मेहरबानी कर अधकचरे ‘ज्ञान’ की गंगा तो न बहाएं!

अजय बोकिल
लगता है त्रिपुरा में मार्क्सवाद की बिदाई के साथ ‘ज्ञान की गंगा’ भी उलटी दिशा में बहने लगी है। त्रिपुरा के युवा मुख्यमंत्री जिस तरह एक के बाद एक ‘ज्ञान के डोज’ दिए जा रहे हैं, उससे संदेश यही जा रहा है कि राज्य में इसके अलावा करने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। ताजा मामला कवींद्र रवींद्रनाथ टैगोर की 157 वीं जयंती पर राज्य में आयोजित ‘राजशी समारोह’ का है। इसमें मुख्यंमंत्री विप्लब देव ने दुनिया को नई जानकारी यह दी कि टैगोर ने जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में अपना नोबेल पुरस्कार अंग्रेज सरकार को लौटा दिया था।

विप्लब शायद टैगोर की देशभक्ति की तारीफ गलत उदाहरण देकर करना चाहते थे। लेकिन ‘देशभक्ति’ का यह ज्वार किस तरह ठाठें मार रहा है, यह समझना हो तो राजस्थान सरकार की दसवीं की सामाजिक विज्ञान की अंग्रेजी माध्यम की पुस्तक पढि़ए। इसमें महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक को ‘आतंकवाद का पितामह’ (फादर ऑफ टेररिज्म) बताया गया है।

पुस्तक राजस्थान पाठ्य पुस्तक निगम ने प्रकाशित की है। तिलक के बारे में यह ‘निष्कर्ष’ शायद इस आधार पर निकाला गया है कि वे कांग्रेस में गरम दल के प्रणेता थे और मानते थे कि केवल अंगरेज सरकार को चिट्ठियां लिखने और प्रार्थना पत्र देने से भारत को आजादी नहीं मिलेगी। इसके‍ लिए भारतीयों को दम दिखाना होगा। यह मामला उजागर होने के बाद राजस्थान सरकार पसोपेश में है। उसकी तरफ से कोई अधिकृत बयान नहीं आया है।

पहले देश के महान कवि टैगोर की बात। रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले ऐसे गैर यूरोपीय और अश्वेत साहित्यकार थे, जिन्हें विश्व के सबसे बड़े नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। टैगोर को यह पुरस्कार उनकी मूल बंगला काव्य कृति गीतांजलि के लिए दिया गया था। पुरस्कार भी स्वयं टैगोर द्वारा इसके अंग्रेजी में किए गए अनुवाद के लिए मिला था।

टैगोर को यह पुरस्कार 1913 में दिया गया था और पुरस्कार के रूप में उन्हें एक सोने का पदक, स्मृति चिन्ह और 8 हजार पाउंड (आज के हिसाब से लगभग 73 लाख रुपये) की राशि प्रदान की गई थी। यह पुरस्कार उन्हें स्वीडिश अकादेमी ने दिया था। बाद में इसी राशि से टैगोर ने विश्व भारती‍ विश्वविद्यालय की स्थापना की।

नोबेल मिलने के बाद ब्रिटिश सरकार ने टैगोर को प्रतिष्ठित ‘नाइटहुड’ खिताब से सम्मानित किया। यह खिताब उन्हें 1915 में दिया गया। टैगोर को मिले नोबेल पदक और अन्य स्मृतिचिन्ह 2004 में विश्व भारती विवि से चोरी हो गए। मामले की जांच कर रही सीआईडी ने घटना के 12 साल बाद खुलासा किया कि एक बंगाली बाउल गायक ने ये चुराए थे।

हालांकि चोरी क्यों और कैसे हुई, वह सोने का पदक कहां गया, यह आज तक रहस्य है। बताया जाता है कि इस बीच विश्व भारती विवि के अनुरोध पर स्वीडिश अकादेमी ने एक दूसरा नोबेल का सोने का पदक और स्मृति चिन्ह की प्रतिकृति उपलब्ध कराई। विवि के टैगोर स्मारक में अब यही मौजूद है।

वर्ष 1919 में ब्रिटिश सेना द्वारा अमृतसर के जलियांवालां बाग में निहत्थे स्वतंत्रता सेनानियों का नरसंहार किए जाने के विरोध में टैगोर ने ‘नाइटहुड’ की उपाधि अंग्रेज सरकार को लौटा दी। इसके लिए उन्होंने बाकायदा तत्कालीन वॉयसराय चेम्सफोर्ड को चिट्ठी भी लिखी। टैगोर द्वारा नोबेल पुरस्कार लौटाने का सवाल इसलिए भी नहीं था, क्योंकि यह पुरस्कार उन्हें स्वीडिश अकादेमी ने दिया था, अंग्रेज सरकार ने नहीं। लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य विप्लब देव को कौन समझाए और उन्हें इसे जानने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इतिहास वही, जो अपने मन भाए।

अब राजस्थान की बात। स्कूली शिक्षा को लेकर राजस्थान की वसुंधरा सरकार पहले भी विवादों में रही है, लेकिन इस बार वहां भी ‘ज्ञान के नए क्षितिज’ खुले हैं। राज्य में अंग्रेजी माध्यम की सामाजिक विज्ञान की आठवीं की पुस्तक में स्वतंत्रता सेनानी और देश को ‘स्‍वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर ही रहूंगा’ जैसा नारा देने वाले ‍लोकमान्य तिलक को ‘आतंकवाद का पितामह’ बताया गया है। यह पुस्तक छात्रों को संदर्भ पुस्तक के तौर पर भेजी गई है।

पुस्तक के 22 वें अध्याय के पेज नंबर 267 पर आपत्तिजनक तथ्य लिखा है। ‘18-19 वीं शताब्दी के राष्ट्रीय आंदोलन की घटनाएं’ शीर्षक से जुड़े पाठ में कहा गया है कि तिलक ने राष्ट्रीय आंदोलन में उग्र प्रदर्शन के पथ को अपनाया था। और यही वजह है कि उन्हें ‘आतंक का पितामह’ कहा जाता है। इतना दुस्साहस तो उन्हें अपना दुश्मन नंबर वन मानने वाले अंग्रेजों ने भी नहीं किया। उपनिवेशवादी अंग्रेजी इतिहासकारों ने तिलक को ‘अशांति का पितामह’ तो कहा है लेकिन आतंकी कभी नहीं कहा। लेकिन राजस्थान में बच्चे यही पढ़ रह रहे हैं।

यह सब लिखने का उद्देश्य किसी व्यक्ति या सरकार को बदनाम करना नहीं है। मुद्दा है सही ज्ञान और जानकारी का। आपके पास प्रामाणिक जानकारी नहीं है तो मेहरबानी कर ऐसी बातें सार्वजनिक रूप से बोल कर अपनी हंसी तो न उड़वाएं। विप्लब टैगोर का नोबेल वापस करवाकर उन्हें क्या सिद्ध करना चाह रहे थे, महान देशभक्त या अज्ञानी? जो पुरस्कार उन्हें जिसने दिया ही नहीं, उसे लौटाने की नादानी टैगोर भला क्यों करते?

यह समझना भी मुश्किल है कि यदि आज पुरस्कार वापसी अगर ‘देशद्रोह’ है तो उस समय की पुरस्कार वापसी (जो वास्तव में हुई ही नहीं थी) ‘देशभक्ति’ कैसे है?

इसी तरह तिलक को ‘आंतकी’ बताना राजस्थान सरकार की मंशा नहीं रही होगी, लेकिन राज्य में पाठ्य पुस्तकें भी कैसे ‘विद्वान’ लोग लिख रहे हैं, यह उसकी बानगी है। इसका अर्थ यह नहीं कि पहले किताबें हमेशा सही ही लिखी जाती थीं, लेकिन अगर अब ‘सुधार’ अभियान चल रहा है, तो कम से कम इतिहास एक बार ठीक से पढ़ तो लें। सार्थक हिंदुत्व के लिए भी यह जरूरी है।
(सुबह सवेरे से साभार)

 

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