का एक सामंती आधार। दोनों के पिता विनम्र और व्यावहारिक थे, समय की चाल को समझते थे।

लेकिन सचिन और ज्योतिरादित्य सिंधिया में हड़बड़ी है, एक ठसक है और इसी ठसक के बिना पर वे लगातार आगे बढ़ रहे थे। सचिन ने अपनी ठसक से राजस्थान में अपनी हैसियत से ज्यादा पा लिया था, लेकिन सिंधिया को मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने पर उतना सब नहीं मिला। सिंधिया ने कांग्रेस में बगावत करने के साथ ही भाजपा की शरण ले ली लेकिन सचिन यहां चूक गए।

राजनीति गणित का खेल बन चुकी है। राजस्थान में फिलहाल गणित अशोक गहलोत के साथ है, सचिन के साथ नहीं। सचिन गहलोत सरकार को अस्थिर करने में तो कामयाब रहे लेकिन उसका तख्ता नहीं पलट पाए, सिर्फ इसी वजह से भाजपा में उनके भाव कम हो गए। सिंधिया के लिए सहूलियत ये थी कि उनकी दादी भाजपा की संस्थापक थीं और बुआ अभी भी भाजपा में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। पायलट के साथ ऐसा कोई संयोग नहीं है। एक उमा भारती भले उन्हें दुलारती दिखाई दे रहीं हों लेकिन वे भाजपा के लिए एकदम नए ही हैं।

आने वाले दिनों में सचिन क्या पाएंगे ये जल्द साफ़ हो जाएगा, लेकिन वे जो खो सकते थे, खो चुके हैं। उनसे कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष का पद चला गया, वे उप मुख्यमंत्री नहीं रहे। भाजपा के पास उन्हें देने के लिए फिलहाल कुछ है भी नहीं। सचिन चाहे अपनी अलग पार्टी बना लें या भाजपा में शामिल हो जाएँ उनके हाथ कुछ आने वाला नहीं है। जब तक कि गहलोत की सरकार अपदस्थ नहीं हो जाती। सिंधिया की तरह सचिन केंद्र की राजनीति में भी प्रासंगिक नहीं हैं, उन्हें राजस्थान की राजनीति ही करना पड़ेगी और मन मारकर करना पड़ेगी, झक मारकर करना पड़ेगी।

मान लीजिये आने वाले दिनों में सचिन येन-केन गहलोत की सरकार का तख्ता पलट भी दें तो भी भाजपा उन्हें पुरस्कृत    करने की स्थिति में नहीं है। भाजपा न उन्हें अपना प्रदेश अध्यक्ष बना सकती है और न मुख्यमंत्री। राज्य सभा के चुनाव हो चुके हैं इसलिए उन्हें सिंधिया की तरह वहां भी नहीं भेजा जा सकता। अब सचिन को लम्बे समय तक अपने वजूद के लिए संघर्ष करना पडेगा।

सचिन के पांसे उलटे पड़ने से न भाजपा का मंसूबा पूरा हुआ और न सचिन का। वे न अपने ससुर और साले की नजरबंदी समाप्त करा पाए और न खुद हीरो हीरालाल बन पाए। कभी-कभी ऐसा हो जाता है। ये गणित है और गणित के उत्तर हर समय सही नहीं होते।

हाल के दिनों में कांग्रेस में बगावत का झंडा बुलंद करने वालों में से किसी के पास स्वर्गीय चंद्रशेखर जैसा जोश नहीं है, कांग्रेस के पहले युवा तुर्क चंद्रशेखर ही माने जाते हैं। रीता बहुगुणा, सिंधिया, सचिन जैसे नेताओं के पास अपनी जमीन नहीं है, इनकी जमीन उधार की है। कांग्रस के परिवारवादी नेतृत्व को केवल वो ही नेता चुनौती दे सकता है जो लम्बे संघर्ष के लिए राजी हो, जिसकी विचारधारा स्पष्ट हो, जो अवसरवादी न हो।

यदि कांग्रेसी हो तो कांग्रेसी रहे और यदि नहीं है तो चुपचाप जो खोल ओढ़ना चाहे ओढ़ ले, फिर बगावत का नाटक न करे। जनता को भ्रमित करने वाले नेता अक्षम्य अपराध करते हैं। जनता समझ ही नहीं पाती कि उसके सामने जो नायक बनकर खड़ा है वो कौन सा नायक है, खलनायक, अधिनायक या जननायक? जन्मजात कांग्रेसी यदि पलक झपकते भाजपाई हो जाये तो हैरानी होती है।

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