गिरीश उपाध्याय
बहुत ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब देश में चारों तरफ सूखे को लेकर हाहाकार था। बूंद बूंद पानी को तरसते लोग, 70-80 फुट कुएं में रिस रहे पानी को जमा करते लोग, जमीन में गहरे गड्ढे कर कटोरी से पानी जुटाते लोग, तपती रेत पर मीलों चलकर पानी लेकर आते लोग, पानी के लिए बंद पड़ी खदानों में जाकर जान जोखिम में डालते लोग, ये सब लोग अखबारों और टीवी चैनल की सुर्खियों और चर्चाओं का विषय बन रहे थे। तड़की हुई जमीन और पानी के बिना सूखे हुए कंठ इस देश की सबसे बड़ी खबर थे।
लेकिन अब दृश्य बदल गया है। जिस पानी के न होने पर रोना धोना और हाहाकार मचा हुआ था, अब जब वो पानी झूम कर आपकी गगरी भरने आया है, तो हम ‘आफत की बारिश’, ‘बारिश का कहर’, ‘पानी में डूबी जिंदगी’, ‘तबाही लेकर आया मानसून’ जैसे शीर्षकों से उसका स्वागत (?) कर रहे हैं। इन हालात को देख मुझे कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-
‘’देने वाले ने तो कोई कसर बाकी न रखी,
हमारी ही झोली छोटी थी जो हम ले न सके।‘’
(वैसे यदि यहां ‘छोटी’ के बजाय ‘फटी’ शब्द का इस्तेमाल करना और भी ज्यादा उपयुक्त होगा।)
इंसान भी गजब की चीज है। सूखा हो तो चिल्लाओ, पानी हो तो चिल्लाओ, ठंड हो तो हायतौबा करो और गरमी हो तो हाहाकार मचाओ। ऊपर वाला बेचारा करे तो क्या करे। आप से चीजें संभलती नहीं, इसमें उसका क्या दोष। वह तो अपनी तरफ से दे ही रहा है। हमने ही हमारी झोली में इतने छेद कर लिए हैं कि उसका दिया हुआ हमारे पास टिकता ही नहीं। यकीन न हो तो खुद मीडिया की खबरों को ही दुबारा पढ़ लीजिए। वे कभी कहती हैं बारिश का 10 साल का रिकार्ड टूटा, कभी लोग लिखते हैं 50 साल का रिकार्ड टूटा। यानी हम खुद ही इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि ऐसा या इस सीमा तक पानी 50 साल पहले भी बरस चुका है। मतलब ऊपर वाला अपने हिसाब से कभी कम कभी ज्यादा देता ही आया है।
अब जरा ऊपर से नीचे आ जाइए। यहां हम क्या कर रहे हैं? हम लगातार कई सालों से चिल्ला रहे हैं कि हमने बारिश के पानी को सहेजने के लिए इंतजाम किए हैं। जब गरमी पड़ती है तो हम लोगों को गड्ढे खोदते दिखाते हैं। लेकिन जब पानी बरसता है तो उसे सहेजने के बजाय हमारा सारा जोर, सारा ध्यान, सारा जतन उसकी निकासी पर होता है। कैसे यह पानी जल्दी से जल्दी हमारे घरों, हमारी बस्ती, हमारे मोहल्ले, हमारे गांव, हमारे शहर से निकले। कैसे उफान पर आए नाले का पानी उतरे, ताकि हम फिर से उसकी छाती पर अपनी झुग्गियां, दुकानें, मकान ठोक सकें। तो बेचारा पानी क्या करे। बरसे तो मुसीबत, न बरसे तो मुसीबत।
अभी चार दिन पहले मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 24 घंटे में 11 इंच बारिश हो गई। जो धरती बूंद बूंद को तरस रही थी, वहां लाखों करोड़ों लीटर पानी था, लेकिन सब बहकर निकल गया। क्या कर लिया हमने? उसने तो दिया। पर हम तो अपने बाल्टी, बर्तन संभालने में लगे रहे। अब जब नहीं होगा तब उसके माथे पर ठीकरा फोड़ेंगे।
हम हर साल वॉटर हार्वेस्टिंग की जुगाली करते हैं। लेकिन क्या हमारी सरकारें या हमारे नगरीय निकाय यह ठीक ठीक बताने की स्थिति में हैं कि बारिश के पानी को सहेजने के लिए ये जो ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ का ढिंढोरा वर्षों से पीट रहे हैं उसे तहत कितना पानी सहेजा गया होगा? क्या हमारे योजनाकारों को ऐसा नहीं लगता कि इस पानी बचाओ अभियान का कोई तार्किक और वैज्ञानिक ऑडिट होना चाहिए और उसकी रिपोर्ट हर साल सार्वजनिक की जानी चाहिए। यदि सचमुच आपके प्रयासों से वॉटर हार्वेस्टिंग हो रही है तो लोगों को भी पता चले। और यदि नहीं हो रही तो ऐसे उपाय खोजे जाएं या ऐसे प्रयास हों कि वह हो सके।
जितनी चिंता नाले-नालियों पर हो गए अतिक्रमण को बचाने के लिए सरकार दिखाती है, उसका दसवां हिस्सा भी जरा बारिश के पानी को सहेजने की तरफ दिखा दे। जलस्रोतों पर अतिक्रमण करने वालों और उन्हें खत्म कर देने वालों के लिए तो सरकारें छाती ठोक कर कहती हैं कि कोई माई का लाल उन्हें नहीं हटा सकता, लेकिन कभी यह भी तो कहे कि यदि किसी माई के लाल में हिम्मत है तो अब वह नाले, तालाब, बावड़ी आदि पर अतिक्रमण करके दिखाए।
अब समय आ गया है कि सरकारें ऐसी बड़ी बड़ी बातें करने से बाज आएं। ये ‘स्मार्ट’ शब्द जो उसके दिमाग में कीड़े की तरह घुस गया है, उसे थोड़ा बाहर निकालें। इतना स्मार्ट हो जाना भी ठीक नहीं है, थोड़ा गंवार बने रहना भी जरूरी है। गंवार होना हमें गांव से जोड़ता है, वहां की मिट्टी से जोड़ता है। मुश्किल यह है कि हम मिट्टी से जुड़ना ही भूल गए हैं। मिट्टी से जुड़ने की बात आते ही हमारे दिमाग में जमीन कौंध जाती है। और जमीन की यह बिजली रह रहकर दिमाग में क्यों चमकती है, इसके कारण का खुलासा करने की जरूरत नहीं है।
तो हे जहांपनाह आपसे इल्तजा है कि हर चौमासे में विहार की तरह निकलने के बजाय बारहों महीने इसकी चिंता करें। और हे जहांपनाह की जनता, आप भी इतने बेदर्द मत बनिए, आपके चरणों में बिखरा यह अमृत सहेजने के जतन करिए। आप दोनों को, आपकी इस ‘बेदर्दी’ की ही कसम, कम से कम इस आबे हयात को यूं ही जाया तो न होने दें। इतना जुल्म तो न करें।