भाजपा-कांग्रेस के सामने सरकार बचाने और बनाने की चुनौती

अरुण पटेल

राज्यसभा चुनाव समाप्त होते ही अब भाजपा के सामने शिवराज सिंह चौहान सरकार को बचाये रखने तथा कांग्रेस के सामने फिर से सरकार बनाने की चुनौती, विधानसभा के 24 उपचुनावों में सामने आने वाली है। राज्यसभा चुनाव के दौरान भाजपा को अपने संख्या बल से दो मत कम मिलने से उसके प्रबंध कौशल पर जो सवालिया निशान लगा है उसके बाद कांग्रेस के हौसले अब अधिक बुलंद हो गए हैं।

हालांकि कांग्रेस का भी एक मत निरस्त हुआ है लेकिन उसके बारे में पार्टी नेताओं का कहना है कि हमारे एक मत को दबाव डालकर भाजपा ने निरस्त कराया है जो कि बारीकी से देखने पर वैध मत ही था। भाजपा ने उपचुनावों की तैयारी काफी पहले आरम्भ कर दी थी तो कांग्रेस भी अन्दर ही अन्दर अपनी जमावट करने में मशगूल रही है, लेकिन अब दोनों को अपनी-अपनी ताकत मैदान में दिखाना पड़ेगी।

उपचुनावों के नतीजों से ही यह बात साफ हो सकेगी कि शिवराज सरकार बनी रहेगी या कमलनाथ पुन: प्रदेश के मुख्यमंत्री होंगे। कांग्रेस भले ही आत्मविश्वास से लबरेज हो लेकिन उसके सामने भाजपा की तुलना में अनेक दुश्वारियां हैं, क्योंकि यदि उसे सरकार में आना है तो कम से कम 18 से 20 स्थानों पर जीत दर्ज कराना होगी, जबकि भाजपा नौ-दस सीटें ही जीत लेती है तो उसकी सरकार बनी रहेगी। इतनी सीटें जीतना कांग्रेस के लक्ष्य की तुलना में उसके लिए आसान होगा।

यदि कांग्रेस मैदानी जमावट करने के साथ ही उम्मीदवारों का चयन केवल जीतने की क्षमता पर करती है तब कहीं जाकर वह उम्मीद लगा सकती है कि शायद उसकी सरकार बन जाये। भाजपा के सामने उपचुनावों के साथ ही एक और चुनौती मंत्रिमंडल विस्तार की है क्योंकि आंतरिक दबाव के चलते एवं राज्यसभा चुनाव में क्रांस वोटिंग न हो इसको देखते हुए अभी तक इसे टाला जाता रहा है।

मंत्रिमंडल विस्तार में अनेक दुश्‍वारियां इसलिए हैं क्योंकि एक तो दलबदल के पूर्व किए गए वायदे को पूरा करना है जिसके अनुसार दस से लेकर ग्यारह तक मंत्री सिंधिया समर्थक बनाये जाना है। इनमें से अभी केवल दो ही मंत्री बने हैं। वहीं इसके साथ ही यह चुनौती भी है कि भाजपा के नेताओं के लिए खाली स्थान कम बचेंगे जबकि दावेदार अनेक हैं, इसलिए वहां हालत एक अनार सौ बीमार जैसी है।

सूत्रों के अनुसार कुछ नामों को लेकर प्रदेश संगठन और शिवराज के बीच पूरी तरह तालमेल नहीं बैठ पा रहा है। शिवराज कम से कम अपने तीन-चार खास पसंदीदा लोगों को टीम में जगह देना चाहते हैं जबकि संगठन का जोर नये चेहरों पर है। ऐसे में शिवराज का वह कौशल कसौटी पर होगा जिसमें वे ऐसा संतुलन बिठायें कि क्षेत्रीय व जातिगत असंतुलन भी न हो, कुछ चहेते भी आ जायें और कुछ नये चेहरों को भी जगह मिल जाये। साथ ही असंतुष्टों की फौज भी ना बन पाये। यदि यह तालमेल न हो पाया तो हो सकता है कि उपचुनावों में भाजपा को कुछ खमियाजा भुगतना पड़े।

सूत्रों के अनुसार भाजपा के वरिष्ठ विधायक और पूर्व मंत्री गोपीलाल जाटव ने क्रास वोटिंग कर दिग्विजय सिंह को वोट दिया जबकि उन्हें ज्योतिरादित्य सिंधिया को वोट देने को कहा गया था। दूसरा वोट जुगल किशोर बागड़ी का निरस्त हुआ है और यह इस आधार पर हुआ कि जैसा निशान लगाया जाना चाहिए था वैसा नहीं लगाया गया। दोनों ही दलित विधायक हैं और इसमें कम से कम यह संदेश छिपा हुआ है कि सिंधिया के साथ विधायकों के भाजपा में आने से, जाटव जैसे कई विधायक हैं, जो अंदरखाने इसे पसंद नहीं कर रहे हैं।

जाटव ने जो सफाई दी है वह इसलिए आसानी से गले नहीं उतरती, क्योंकि वे पुराने विधायक हैं और कई बार वोट कर चुके हैं। हालांकि वे अब कह रहे हैं कि उन्होंने सिंधिया को ही वोट किया जबकि इसके पूर्व वह गलती होने की बात भी कह चुके हैं। यदि जाटव ने सिंधिया को वोट दिया है तो फिर सिंधिया को आवंटित 57 वोटों के स्थान पर 56 वोट कैसे मिले? इसी प्रकार उसके दूसरे उम्मीदवार सुमेर सिंह सोलंकी को एक मत कम क्यों मिला? जुगल किशोर बागड़ी के बारे में जो सफाई दी गयी है वह अधिक गले उतरने वाली है कि उनकी उम्र ज्यादा हो गयी है, अस्वस्थ हैं, इसलिए निशान लगाने में चूक हो गयी।

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ ने एक बार फिर अपने आपको मैनेजमेन्ट गुरु साबित कर दिया है क्योंकि तमाम तरह की अटकलों के बावजूद कांग्रेस को अपने संख्या बल से एक वोट ज्यादा मिला और एक वोट खारिज हो गया। जबकि भाजपा इस बात को लेकर बाग-बाग है कि उसे उसके विधायकों की संख्या से ज्यादा वोट मिले। वैसे ये तो मिलने ही थे क्योंकि तीन निर्दलीय और सपा-बसपा के तीन विधायकों ने भाजपा को मत दिया और यदि भाजपा के वोट बढ़े हैं तो उसका श्रेय संकटमोचक माने जाने वाले गृह एवं स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा को जाता है, जिन्होंने आरम्भ से ही इन विधायकों को साध कर रखा है।

जहां तक जीत के अन्दर भाजपा को एक झटका लगने की बात है उसमें एक तो भाजपा प्रबंधन के तमाम दावों के विपरीत कांग्रेस का कोई वोट कम नहीं हुआ बल्कि बढ़ गया और दूसरे प्रबंध कौशल में माहिर नेताओं के सक्रिय रहने एवं दिल्ली से दो केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, नरेन्द्र सिंह तोमर, उपाध्यक्ष व प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे तथा विजयंत पांडा के यहां डेरा डालने और विधायकों को प्रशिक्षण पर प्रशिक्षण देने के बावजूद उसके दो वोट कम हो गए। हालांकि केन्द्रीय नेता तो काफी विलम्ब से परिदृश्य में आये लेकिन प्रदेश स्तर पर प्रबंधन में सिद्धहस्त माने जाने वाले अनेक लोग राज्यसभा चुनाव के लिए मोर्चा संभाले हुए थे फिर यह चूक कैसे हो गयी? क्‍या अंदर ही अंदर असंतोष पनप रहा है जिसका यह सांकेतिक नमूना सतह पर आ गया?

जहां तक उपचुनावों का सवाल है कांग्रेस के सामने अधिक बड़ी चुनौती इस मायने में है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जो 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के स्टार प्रचारक थे, वे अब भाजपा खेमे में हैं। सिंधिया जी-जान से अपने सभी प्रत्याशियों को जिताने के लिए जुटेंगे और दूसरे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का अपना आभामंडल काम करेगा। दूसरी ओर भाजपा के पास केंद्रीय मंत्री तथा संगठनात्मक जमावट में सिद्धहस्त नरेंद्र सिंह तोमर और नेतृत्व द्वारा सौंपे गये दायित्व को सफलतापूर्वक अंजाम देने में निपुण माने जाने वाले डॉ. नरोत्तम मिश्रा एवं प्रभात झा जैसे नेता हैं।

कांग्रेस के पास दिग्विजय सिंह के अतिरिक्त कोई बड़ा चेहरा उपचुनाव की सबसे अधिक सीटों वाले ग्‍वालियर चंबल इलाके में नहीं है। हां फूलसिंह बरैया के रूप में उसे एक ऐसा चेहरा मिल गया है जिसकी ग्वालियर-चम्बल संभाग के दलितों में अच्छी पैठ है और गांव-गांव में उनका दलितों के बीच अपना एक अलग ही आधार है। इसके अलावा डॉ. गोविन्द सिंह, के.पी. सिंह, अशोक सिंह इस इलाके के नेता हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में इनकी पकड़ है।

अब बालेन्दु शुक्ला के कांग्रेस में आ जाने से ब्राह्मण मतदाताओं के बीच भी उसे एक बड़ा चेहरा मिल गया है। लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा जिसकी इस अंचल में पहले से ताकत थी, सिंधिया के आ जाने से उसमें इजाफा ही हुआ है। कांग्रेस का पहला प्रयास 24 विधानसभा क्षेत्रों में जहां उपचुनाव होना है वहां जिले से लेकर मतदान केन्द्र तक पार्टी का एक मजबूत ढांचा खड़ा करना था जिसे उसने गुपचुप तरीके से बखूबी कर लिया है। विधायकों एवं पूर्व मंत्रियों को भी सुनिश्चित जिम्मेदारियां सौंप कर उन्हें भी चाक-चौबंद रहने को कह दिया गया है।

और यह भी

राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस का भी एक मत निरस्त हुआ है जिसके बारे में उसके अपने तर्क हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता और कांग्रेस के पूर्व सांसद रामेश्वर नीखरा का कहना है कि हमारा जो वोट निरस्त हुआ है वह भाजपा नेताओं ने दबाव बनाते हुए आपत्ति लगाकर कराया है जबकि वह वोट अवैध नहीं था। कांग्रेस के चुनाव आयोग संबंधी कार्यों के प्रदेश प्रभारी एडवोकेट जे.पी. धनोपिया का कहना है कि जब भाजपा का एक मत निरस्त हो गया और एक मत क्रास वोटिंग में चला गया तब हमारे एक विधायक, जिसने सही निशान लगाया था, के वोट को इस आधार पर चुनौती दी गई कि उसने निशान पर निशान लगाया है इसलिए इसे निरस्त किया जाए।

धनोपिया कहते हैं कि इस पर हमने आपत्ति भी की लेकिन चूंकि इस एक वोट से चुनाव परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था इसलिए हमने अधिक जोर नहीं दिया। धनोपिया का यह भी दावा है कि जब ज्योतिरादित्य सिंधिया का एक मत और भाजपा के दो मत कम हो गए तब सिंधिया के आत्मसम्मान को संतुष्ट करने के लिए भाजपा ने आपत्ति कर हमारे दलित उम्मीदवार फूलसिंह बरैया का एक वोट कम कराया।

( लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक हैं।)

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